कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने एक बार फिर हिंदुत्व के आइकॉन विनायक दामोदर सावरकर पर हमला कर पुरानी बहस को जिंदा कर दिया है। बहस इस बात की कि सावरकर क्या वाकई वीर थे या फिर माफीवीर थे।
राहुल गांधी ने सावरकर के द्वारा जेल में रहते हुए अंग्रेजों को लिखी गई चिट्ठी को पढ़ा। राहुल ने कहा कि सावरकर ने चिट्ठी में लिखा था- सर मैं आपका नौकर बने रहना चाहता हूं।
राहुल गांधी के द्वारा इस चिट्ठी को पढ़े जाने के बाद यह जानने की उत्सुकता सभी में है कि आखिर सावरकर ने अपनी चिट्ठियों में क्या लिखा था। इन्हें माफीनामा या दया याचिकाएं भी कहा जाता है।
सावरकर ने अंग्रेज शासकों की सेवा में 5 माफ़ीनामे पेश किए और 50 साल की कुल सज़ा में से 35 से अधिक साल की छूट पाई। सावरकर 4 जुलाई 1911 से 2 मई 1921 तक सेलुलर जेल में बंद थे। इस दौरान उन्होंने अंग्रेज शासकों की सेवा में पांच माफीनामे या दया याचिकाएं 1911, 1913, 1914, 1918 और 1920 में पेश की थीं।
1913 का माफ़ीनामा इन शब्दों के साथ ख़त्म हुआ -
‘इसलिए, सरकार अगर अपने विविध उपकार और दया दिखाते हुए मुझे रिहा करती है तो मैं और कुछ नहीं हो सकता बल्कि मैं संवैधानिक प्रगति और अंग्रेज सरकार के प्रति वफ़ादारी का, जो कि उस प्रगति के लिए पहली शर्त है, सबसे प्रबल पैरोकार बनूंगा… इसके अलावा, मेरे संवैधानिक रास्ते के पक्ष में मन परिवर्तन से भारत और यूरोप के वे सभी भटके हुए नौजवान जो मुझे अपना पथप्रदर्शक मानते थे वापस आ जाएंगे। सरकार, जिस हैसियत में चाहे मैं उसकी सेवा करने को तैयार हूं, क्योंकि मेरा मत परिवर्तन अंतःकरण से है और मैं आशा करता हूं कि आगे भी मेरा आचरण वैसा ही होगा। मुझे जेल में रखकर कुछ हासिल नहीं होगा बल्कि रिहा करने में उससे कहीं ज़्यादा हासिल होगा। ताक़तवर ही क्षमाशील होने का सामर्थ्य रखते हैं और इसलिए एक बिगड़ा हुआ बेटा सरकार के अभिभावकीय दरवाज़े के सिवाय और कहां लौट सकता है? आशा करता हूं कि मान्यवर इन बिन्दुओं पर कृपा करके विचार करेंगे।’
1920 का माफ़ीनामा भी कुछ कम शर्मसार करने वाला नहीं था। इस का अंत इन शब्दों के साथ हुआ-
‘...मुझे विश्वास है कि सरकार ग़ौर करेगी कि मैं तयशुदा उचित प्रतिबंधों को मानने के लिए तैयार हूं, सरकार द्वारा घोषित वर्तमान और भावी सुधारों से सहमत व प्रतिबद्ध हूं, उत्तर की ओर से तुर्क-अफ़ग़ान कट्टरपंथियों का ख़तरा दोनों देशों के समक्ष समान रूप से उपस्थित है, इन परिस्थितियों ने मुझे ब्रिटिश सरकार का ईमानदार सहयोगी, वफ़ादार और पक्षधर बना दिया है। इसलिये सरकार मुझे रिहा करती है तो मैं व्यक्तिगत रूप से कृतज्ञ रहूंगा। मेरा प्रारंभिक जीवन शानदार संभावनाओं से परिपूर्ण था, लेकिन मैंने अत्यधिक आवेश में आकर सब बर्बाद कर दिया, मेरी ज़िंदगी का यह बेहद ख़ेदजनक और पीड़ादायक दौर रहा है। मेरी रिहाई मेरे लिए नया जन्म होगा। सरकार की यह संवेदनशीलता, दयालुता, मेरे दिल और भावनाओं को गहरायी तक प्रभावित करेगी, मैं निजी तौर पर सदा के लिए आपका हो जाऊंगा, भविष्य में राजनीतिक तौर पर उपयोगी रहूंगा। अक्सर जहां ताक़त नाकामयाब रहती है उदारता कामयाब हो जाती है।’
इन दया याचिकाओं के बाद सावरकर को जेल से रिहाई मिली। कांग्रेस लगातार सावरकर पर हमला बोलते रही है उन्हें माफ़ीवीर बताती रही है। कांग्रेस ने एक बुकलेट ‘वीर सावरकर, कितने वीर’ जारी की थी और इसे लेकर ख़ासा विवाद हुआ था।
ब्रिटिश शासकों का सहयोग
यह भी कहा जाता है कि जिस समय नेताजी सुभाष चंद्र बोस सैन्य संघर्ष के जरिए ब्रिटिश हुकूमत को भारत से उखाड़ फेंकने की रणनीति बुन रहे थे, ठीक उसी समय विनायक दामोदर सावरकर ब्रिटेन को युद्ध में हर तरह की मदद दिए जाने के पक्ष में थे।
1941 में बिहार के भागलपुर में हिन्दू महासभा के 23वें अधिवेशन को संबोधित करते हुए सावरकर ने ब्रिटिश शासकों के साथ सहयोग करने की नीति का एलान किया था। उन्होंने कहा था, ''देश भर के हिंदू संगठनवादियों (हिन्दू महासभाइयों) को दूसरा सबसे महत्वपूर्ण और अति आवश्यक काम यह करना है कि हिन्दुओं को हथियारबंद करने की योजना में अपनी पूरी ऊर्जा और कार्रवाइयों को लगा देना है। जो लड़ाई हमारी देश की सीमाओ तक आ पहुंची है वह एक ख़तरा भी है और एक मौका भी।’’
इसके आगे सावरकर ने कहा था, ''सैन्यीकरण आंदोलन को तेज किया जाए और हर गांव-शहर में हिन्दू महासभा की शाखाएं हिन्दुओं को थल सेना, वायु सेना और नौ सेना में और सैन्य सामान बनाने वाली फैक्ट्रियों में भर्ती होने की प्रेरणा के काम में सक्रियता से जुड़ें।’’
1940 के मदुरै अधिवेशन में सावरकर ने अपने भाषण में बताया था कि पिछले एक साल में हिन्दू महासभा की कोशिशों से लगभग एक लाख हिन्दुओं को अंग्रेजो की सशस्त्र सेनाओं में भर्ती कराने में वे सफल हुए हैं। जब आज़ाद हिन्द फ़ौज जापान की मदद से अंग्रेजी फ़ौज को हराते हुए पूर्वोत्तर में दाखिल हुई तो उसे रोकने के लिए अंग्रेजों ने अपनी उसी सैन्य टुकड़ी को आगे किया था, जिसके गठन में सावरकर ने अहम भूमिका निभाई थी।
लगभग उसी दौरान यानी 1941-42 में सुभाष बाबू के बंगाल में सावरकर की हिन्दू महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ मिल कर सरकार बनाई थी।
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