हिमाचल प्रदेश की कांग्रेस पार्टी की सुखविंदर सिंह ‘सुक्खू’ सरकार ने राज्य में ओल्ड पेंशन स्कीम को लागू कर दिया है। इससे राज्य के ढाई लाख
से ज्यादा कर्मचारियों को फायदा होगा। चुनाव प्रचार के दौरान राज्य में OPS लागू करने का वादा प्रियंका गांधी जैसे बड़े नेताओं
द्वारा किया गया था। राज्य में कांग्रेस की जीत के प्रमुख कारणों में OPS को बहुत अहम माना जा रहा है। इसके बाद
उम्मीद की जा रही थी सरकार अपने शुरुआती फैसलों में ही इसको लागू करेगी।
हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक अहम केस पर फैसला देते हुए। केंद्रीय
सशस्त्र पुलिस बलों (CAPFs)
के सभी कर्मचारियों
को पुरानी पेंशन योजना (OPS) का लाभ पाने का
हकदार बताया है। कोर्ट ने अपने इस फैसले में 22 दिसंबर,
2003 को जारी अधिसूचना को आधार बनाया है।
न्यायमूर्ति सुरेश कुमार कैत और नीना बंसल कृष्ण की पीठ ने CAPF के
82 कर्मियों द्वारा दायर याचिका पर फैसला देते हुए कहा कि पुरानी पेंशन योजना केवल
याचिकाकर्ताओं के मामले में ही नहीं बल्कि CAPF के सभी कर्मियों के मामले में लागू होगी, अगले आठ हफ्ते
में इसको लेकर आदेश जारी कर दिए जाएंगे।
ओल्ड पेंशन स्कीम को लागू करने वाला हिमाचल सबसे नया राज्य है। इससे पहले राजस्थान छत्तीसगढ़ भी अपने यहां इसको लागू कर चुके हैं।
अपने आदेश में कोर्ट ने कहा कि
हमें पता है 22 दिसंबर, 2003 की अधिसूचना और 17 फरवरी, 2020 के कार्यालय ज्ञापन साफ-साफ कहते हैं कि
जिस वक्त NPS को लागू करने का
नीतिगत निर्णय लिया गया था, तब देश के
सशस्त्र बलों को इसके दायरे से बाहर रखा गया था।
कोर्ट ने सभी विवादित कार्यालय ज्ञापनों, सिगनलों तथा आदेशों, जो याचिकाकर्ताओं तथा सशस्त्र बलों में
समान पदों पर मौजूद कर्मियों को पुरानी पेंशन योजना (OPS) के लाभों से वंचित करते हैं, उनको रद्द किया जाता है।
कोर्ट में यह याचिका विभिन्न केंद्रीय बलों जिसमें से केंद्रीय
रिज़र्व पुलिस बल (CRPF),
सशस्त्र सीमा बल
(SSB), सीमा सुरक्षा बल (BSF) और केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (CISF), भारत तिब्बत सीमा पुलिस (ITBP) प्रमुख रूप से शामिल थे। इन्होंने अपनी
अर्ज़ियों के ज़रिये पुरानी पेंशन योजना (OPS) का लाभ देने से इंकार करने वाले आदेशों को रद्द करने की
मांग की थी।
राजनीतिक दल चुनाव जीतने के लिए लोक लुभावन वादों का सहारा लेकर चुनाव जीत रहे
हैं। दूसरी तरफ उनके वादों का असर सरकार के खजाने पर पड़ रहा है। इस समय देश की
ज्यादातर राज्य सरकारें भयंकर कर्ज के बोझ तले दबी हुईं हैं। उसके बाद भी सरकारें आर्थिक
हालात सुधारने की बजाए चुनावी नफा-नुकसान को ध्यान में रखकर नीतियां बनाने में लगे
हैं। ये हालात कहां जाकर रुकेंगे इसका किसी को भी भान नहीं है।
सरकारों के इसी रवैये को लेकर योजना आयोग के पूर्व उपाध्य़क्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने बीते दिनों ओल्ड पेंशन स्कीम को मसले पर सवाल उठाते हुए कहा कि आगे
आने वाले समय में इससे बहुत नुकसान होगा। अगर इसको लागू किया जाता है, तो यह
अर्थव्यवस्था को दिवालिया कर देगा। इसको लागू करने से देश के खजाने पर अनावश्यक बोझ
बढेगा। जोकि दिवालियेपन की रेसिपी है। सिस्टम में बैठे लोगों को राजनीतिक दलों या
फिर सत्ता में बैठे दलों को इन नीतियों को अपनाने से रोकना चाहिए।
गैर कांग्रेस शासित राज्यों ने हाल के दिनों में ओल्ड पेंशन स्कीम को बड़ा
मुद्दा बनाया है। जिसे वह वोट बैंक के तौर पर देख रही हैं। ओल्ड पेंशन स्कीम को
सबसे ज्यादा हवा कांग्रेस पार्टी की तरफ से दी जा रही है। हाल ही में हुए हिमाचल
प्रदेश विधानसभा चुनावों में सरकार में आते ही ओल्ड पेंशन को लोगू करने का वादा
किया था। इसके पहले राजस्थान और छत्तीसगढ़ जहां कांग्रेस की सरकार हैं, इसको लागू
कर चुके हैं। केंद्र सरकार की आपत्ति के बाद भी छत्तीसगढ के मुख्यमंत्री ने तो यहां
तक कह दिया है कि ओल्ड पेंशन स्कीम लागू करने में जो खर्च आएगा उसे हम अपने खर्चे से
पूरा करेंगे, केंद्र सरकार पैसा दे या फिर न दे।
ओल्ड पेंशन स्कीम को खत्म करने की शुरुआत 1991 में हुए आर्थिक सुधारों के बाद
ही शुरु हो गई थी, जब तमाम विदेशी संस्थानों ने केंद्रीय सरकार को सुधारों को लागू
करने के लिए अपने खर्चे घटाने के लिए कहा था। 2004 में भाजपा की अटल बिहारी बाजपेई
सरकार ने इसको पूरी तरह से खत्म कर दिया था। रही-सही कसर कांग्रेस-वाम
मोर्चे की मनमोहन सिंह की सरकार ने पूरी कर दी, जिसने इसे अंतिम परिणति तक पहुंचाया।
हाल के दिनों में आम आदमी पार्टी फ्री-बिज की राजनीति की सबसे बडे पैरोकार के
तौर पर उभर कर सामने आई है। जिसने दिल्ली जैसे अपेक्षाकृत छोटे राज्य के लिए फ्री बिजली,पानी
स्वास्थय और शिक्षा जैसे आम आदमी को प्रभावित करने वाले अहम मसलों पर लोगों को राहत
दी है। दूसरे बड़े राज्यों में इस तरह की स्कीमों का असर वहां के खजाने पर ज्यादा
असर डालता है। ज्यादातर राज्य सरकारें भंयकर कर्ज में डूबी हुई है। कुछ तो अपने
कर्मचारियों को नियमित रूप से तनख्वाह तक नहीं दे पा रहे रही हैं।
जो राज्य भयंकर कर्ज में डूबे हुए हुए हैं उनमें पंजाब, राजस्थान, केरल, पश्चिम
बंगाल, बिहार, आंध्र प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और हरियाणा प्रमुख हैं,
जिन पर सबसे ज्यादा कर्ज का बोझ है। पूरे देश की राज्य सरकारें जितना खर्च करती हैं, उसका
आधा हिस्सा ये दस राज्य मिलकर खर्च करते हैं। आंध्र प्रदेश, बिहार, राजस्थान औऱ
पंजाब ने अपने कर्ज और वित्तीय घाटे के लक्ष्य को 2020-21 में ही पार कर लिया। केरल, झारखंड, और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों ने तय सीमा से भी ज्यादा कर्ज लिया, मध्य
प्रदेश का वित्तीय घाटा तय सीमा से ज्यादा रहा।
ऐसे हालातों में मोंटेक सिंह अहलूवालिया का यह कहना कि यह देश की आर्थिक स्थिति को खराब करेगा वाजिब जान पड़ता है। सरकारों की कमाई का बड़ा हिस्सा हिस्सा वेतन और पेंशन के मसलों पर खर्च होता है, जिससे वे विकास के कामों पर कम खर्च कर पाती हैं।
मोंटेक सिंह अहलूवालिया का यह कहना कि इस तरह की स्कीमों से देश की आर्थिक
स्थिति पर असर पड़ेगा, अर्थव्यवस्था का लिहाज से ठीक हो सकता है। लेकिन यह कल्याणकारी
राज्य की अवधारणा के विपरीत है। ओल्ड पेंशन स्कीम को जिन परिस्थितियों में बंद किया
गया था उस समय देश के आर्थिक हालात दूसरे थे। इस तरह की स्कीमों को सरकारी खर्च घटाने
के तौर पर देखा जाता रहा है, जिसको लेकर बाहरी कारक भी जिम्मेदार होते हैं।
1990 के दौर में देश एक बार आर्थिक संकट का सामना कर चुका है, जिसके पीछे के
कारणों में इस तरह खर्चों का भी योगदान था। ऐसे में अर्थशास्त्रियों का मानना है
कि भारत को दोबारा से उस स्थिति का सामना न करना पड़े इसके लिए जरूरी है कि वह
पेंशन, सब्सिड़ि जैसे मदों में होने वाले खर्चों को कम करे। पेट्रोलियम, खाद जैसे
मदों में सब्सिडि पहले ही कम की जा चुकी है, या फिर खत्म कर दी गई है। सरकारी
स्वास्थ शिक्षा सेवाओं की हालात भी किसी से छुपी नहीं है। ऐसे में सरकार द्वारा हर
कल्याणकारी योजना से हाथ पीछे खींचना क्या जायज है।
देश के आर्थिक हालात पहले से बेहतर हैं, ऐसे मे सरकारों द्वारा अपने नागरिकों
को दी जाने वाली कुछ सुविधाओं से भी हाथ पीछे खींचना कितना सही है। सरकारें केवल
कर वसूली के लिए भर तो नहीं हैं।
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