लोकसभा अध्यक्ष चाहे जिस भी दल का सदस्य चुना जाए, वैसे आमतौर पर वह सत्तारूढ़ दल या उसके किसी सहयोगी दल का ही चुना जाता है, लेकिन चुने जाने के बाद उसकी दलीय संबद्धता औपचारिक तौर पर खत्म हो जाती है। वह दलीय गतिविधियों से अपने को दूर कर लेता है।

देखने में यही आता रहा है कि हर लोकसभा अध्यक्ष की निष्पक्षता का पलड़ा सत्तारूढ़ दल और सरकार की ओर ही झुका रहता है।
उससे अपेक्षा की जाती है कि वह सदन की कार्यवाही का संचालन दलीय हितों और भावनाओं से ऊपर उठकर सदन के नियमों और सुस्थापित मान्य परंपराओं के मुताबिक करेगा और विपक्षी सदस्यों के अधिकारों को भी पूरा संरक्षण देगा।
इस मान्यता और अपेक्षा के बावजूद देखने में यही आता रहा है कि हर लोकसभा अध्यक्ष की निष्पक्षता का पलड़ा सत्तारूढ़ दल और सरकार की ओर ही झुका रहता है। कोई भी लोकसभा अध्यक्ष इसका अपवाद नहीं रहा और मौजूदा लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला तो कतई नहीं।