सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कहा कि वह चाहता है कि राज्य स्तर पर हिंदुओं को अल्पसंख्यक का दर्जा देने के कुछ 'ठोस उदाहरण' दिए जाएँ। अदालत छह धार्मिक समुदायों के लिए राष्ट्रीय अल्पसंख्यक दर्जे को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई कर रही है। याचिका पर अब आगे की सुनवाई इस पर होगी कि जनसंख्या के अनुसार राज्य-वार अल्पसंख्यक का दर्जा हो या नहीं।
सुप्रीम कोर्ट उस जनहित याचिका पर सुनवाई कर रहा है जिसे एक हिंदू आध्यात्मिक नेता देवकीनंदन ठाकुर ने दायर की है। याचिका में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1992 की धारा 2 (सी) को चुनौती दी गई है। उस धारा में मुसलिम, ईसाई, बौद्ध, पारसी, सिख और जैन को राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यक घोषित किया गया है। याचिका में अल्पसंख्यकों की जिलेवार पहचान और राज्यवार स्थिति की मांग की गई है।
याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया, 'हम हिंदुओं को अल्पसंख्यक का दर्जा देने की बात कर रहे हैं। ऐसा माना जाता है कि हिंदू अल्पसंख्यक नहीं हो सकते।'
इस तर्क पर न्यायमूर्ति यूयू ललित ने जवाब दिया, 'काश कोई ठोस मामला होता कि मिजोरम या कश्मीर में हिंदुओं को अल्पसंख्यक दर्जा से वंचित किया जाता है, तो हम इस पर ग़ौर करते।' एनडीटीवी की रिपोर्ट के अनुसार अदालत ने यह भी कहा कि अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर सभी विवादों की राज्यवार जाँच नहीं की जाएगी।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुने जा रहे इसी तरह के एक मामले में इस साल की शुरुआत में केंद्र सरकार ने अलग-अलग रुख अपनाया था। अदालत ने जोर देकर कहा था कि राज्य स्तर पर हिंदुओं सहित अल्पसंख्यकों की पहचान के मुद्दे पर एक प्रस्ताव लाने की ज़रूरत है और कहा था कि 'अलग-अलग स्टैंड लेने से इसमें मदद नहीं मिलेगी'।
केंद्र ने हाल ही में अदालत से कहा था कि अल्पसंख्यकों को अधिसूचित करने की शक्ति केंद्र सरकार के पास है और इस संबंध में कोई भी निर्णय राज्यों और अन्य हितधारकों के साथ चर्चा के बाद लिया जाएगा।
इससे पहले केंद्र सरकार ने कहा था कि राज्य भी अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा दे सकते हैं। इसने यह बात मार्च महीने में हलफनामा देकर तब कही थी जब राज्य स्तर पर अल्पसंख्यकों की पहचान करने और उन राज्यों में हिंदुओं को अल्पसंख्यक का दर्जा देने के सवाल पर स्टैंड नहीं लेने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र की खिंचाई की थी। 31 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट ने सरकार पर 7,500 रुपये का जुर्माना लगाया था और उसे जवाब देने के लिए 'एक और मौका' दिया था।
खिंचाई किए जाने के बाद केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय ने कहा था कि राज्य सरकारें राज्य के भीतर एक धार्मिक या भाषाई समुदाय को अल्पसंख्यक समुदाय घोषित कर सकती हैं। इसने यह भी कहा था कि यह समवर्ती सूची में है जिसे केंद्र या राज्य दोनों तय कर सकते हैं। सरकार की यह प्रतिक्रिया उस मामले में आई है जिसमें 2020 में ही इसको लेकर एक याचिका दाखिल की गई थी। वकील अश्विनी उपाध्याय की याचिका में कहा गया था कि 2011 की जनगणना के अनुसार, लक्षद्वीप, मिज़ोरम, नागालैंड, मेघालय, जम्मू-कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और पंजाब में हिंदू अल्पसंख्यक हैं और उन्हें अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाना चाहिए।
राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1992 की धारा 2 (सी) में हिंदुओं का ज़िक्र नहीं था इसलिए इस धारा को रद्द करने की मांग भी की गई थी। अश्विनी उपाध्याय ने सबसे पहले 2017 में अल्पसंख्यकों की पहचान के लिए उचित दिशा-निर्देशों के लिए शीर्ष अदालत का रुख किया था। उसमें उन्होंने उन राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में हिंदुओं को अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में घोषित करने की मांग की थी जहाँ उनकी संख्या बहुसंख्यक समुदाय से कम थी।
अल्पसंख्यक दर्जा से क्या फायदा?
भाषा और धर्म के आधार पर अल्पसंख्यक का दर्जा पाए लोगों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण, बैंक से सस्ता कर्ज और अल्पसंख्यक दर्जा प्राप्त शिक्षण संस्थानों में दाखिले के समय प्राथमिकता मिलती है। अल्पसंख्यक समाज के लिए इस तरह के संस्थान खोलने में सरकार अलग से सहायता भी करती है। इसके अलावा अल्पसंख्यक समुदाय से आने वाले लोगों को छात्रवृत्ति मिलती है। अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय के मुताबिक 2014 के बाद से पारसी, जैन, बौद्ध, सिख, ईसाई और मुसलिम अल्पसंख्यक समुदाय से आने वाले करीब 5 करोड़ विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति दी गई।
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