क्या अब रेलवे के निजीकरण की तैयारी शुरू हो गई है? एक ऐसी रिपोर्ट है कि सरकार कुछ रूट पर ट्रेन संचालन के लिए निजी कम्पनियों से बोलियाँ मँगवा सकती है। रेलवे बोर्ड के एक पत्र के हवाले से एक मीडिया रिपोर्ट में कहा गया है कि सरकार अगले 100 दिनों में कम भीड़भाड़ वाले और टूरिज़्म की दृष्टि से महत्वपूर्ण रूटों के लिए योजना बना रही है। इससे पहले भी कई बार रेलवे के निजीकरण की कोशिश की गई थी। मोदी सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में भी ऐसा ही प्रयास किया था और एक समिति गठित की थी। लेकिन समिति की रिपोर्टों पर काफ़ी विवाद हुआ और तब यह लागू नहीं हो पाया था। लेकिन मोदी सरकार अब पिछली बार के मुक़ाबले और अधिक बहुमत के साथ सरकार में आयी है। ऐसे में अब यह सवाल उठने लगे हैं कि क्या वह इस बार रेलवे का निजीकरण कर पाएगी? क्या ट्रेन संचालन के लिए निजी कंपनियों से बोलियाँ मँगाना उसकी एक शुरुआत भर है?
हालाँकि सरकार यह काम रेलवे में सफ़र करने वाले यात्रियों को बेहतर सुविधा उपलब्ध कराने के नाम पर कर रही है। लेकिन सवाल है कि क्या निजीकरण करने के बाद सुविधाएँ अपने आप बेहतर हो जाएँगी और निजीकरण से जो दूसरी समस्याएँ आएँगी उनका समाधान कैसे होगा?
रेलवे के निजीकरण पर एक बार फिर बहस तब शुरू हुई जब ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने इस पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की। इसकी रिपोर्ट के मुताबिक़ शुरुआत में रेलवे ट्रेन के संचालन की ज़िम्मेदारी आईआरसीटीसी को सौंप सकता है और फिर वह कुछ महत्वपूर्ण स्थानों पर पैसेंजर ट्रेन की सुविधा उपलब्ध कराएगी। इसके मुताबिक़ ट्रेन टिकट से लेकर ट्रेन के भीतर मुहैया कराई जाने वाली सभी सेवाओं की ज़िम्मेदारी आईआरसीटीसी की होगी। हालाँकि आईआरसीटीसी को इसके लिए एक तय रक़म सरकार को चुकानी पड़ेगी। अगर सरकार की यह योजना पूरी तरह से सफल रहती है तो फिर सरकार इसको बड़े स्तर पर शुरू करेगी।
क्या है रिपोर्ट में?
अख़बार की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारतीय रेल बोर्ड के अध्यक्ष वी.के. यादव द्वारा बोर्ड के सदस्यों और उच्च अधिकारियों को भेजे गए पत्र में लिखा है कि 'इसके लिए निजी कंपनियों को बोली लगाने का मौक़ा दिया जाएगा। इसके ज़रिए इस बात की जानकारी मिलेगी कि कौन-सी कंपनी महत्वपूर्ण शहरों में रात-दिन चलने वाली ट्रेन का संचालन अधिकार हासिल करने के लिए आगे आ सकती है।' हालाँकि रेलवे निजी कंपनियों से संपर्क करने से पहले रेलवे ट्रेड यूनियनों से संपर्क करेगा और इस पर उनकी राय जानेगा।रिपोर्ट में इसका भी ज़िक्र है कि रेलवे निजी कंपनियों द्वारा ट्रेन संचालन के साथ-साथ टिकट पर मिलने वाली सब्सिडी को छोड़ने के लिए भी अभियान चलाएगा। यह अभियान उज्ज्वला योजना की तर्ज पर चलाया जाएगा।
क्या बाजार में मुनाफ़े की गारंटी है?
पहले भी रेलवे के सुधार के लिए बिबेक देबरॉय समिति बनी थी जिसे भारतीय रेलवे के लिए संसाधन जुटाने और रेलवे बोर्ड के पुनर्गठन के तरीक़ों का सुझाव देने का काम सौंपा गया था। इसमें भी निजी और सार्वजनिक भागीदारी यानी पीपीपी मॉडल अपनाने पर ज़ोर दिया गया था। तब इसके विरोध में तर्क दिया गया था कि बाज़ार की अनिश्चितता की वजह से मुनाफ़े की कोई गारंटी नहीं होती है। इस ‘मुनाफ़े की गारंटी’ की आपूर्ति किराया बढ़ाकर यानी यात्रियों की जेब काटकर होगी या फिर सरकार की तिज़ोरी से यानी टैक्स बढ़ाकर की जाएगी।
पिछली मोदी सरकार में भी हुए थे प्रयास
रेलवे के निजीकरण का मामला जब तब उठता रहा है। पिछली मोदी सरकार में भी ऐसा ही एक प्रयास हुआ था। 2015 में भारतीय रेलवे के पुनर्गठन को लेकर एक समिति गठित की गई थी। इस समिति के प्रमुख थे अर्थशास्त्री बिबेक देबरॉय। समिति ने एक विवादास्पद प्रस्ताव दिया था। इसमें भारतीय रेलवे में सुधार के लिए विकल्प तलाशा गया और रेलवे के निजीकरण का अंग्रेज़ी तरीक़ा पसंद किया गया था।
देबरॉय समिति के उस प्रस्ताव में इसका साफ़ ज़िक्र था कि रेलवे को भी ‘गला काट’ प्रतियोगिता में धकेलना होगा। यानी इसमें भी इशारा था कि इंग्लैंड की तरह ही नए निजी ऑपरेटरों को समान रूप से रेल पटरियों को इस्तेमाल करने का मौक़ा मिले।
रेलवे के निजीकरण करने का आरोप लगने पर समिति के सदस्यों ने तर्क दिया था कि वे रेलवे को बेचना नहीं चाहते हैं, बस इस क्षेत्र में प्रतियोगिता लाना चाहते हैं। उनका दावा था कि ऐसा होने से अधिक विकल्प होंगे, क़ीमतें कम होंगी और स्टैंडर्ड ऊँचा होगा।
रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि भारतीय रेलवे को अपने सैकड़ों अस्पताल, स्कूल, पुलिस बल और अन्य अतिरिक्त गतिविधियों से हाथ खींच लेना चाहिए।
रेलवे यूनियन ने किया था विरोध
रेलवे यूनियन ने समिति की उस रिपोर्ट की आलोचना की थी और दावा किया था कि यह रेलवे के निजीकरण की कोशिश थी। हालाँकि मोदी सरकार ने इस बात से साफ़ इनकार किया था। तब प्रधानमंत्री मोदी ने वाराणसी में रेलवे के एक कार्यक्रम में ट्रेड यूनियनों को भरोसा दिलाया था, ‘हम रेलवे का निजीकरण नहीं करने जा रहे हैं। ऐसा करने की ना तो हमारी इच्छा है और ना ही हम इस ओर सोच रहे हैं।’
निजीकरण से किसे फ़ायदा?
निजीकरण के सुझाव के समर्थन में देबरॉय समिति ने ब्रिटिश, जर्मन और जापानी रेलवे के निजीकरण के उदाहरण पेश किए थे। इसमें कोई संदेह नहीं है कि निजीकरण से उन देशों के पूंजीपतियों को बेहद मुनाफ़ा हुआ। कम्युनिस्ट गदर पार्टी ने एक बयान में कहा था कि लेकिन उन देशों के रेल कर्मचारी तथा आम लोगों को उससे बेहद हानि हुई और इसलिए उन्होंने निजीकरण का विरोध किया था, इस तथ्य को समिति छुपा रही है। उस बयान में कहा गया था कि ब्रिटेन में मासिक सीज़न टिकट फ्रांस के मुक़ाबले 10 गुना महँगा है। ऐसे में निजीकरण किसके हित में होगा?
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