केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट कॉलिजियम द्वारा भेजे गए 10 जजों के नामों की सिफारिशों से जुड़ी फाइलों को लौटा दिया है। इन 10 जजों के नामों में सीनियर एडवोकेट सौरभ किरपाल का भी नाम शामिल है। सौरभ किरपाल भारत के पूर्व चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया बीएन किरपाल के बेटे हैं।
सूत्रों के मुताबिक, केंद्र सरकार ने इन 10 नामों को लेकर कड़ा विरोध दर्ज कराया है और इनसे जुड़ी फाइलों को 25 नवंबर को ही वापस भेज दिया था।
बताना होगा कि कॉलिजियम को लेकर केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच बीते कुछ दिनों में एक बार फिर विवाद शुरू हुआ है।
केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू ने कुछ दिन पहले कहा था कि कॉलिजियम सिस्टम भारतीय संविधान के लिए एलियन की तरह है। उन्होंने कहा था कि अदालत ने खुद ही फैसला करके कॉलिजियम सिस्टम बना लिया जबकि 1991 से पहले सभी न्यायाधीशों की नियुक्ति सरकार के द्वारा ही की जाती थी।
एनडीटीवी को दिए एक इंटरव्यू में कुछ दिन पहले सौरभ किरपाल ने कहा था कि उनके सेक्सुअल ओरियंटेशन की वजह से ऐसा हो सकता है कि उनकी पदोन्नति को रोक दिया गया हो। सौरभ किरपाल की पदोन्नति साल 2017 से ही रुकी हुई है।
सोमवार को ही सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा था कि उसे कॉलिजियम सिस्टम को मानना ही पड़ेगा। अदालत ने केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू के बयानों को खारिज कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सरकार जजों की नियुक्ति में जानबूझकर देरी नहीं करे। जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस ए. एस. ओका की बेंच ने यह टिप्पणियां की थी।
क्या है कॉलिजियम?
कॉलिजियम शीर्ष न्यायपालिका में जजों को नियुक्त करने और प्रमोशन करने की सिफ़ारिश करने वाली सुप्रीम कोर्ट के पांच वरिष्ठ जजों की एक समिति है। यह समिति जजों की नियुक्तियों और उनके प्रमोशन की सिफ़ारिशों को केंद्र सरकार को भेजती है और सरकार इसे राष्ट्रपति को भेजती है। राष्ट्रपति के कार्यालय से अनुमति मिलने का नोटिफ़िकेशन जारी होने के बाद ही जजों की नियुक्ति होती है।
एनजेएसी
मोदी सरकार ने पहले कार्यकाल में कॉलिजियम को नेशनल जुडिशल अपॉइंटमेंट कमीशन यानी एनजेएसी से रिप्लेस करने की कोशिश की थी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने 2015 में इस प्रस्ताव को 4-1 से ठुकरा दिया था। तब कहा गया था कि एनजेएसी के जरिए सरकार सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में ख़ुद नियुक्तियां करना चाहती थी और इसके बाद सरकार और न्यायपालिका में टकराव बढ़ गया था।
सरकारें आम तौर पर कॉलिजियम के फैसलों को मानती रही हैं लेकिन जस्टिस जोसफ और जस्टिस अकील कुरैशी के मामलों के बाद यह बात सामने आई थी कि सरकार और न्यायपालिका के रिश्ते ठीक नहीं हैं।
जस्टिस अकील कुरैशी का मामला
राजस्थान हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस अकील कुरैशी को मध्य प्रदेश के चीफ जस्टिस के रूप में नियुक्त किए जाने की कॉलिजियम के द्वारा साल 2019 में की गई सिफारिश को भी केंद्र सरकार ने नहीं माना था और उनके नाम को वापस लौटा दिया था। तब यह बात सामने आई थी कि जस्टिस कुरैशी के द्वारा लिए गए कुछ फैसलों से केंद्र सरकार नाराज है।
जस्टिस जोसेफ का मामला
साल 2016 में उत्तराखंड हाई कोर्ट के जस्टिस जोसेफ का मामला भी काफी चर्चा में रहा था। 2016 में उत्तराखंड की तत्कालीन हरीश रावत सरकार में बड़ी बगावत हुई थी और उसके बाद केंद्र सरकार ने वहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया था। लेकिन जस्टिस जोसेफ के फैसले के बाद उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन रद्द हो गया था और यह माना गया था कि इस वजह से बीजेपी राज्य में अपनी सरकार नहीं बना सकी थी। उस दौरान कानूनी मामलों से जुड़ी संस्थाओं और विपक्ष ने आरोप लगाया था कि सरकार ने जस्टिस जोसेफ का उत्पीड़न करने की कोशिश की।
जस्टिस जोसफ को सुप्रीम कोर्ट का जज बनाने की सिफ़ारिश को लेकर भी केंद्र और न्यायपालिका के बीच टकराव हुआ था। जस्टिस जोसेफ को सुप्रीम कोर्ट का जज बनाने की सिफारिश पर केंद्र ने दोबारा विचार करने के लिए कहा था। हालांकि बाद में केंद्र सरकार ने कॉलिजियम की सिफ़ारिश को स्वीकार कर लिया था।
बीते दिनों यह सवाल उठा है कि केंद्र सरकार कॉलिजियम सिस्टम को लेकर बार-बार सवाल खड़े क्यों कर रही है। यह आरोप लगता है कि केंद्र सरकार कॉलिजियम सिस्टम को खत्म कर ऐसे लोगों को हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जज बनाना चाहती है, जो उसके मनमुताबिक फैसले दें।
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