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क्या भारतीय अर्थव्यवस्था ख़तरे से बाहर आ चुकी है?

देश में गरीबों की संख्या बहुत तेज़ी से बढ़ी है, इसमें साढ़े सात करोड़ नए लोग जुड़ गए हैं। मंदी से पहले भारत में छह करोड़ से कम लोग गरीबी की परिभाषा में आते थे। प्यू रिसर्च के अनुसार अब ऐसे लोगों की गिनती 13.4 करोड़ है। यानी दुगने से भी ज्यादा। यह अपने आप में एक बेहद गंभीर आर्थिक संकट का इशारा है।
आलोक जोशी

इनकम टैक्स और प्रत्यक्ष कर की वसूली सरकार की उम्मीद से बेहतर हो गई है। फरवरी में लगातार तीसरे महीने जीएसटी की वसूली भी एक लाख दस हज़ार करोड़ रुपए से ऊपर रही। डीज़ल की बिक्री कोरोना काल से पहले के स्तर पर पहुँच चुकी है और एक के बाद एक अंतरराष्ट्रीय एजेंसी भारत की जीडीपी ग्रोथ का अनुमान बढ़ा रही है। बहुत सोच समझकर बोलने वाले रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास भी कह चुके हैं कि सबसे बुरा दौर बीत चुका है और अब भारतीय  अर्थव्यवस्था को ऊपर ही जाना है। 

इतनी खुशखबरियों के बावजूद पिछले पूरे हफ़्ते शेयर बाज़ार कुछ मायूस सा क्यों रहा? हालांकि शुक्रवार को सेंसेक्स 641 प्वाइंट चढ़कर बंद हुआ, लेकिन उससे पहले पाँच दिन में वो दो हज़ार पाइंट लुढ़क चुका था। यह बाज़ार पिछले साल भर में करीब करीब दोगुना कैसे हुआ यह अलग पहेली है। 

ख़ास ख़बरें

लेकिन खुशखबरियों के साथ ही कुछ परेशान करनेवाली खबरें भी आती रही हैं। थोक और खुदरा महंगाई दोनों ही बढ़ रही हैं। कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स पिछले तीन महीनों में सबसे ऊपर आ गया है तो थोक महंगाई का आँकड़ा 27 महीने की नई ऊंचाई पर है।

अभी ये दोनों ही आँकड़े रिजर्व बैंक की चिंता का कारण नहीं हैं क्योंकि उन्होंने ख़तरे का निशान पार नहीं किया है। लेकिन डर है कि जल्दी ही ऐसा हो सकता है क्योंकि तेल का दाम बढ़ता जा रहा है। न सिर्फ कच्चा तेल बल्कि खाने का तेल और  विदेश से आनेवाली दालें भी महंगी हो रही हैं। 

लॉकडाउन का असर ख़त्म?

ये सब तब हो रहा है जब देश की आधी से ज्यादा आबादी अभी लॉकडाउन के असर से निकलने की कोशिश में ही है। बहुत बड़ी आबादी के लिए यह कोशिश कामयाब होती नहीं दिख रही है। सरकार ने अगस्त में पीएफ दफ्तर के आँकड़े दिखाए थे और कहा था कि 6.55 लाख नए लोगों को रोजगार मिला है। 

श्रम मंत्री संतोष गंगवार ने संसद में बताया कि गए साल अप्रैल से दिसंबर के बीच 71 लाख से ज्यादा पीएफ खाते बंद हुए हैं। यही नहीं सवा करोड़ से ज्यादा लोगों ने इसी दौरान अपने पीएफ खाते से आंशिक रकम निकाली, यानी उन्हें भी किसी न किसी वजह से पैसे की ज़रूरत थी।

सर्वेक्षण

रोज़गार का हाल जानने के लिए कोई पक्का तरीका है नहीं, इसीलिए सरकार ने अब इस काम के लिए पाँच तरह के सर्वे करने का फ़ैसला किया है ताकि देश में रोज़गार और बेरोज़गारी की समग्र तसवीर सामने आ सके। यह काम बहुत ज़रूरी था, लेकिन नतीजा जब आएगा तब पता चलेगा कि कितना सच सामने आया है।

इस तरह के सर्वेक्षण की ज़रूरत शायद न पड़ती अगर कोरोना का संकट न आया होता और अब से ठीक एक साल पहले पूरे भारत में लॉकडाउन का एलान न होता। दुनिया की सबसे बड़ी तालाबंदी या कहें कि देशबंदी करते वक्त अगर सरकारों को अंदाजा होता कि इसका क्या असर होने जा रहा है तो शायद वो कुछ और फ़ैसला करतीं। लेकिन अब पीछे जाकर फ़ैसला तो पलटा नहीं जा सकता। जो होना था हो चुका है। 

लॉकडाउन और उसके बाद

लॉकडाउन का अर्थ था देश की सारी आर्थिक गतिविधि पर अचानक ब्रेक लगना। उसी का असर था कि अगले तीन महीने में अर्थव्यवस्था में करीब 24 प्रतिशत की गिरावट और उसके बाद की तिमाही में फिर 7.5 प्रतिशत की गिरावट के साथ भारत बहुत लंबे समय के बाद मंदी की चपेट में आ गया। अच्छी बात यह रही कि साल की तीसरी तिमाही में ही गिरावट थम गई और देश मंदी से बाहर आ गया।

तब से अब तक जश्न का माहौल बनाने की तमाम कोशिशें चल रही हैं। कुछ खुशखबरियां मैंने ऊपर गिनाईं, लेकिन वो बहुत कम हैं। एक लंबी फेहरिश्त है, और आजकल की सोशल मीडिया वाली ज़ुबान में कहें तो “पॉरी चल रही है।” यानी पार्टी चल रही है। 

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लॉकडाउन के दौरान दिल्ली की सूनी सड़क

लेकिन किस्सा यहीं खत्म नहीं हुआ। हो जाता तो बहुत अच्छा रहता। लेकिन अब आ रहे हैं कुछ और बारीक और मोटे आँकड़े। और उन्हें पढ़ पढ़कर फिर याद आने लगी हैं वो डरावनी खबरें जो लॉकडाउन की शुरुआत में आ रही थीं।

लाखों लोग बड़े शहरों को छोड़कर निकल पड़े। सरकारों के रोकने के बावजूद, पुलिस के डंडों से बेखौफ, सरकार की ट्रेनें और बसें बंद होने से भी बेफिक्र। जिसे जो सवारी मिली वो पकड़ ली। जिसे नहीं मिली वो अपने स्कूटर, मोटर साइकिल, ऑटो रिक्शा या टैंपो से ही निकल पड़े। और इनसे भी ज्यादा जीवट वाले लोग वे थे जो साइकिलों से, साइकिल रिक्शा से या फिर पैदल, नंगे पाँव हजारों मील का सफर पूरा करने चल दिए। 

यही वक़्त था जिसके बारे में बाद में सीएमआईई ने बताया कि सिर्फ अप्रैल के महीने में भारत में 12 करोड़ लोगों की नौकरी चली गई थी, एक झटके में।

हालाँकि कुछ ही महीनों में इनमें से करीब 11 करोड़ लोगों को कोई न कोई दूसरा काम मिल गया और सिर्फ एक करोड़ के आसपास ही लोग बेरोजगार रह गए। लेकिन दूसरी चिंता शुरू हुई कि अब पढ़े लिखे नौकरीपेशा लोगों पर खतरा बढ़ा और उनकी नौकरियाँ बड़े पैमाने पर जाने लगीं। और जिनकी बचीं वहाँ भी तनख्वाहें कम हो गईं।

ख़तरनाक संकेत

तब सीएमआईई के एमडी ने कहा कि यह लंबे दौर के लिए खतरनाक संकेत है। और आज अपने आसपास देखिए तो समझ में आता है कि वो किस खतरे की बात कर रहे थे। 

बैंकों ने रिजर्व बैंक को चिट्टी लिखकर माँग की है कि वर्किंग कैपिटल के लिए क़र्ज़ पर ब्याज चुकाने से मार्च के अंत तक जो छूट  दी गई थी, उसका समय बढ़ा दिया जाए। साफ है, बैंकों को डर है कि उनके ग्राहक अभी तक क़र्ज़ चुकाने की हालत में नहीं आए हैं और दबाव डाला गया तो यह कर्ज एनपीए हो सकते हैं। 

दबाव में हैं बैंक

भारत सरकार के खुद के आँकड़े भी दिखा रहे हैं कि रिटेल यानी छोटे लोन के कारोबार में प्राइवेट बैंक सबसे ज्यादा दबाव महसूस कर रहे हैं।
इन्होंने इस श्रेणी में जितने कर्ज बाँट रखे हैं उनमें किश्त न भरनेवाले ग्राहकों की गिनती 50% से 380% तक बढ़ चुकी है, मार्च से दिसंबर के बीच।

बैंक अधिकारियों को उम्मीद है कि हालात सुधरने के साथ यह लोग कर्ज चुकाने की हालत में आएँगे और तब यह कर्ज डूबने का डर कम हो जाएगा। 

इससे भी खतरनाक नज़ारा है एजुकेशन यानी उच्च शिक्षा के लिए दिए गए कर्जों का। सरकारी बैंकों ने 31 दिसंबर को 10 प्रतिशत से ज़्यादा ऐसे क़र्जों को एनपीए यानी डूबनेवाला क़र्ज़ मान लिया है। जानकारों का कहना है कि नौकरी जाना, आमदनी कम होना या कोरोना संकट के बाद बीच में ही कॉलेज छोड़ देने जैसी स्थिति इस हालात के लिए ज़िम्मेदार हैं। 

इस साल होम लोन, कार लोन या रिटेल लोन के मुकाबले सबसे खराब हाल एजुकेशन लोन का ही है। कॉलेजों का हाल देख लीजिए या नई नौकरियों का, यह जल्दी सुधरने का हालात भी नहीं दिखते। अपना नाम न बताने की शर्त पर जयपुर के एक वरिष्ठ बैंक अधिकारी ने कहा कि खासकर इस सेगमेंट में तो ख़तरा पहले से ही दिख रहा था, कोरोना ने सिर्फ आग में घी का काम किया है।

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क़र्ज़ लिया, नौकरी नहीं मिली

उनका कहना है कि जिस रफ़्तार से लोग क़र्ज़ लेकर पढ़ने निकल रहे हैं उतनी नौकरियाँ सामने हैं नहीं। इसलिए कोर्स करने के बाद भी कमाई कहाँ से होगी और लोन चुकाया कैसे जायेगा, यह सवाल बहुत बड़ा है। और आज जानकारों का कहना है कि संगठित क्षेत्र में लोगों की नौकरियां जाना और नई नौकरियां न मिलना इन कर्जों के डूबने की सबसे बड़ी वजह है। 

इस हाहाकार के बीच आपने यह ख़बर ज़रूर देखी होगी कि पिछले साल भारत में 55 नए अरबपति पैदा हो गए। और यह भी कि गौतम अडानी ने इस बीच अपनी संपत्ति बढ़ाने की रफ़्तार में दुनिया के सारे धनकुबेरों को पीछे छोड़ दिया।

इस साल देश में मध्यवर्ग की आबादी में सवा तीन करोड़ लोगों की गिरावट आई है। इसमें रोज़ाना 10 से 50 डॉलर तक कमाने वाले लोग शामिल हैं। कम कमाई करने वालों यानी रोज़ दो से सात डॉलर तक कमानेवालों की गिनती में भी साढ़े तीन करोड़ की गिरावट आई है।

ग़रीबों की तादात बढ़ी

लेकिन इनमें से किसी का हाल बेहतर नहीं है क्योंकि कुछ बेहद अमीर लोगों को छोड़ दें तो अमीरों की लिस्ट भी थोड़ी छोटी ही हुई है। और यहीं सबसे बड़ी फिक्र की बात है, कि देश में गरीबों की संख्या बहुत तेज़ी से बढ़ी है, इसमें साढ़े सात करोड़ नए लोग जुड़ गए हैं। मंदी से पहले भारत में छह करोड़ से कम लोग गरीबी की परिभाषा में आते थे। प्यू रिसर्च के अनुसार अब ऐसे लोगों की गिनती 13.4 करोड़ है। यानी दुगने से भी ज्यादा। 

यह अपने आप में एक बेहद गंभीर आर्थिक संकट का इशारा है। लेकिन अब जिस अंदाज में देश के अलग अलग हिस्सों में कोरोना के नए मामले आ रहे हैं। महाराष्ट्र और केरल के बाद अब उत्तर भारत के राज्यों और दिल्ली में भी आशंका बढ़ रही है, वहाँ सबसे बड़ी आशंका यह खड़ी हो रही है कि किसी तरह पटरी पर लौटती आर्थिक गतिविधि को कहीं एक और बड़ा झटका तो नहीं लग जाएगा। कोरोना के लॉकडाउन की पहली बरसी पर हम सबको यही मनाना चाहिए कि सबको सन्मति दे भगवान और लोग दो गज की दूरी, मास्क, सैनिटाइजेशन और टीके का सहारा लेकर किसी तरह इस हाल से आगे निकलने का रास्ता बनाएँ। वरना बड़ी मुश्किल खड़ी हो सकती है। 

(लेखक सीएनबीसी-आवाज़ के पूर्व संपादक हैं।) 

('हिन्दुस्तान' से साभार)

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