लोकतंत्र के कमज़ोर होने और डेमोक्रेसी इंडेक्स में 10 स्थान फिसलने की रिपोर्ट आने के एक दिन बाद ही अब भ्रष्टाचार के मामले में भी दो स्थान फिसल गया है। भारत करप्शन परसेप्शन इंडेक्स यानी भ्रष्टाचार सूचकांक में पिछले साल के 78 वें स्थान से लुढ़ककर इस बार यानी 2019 में 80वें स्थान पर पहुँच गया है। हालाँकि इसका स्कोर पिछली बार की तरह 100 में से 41 रहा है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने यह रिपोर्ट जारी की है। इसने रिपोर्ट में 'अनुचित और अपारदर्शी राजनीतिक वित्तपोषण' को लेकर सवाल खड़े किए हैं। ऐसी रिपोर्ट तब है जब यही मोदी सरकार अपने पिछले कार्यकाल में राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता लाने के नाम पर इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम लेकर आई। लेकिन इस योजना में और भी ज़्यादा अपारदर्शिता के आरोप लगते रहे हैं। चुनावी चंदे में अपारदर्शिता का साफ़ मतलब यह है कि किसी कंपनी या व्यक्ति ने किसी पार्टी को कितना चंदा दिया, इसकी जानकारी नहीं देना।
अब यदि किसी पार्टी को मिलने वाले चंदे के बारे में यह जानकारी नहीं हासिल की जा सकती है कि वह पैसा कालाधन का है या भ्रष्टाचार का तो पारदर्शिता कहाँ रहेगी? ऐसे में भ्रष्टाचार कम होगा या बढ़ेगा?
चुनावी चंदा देने के मामले में यह भी प्रावधान है कि कंपनियों या व्यक्तियों को भी यह बताने की ज़रूरत नहीं होती है कि उन्होंने किन्हें चंदा दिया है। अब यदि ऐसे में किसी कंपनी ने किसी पार्टी को चंदा दिया है तो उसके सत्ता में होने पर उसका फ़ायदा तो वह उठाना चाहेगा ही! ऐसे में ज़ाहिर तौर पर भ्रष्टाचार भी होगा। इन परिस्थितियों में भ्रष्टाचार की रैंकिंग में फिसलना कोई चौंकाने वाली बात नहीं है।
चुनाव सुधार पर काम करने वाली ग़ैर-सरकारी संस्था एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफ़ॉर्म्स यानी एडीआर भी इलेक्टोरल बॉन्ड योजना पर सवाल उठाता रहा है। इसने हाल ही में चुनावी चंदे पर एक रिपोर्ट जारी की है। एडीआर के अनुसार, 2018-19 में बीजेपी को चंदे में 2410 करोड़ रुपये मिले जिसमें 1450 करोड़ रुपये चुनावी बॉन्ड के ज़रिए आए। कांग्रेस को चंदे में 918.03 करोड़ रुपये मिले जिनमें 383.26 करोड़ रुपये इस बॉन्ड से माध्यम से आए। तृणमूल को 97.28 करोड़ रुपये चुनावी बॉन्ड से मिले। दूसरी पार्टियों को भी ऐसे ही चंदे मिले पर इनकी अपेक्षा काफ़ी कम। हालाँकि, यह रक़म पार्टियों द्वारा ही घोषित किया गया है।
ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के करप्शन परसेप्शन इंडेक्स यानी सीपीआई 2019 की रिपोर्ट में भी ऐसी ही बात कही गई है। इसके अनुसार, भारत और ऑस्ट्रेलिया जैसे लोकतांत्रिक देशों में अनुचित व अपारदर्शी राजनीतिक वित्तपोषण, ताक़तवर कॉरपोरेट जगत के हितों की पैरवी करने वालों द्वारा निर्णय लेने में अनावश्यक दबाव बनाने और लॉबी करने के कारण भ्रष्टाचार पर नियंत्रण नहीं हो रहा है। बल्कि कई मामले में या तो गिरावट आई है या यह वहीं ठहरा हुआ है।
ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने कहा, 'हमारे विश्लेषण से यह भी पता चलता है कि भ्रष्टाचार उन देशों में अधिक व्याप्त है जहाँ बड़ी रक़म स्वतंत्र रूप से चुनावी अभियानों में प्रवाहित हो सकती है और जहाँ सरकारें केवल धनी या इनसे अच्छी तरह से जुड़े लोगों की आवाज़ सुनती हैं।'
रिपोर्ट में 180 देशों में सार्वजनिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार के मामलों का सर्वे किया जाता है। इसमें देशों को ज़ीरो से लेकर 100 अंक दिए जाते हैं जहाँ ज़ीरो का मतलब है सबसे ज़्यादा भ्रष्ट और 100 का मतलब है सबसे साफ़-सुथरा।
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चीन ने अपनी स्थिति सुधारी
चीन ने इस बार अपनी स्थिति सुधारी है और 100 अंक में से 41 अंक लाकर वह पिछली बार के 87वें स्थान से छलाँग लगाकर 80वें स्थान पर पहुँच गया है। भारत का भी स्कोर 41 ही है और यह 80वें स्थान पर है। इस मामले में सबसे बेहतर देश न्यूज़ीलैंड और डेनमार्क हैं। इनमें से प्रत्येक के 87 स्कोर हैं। इस सूची में सबसे निचले पायदान पर सोमालिया, साउथ सूडान और सीरिया हैं। बता दें कि 22 देशों ने अपनी रैंकिंग सुधारी है, 21 देशों की रैंकिंग नीचे गिरी है और बाक़ी के 137 देशों में ज़्यादा बदलाव नहीं हुए हैं।
कमज़ोर हुआ भारत में लोकतंत्र!
भ्रष्टाचार पर इस रिपोर्ट के आने से एक दिन पहले ही भारत में लोकतंत्र के कमज़ोर होने की रिपोर्ट भी आई है! यह रिपोर्ट प्रतिष्ठित इकनॉमिस्ट समूह के इकनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट की है। लोकतंत्र की मज़बूती कितनी है, इसको मापने के लिए यह डेमोक्रेसी इंडेक्स यानी लोकतंत्र सूचकांक तैयार करती है। इसमें कहा गया है कि भारत पिछले साल यानी 2018 में 41वें स्थान से 10 स्थान फिसलकर 51वें स्थान पर पहुँच गया है। इससे पहले 2017 में भारत 42वें स्थान पर था। 0 से लेकर 10 अंक के पैमाने पर भारत को साल 2019 के लिए 6.90 अंक दिए गए, जबकि 2018 में इसे 7.23 अंक मिले थे। यानी हाल के वर्षों में लोकतंत्र के मामले में भारत लगातार फिसलता जा रहा है।
ये रिपोर्टें मोदी सरकार के लिए झटका हैं। सिर्फ़ इसलिए नहीं कि किसी भी रिपोर्ट का नकारात्मक आना सरकार के लिए ख़राब है, यह इसलिए भी कि जिस लोकतंत्र के मज़बूत होने का हम दम भरते रहे हैं उसमें गिरावट आना बड़ी बात है। यह इसलिए भी है कि 2014 में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के बीच सत्ता में आई मोदी सरकार से भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ कार्रवाई और इसमें सुधार होने की काफ़ी उम्मीदें थीं। लेकिन इन रिपोर्टों से इन उम्मीदों को गहरा धक्का लगा है।
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