अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट में हर रोज़ की सुनवाई चल रही है लेकिन इस बीच बातचीत से इस मुद्दे के हल की कोशिश दोबारा शुरू हो गई है। इस मामले में हिंदू और मुसलिम के दो मुख्य पक्षों ने मध्यस्थता की बातचीत को दोबारा शुरू करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के मध्यस्थता पैनल को पत्र लिखे हैं। वे चाहते हैं कि 2.77 एकड़ ज़मीन के मालिकाना हक के विवाद को आपसी बातचीत से सुलझाया जाए। लेकिन सवाल है कि क्या मध्यस्थता एक बार फिर से शुरू हो सकती है?
मध्यस्थता की कोशिश विफल रहने के बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने हर रोज़ की सुनवाई शुरू की है। इस मामले में रामलला विराजमान की ओर से दलीलें रखी जा चुकी हैं। 2 सितंबर से सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड की ओर से दलीलें रखी जा रही हैं। माना जा रहा है कि सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड क़रीब तीन हफ़्ते तक सुप्रीम कोर्ट में दलीलें रखेगा। इनके वकील राजीव धवन ने पहले ही कहा था कि वह अपनी दलीलों के लिए 20 दिन का समय लेंगे। इनकी दलीलें रखे जाने के बाद क़रीब एक महीने में फ़ैसला आने की उम्मीद है। ऐसे में सवाल यह भी है कि क्या कोर्ट का फ़ैसला आने से पहले दोनों पक्ष आपसी बातचीत से किसी नतीजे पर पहुँच पाएँगे?
‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, मध्यस्थता को दोबारा शुरू करने के लिए पत्र लिखे गए हैं। अख़बार के अनुसार, जिन दो पक्षों ने पत्र लिखे हैं वे हैं- सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड और निर्वाणी अखाड़ा। 1961 में विवादित ढाँचे पर दावा करते हुए केस दर्ज करने वाले सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित मध्यस्थता कमेटी को पत्र लिखा है। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज एफ़ एम आई कलीफुल्ला के नेतृत्व में बने इस मध्यस्थता पैनल में वरिष्ठ वकील श्रीराम पाँचू और आध्यात्मिक नेता श्री श्री रविशंकर हैं। बता दें कि मध्यस्थता पैनल तब विफल रहा था जब जमीअत उलेमा ए हिंद के मौलाना अरशद मदनी गुट और विश्व हिंदू परिषद समर्थित राम जन्मभूमि न्यास अपने-अपने रुख से पीछे हटने को तैयार नहीं थे।
सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड की तरह ही निर्वाणी अखाड़ा ने भी पत्र लिखकर मध्यस्थता को बहाल करने की वकालत की है। निर्वाणी अखाड़ा अयोध्या में तीन रामानंदी अखाड़ों में से एक है। हनुमान गढ़ी मंदिर निर्वाणी अखाड़ा के नियंत्रण में ही है। एक और रामानंदी अखाड़ा निर्मोही अखाड़े ने भी तब ज़ोरदार तरीक़े से बातचीत से विवाद के समाधान का समर्थन किया था जब पहली बार मध्यस्थता पैनल के गठन की बात आई थी।
क्या बनी थी सहमति?
अख़बार की रिपोर्ट में कहा गया है कि राम मंदिर और बाबरी मसजिद विवाद में मध्यस्थता विफल होने से पहले जब बातचीत अंतिम चरण में थी तब जमीअत उलेमा ए हिंद के अरशद मदनी गुट और न्यास को छोड़कर, दोनों पक्षों के बाक़ी लोग क़रीब-क़रीब एक आम सहमति पर पहुँच गए थे। उनमें आपसी सहमति बनी थी कि- विवादित स्थल पर दावा मुसलमान छोड़ देंगे जिसपर हिंदू राम मंदिर का निर्माण करना चाहते हैं; मुसलमानों को एक वैकल्पिक स्थल और मसजिद के निर्माण के लिए धन की पेशकश की जाएगी; और पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 का कार्यान्वयन होगा, जो धार्मिक स्थल बनाने में क़ानूनी राह आसान करता।
टाइम्स ऑफ़ इंडिया के अनुसार, जिन पक्षों ने बातचीत को फिर से शुरू करने की माँग की है उनके सूत्रों ने कहा है कि मुख्य न्यायाधीश गोगोई की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट बेंच के लिए मध्यस्थता प्रक्रिया को फिर से शुरू करने की अनुमति देना मुश्किल नहीं होगा। मध्यस्थता पैनल समझौता करने के क़रीब था। मध्यस्थता की कोशिश सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के साथ-साथ चल रही थी।
मध्यस्थता और बातचीत के ज़रिए अयोध्या विवाद सुलझाने की कोशिशें पहले भी कई बार हुई हैं। इलाहाबाद हाई कोर्ट की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने 3 अगस्त, 2010 को सुनवाई के बाद सभी पक्षों के वकीलों को बुला कर यह प्रस्ताव रखा था कि बातचीत के ज़रिए मामले को सुलझाने की कोशिश की जाए। लेकिन हिन्दू पक्ष ने बातचीत से मामला सुलझाने की पेशकश को खारिज कर दिया था।
2.77 एकड़ ज़मीन का विवाद
सुप्रीम कोर्ट उन केसों की सुनवाई कर रहा है जिसमें इलाहाबाद हाई कोर्ट के 30 सितंबर 2010 के फ़ैसले के ख़िलाफ़ 14 अपीलें दायर की गई हैं। हाई कोर्ट ने विवादित 2.77 एकड़ भूमि को सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लला विराजमान के बीच समान रूप से विभाजित करने का आदेश दिया था। लेकिन हाई कोर्ट का यह फ़ैसला कई लोगों को पसंद नहीं आया। यही कारण है कि इस मामले के ख़िलाफ़ कई लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएँ दायर कीं। सुप्रीम कोर्ट ने इन्हीं याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए मई 2011 में हाई कोर्ट के फ़ैसले पर रोक लगा दी थी। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या में विवादित स्थल पर यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया था। इसी मामले में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है।
हालाँकि मध्यस्थता की इस पहल से उम्मीदें जागी हैं, लेकिन यह कितना सफल हो पाएगा, कहना मुश्किल है। मुश्किल इसलिए भी है क्योंकि अयोध्य विवाद मामले में तीनों मुख्य पक्षकारों ने पत्र नहीं लिखा है और मध्यस्थता की कोशिश पहले भी विफल हो चुकी है।
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