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कल तक जो पप्पू था, क्या आज बना वह सिंघम?

पाँच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव के एग्ज़िट पोल के नतीजों से इतना साफ़ है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का कांग्रेसमुक्त भारत का सपना सच होने में अभी बहुत वक़्त लगेगा।

यदि कुछ एग्ज़िट पोल के परिणामों के अनुसार कांग्रेस को राजस्थान में जीत के अलावा मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी बढ़त मिलती है तो भारतीय जनता पार्टी के लिए 2019 में लोकसभा की राह में कांग्रेस ही सबसे बड़ी चुनौती बन कर सामने आएगी।

ये नतीजे कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी को पप्पू कह कर उनका मखौल उड़ाने वाले भारतीय जनता पार्टी के दिग्गज नेताओं, पार्टी की ट्रोल आर्मी, गोदी में बैठे मीडिया और दक्षिणपंथियों के लिए एक बड़ा झटका है। राहुल गाँधी को हर तरह से नेतृत्व के लिए अपरिपक्व और अयोग्य साबित करने की अपनी कोशिश में वे शायद ये भूल गए कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह को यदि किसी ने चुनौती दी है तो वे राहुल गाँधी ही हैं।

तो क्या अब ये कहा जा सकता है कि भारतीय राजनीति के पटल पर राहुल गाँधी को एक कुशल और परिपक्व नेता और नरेंद्र मोदी के विकल्प के रूप में देखा जा सकता है?

यूँ तो इस प्रश्न का उत्तर 2017 में ही मिल गया था जब उन्हें पार्टी का अध्यक्ष चुना गया। अब तक उनकी छवि एक ऐसे गुस्सैल युवा नेता, जिसने मनमोहन सिंह की सरकार द्वारा लाए जाने वाले एक अध्यादेश की प्रति फाड़ दी थी, से एक ज़िम्मेदार नेता के रूप में बदल चुकी थी। राजनैतिक परिदृश्य से बीच-बीच में ग़ायब हो जाने से लोगों के मन में यह आशंका घर कर गई थी कि शायद राहुल गाँधी को राजनीति में ज़बरदस्ती धकेला जा रहा है और उनकी इस क्षेत्र में ज़रा भी रुचि नहीं है। उनके ग़ायब होने का दौर अब ख़़त्म हो चुका था और ग़नीमत थी कि जनता के ज़हन में उनकी जगह बराबर बनी रही।

2017 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बाद शायद राहुल गाँधी ही भारतीय राजनीति के सबसे चर्चित व्यक्ति रहे। 2015 में यदि राहुल ने सूट-बूट की सरकार के नारे से नरेंद्र मोदी को घेरा, तो 2017 में जीएसटी को गब्बर सिंह टैक्स कह कर प्रचलित कर दिया।

एक और बात। अभी तक सोशल मीडिया पर सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी का बोलबाला था। 2017 के दौरान राहुल गाँधी के 46 लाख फ़ॉलोवर्स थे जो अब बढ़ कर 79 लाख हो गए हैं।

मोदी के गढ़ में राहुल

इन सबके बीच गुजरात चुनाव में राहुल ने मोदी के गढ़ में उनको अकेले चुनौती दी। साख बचाने के लिए प्रधानमंत्री को गुजरात में 34 चुनावी रैलियाँ संबोधित करनी पड़ीं। साथ में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का भी सहारा लेना पड़ा। गुजरात में सरकार तो एक बार फिर बीजेपी की बन गई लेकिन सीटें 115 से घट कर 99 रह गईं। वहीं कांग्रेस 61 से बढ़ कर 81 पर पहुँच गई। भाजपा को गुजरात में 100 सीटों के नीचे रोकना कोई मामूली बात नहीं थी।

इसके बाद भी राहुल गाँधी पर प्रश्नचिन्ह लगते रहे लेकिन हाशिये पर पड़ी कांग्रेस को वे भारतीय राजनीति के केंद्र में लाने में सफल रहे।

2014 से 2016 तक ऐसा लगता था जैसे राहुल गाँधी में राजनीतिक दाँव-पेच की कमी है और वे राजनीति के प्रति गंभीर नहीं हैं। लेकिन पहले गुजरात और फिर कर्नाटक के चुनावों ने लोगों का राहुल गाँधी के प्रति अपने दृष्टिकोण को बदलने पर मजबूर कर दिया।

2018 में कर्नाटक के विधानसभा चुनाव के दौरान जब उनसे सवाल किया गया कि क्या 2019 में वे प्रधानमंत्री बनेंगे, तो राहुल गाँधी ने बहुत सहजता से जवाब दिया, ‘हाँ क्यों नहीं, अगर कांग्रेस पार्टी बहुमत में आती है तो।’ उनके इस जवाब पर तीखी प्रतिक्रिया हुई और यह कहा गया कि कर्नाटक में हार के डर से राहुल अपने को मोदी के बराबर रखने की कोशिश में हैं।

rahul gandhi versus narendra modi amit shah bjp congress - Satya Hindi
  1. राजनीतिक सूझ-बूझ

कर्नाटक चुनाव परिणाम के बाद जिस तरह कांग्रेस ने जनता दल (सेक्युलर) के कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री पद देकर राज्य में बीजेपी को सत्ता में आने से रोक दिया, वह उनकी राजनीतिक सूझ-बूझ का पहला बड़ा उदाहरण माना जा सकता है।

उसी तरह पाँच राज्यों में यदि सिर्फ़ तीन उत्तरी राज्यों की बात की जाए तो यहाँ कांग्रेस की संभावित जीत को बीजेपी के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह, प्रधानमंत्री मोदी और कट्टर हिंदूवादी नेता तथा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की शिकस्त के रूप में देखा जाना चाहिए। और उनकी इस शिकस्त के पीछे कांग्रेस से ज़्यादा श्रेय राहुल गाँधी को दिया जाना चाहिए क्योंकि वे अकेले ही इन सब नेताओं से मुक़ाबला कर रहे थे।

आक्रामकता

मध्य प्रदेश के मंदिरों में जा कर पूजा-अर्चना करके और गोशाला स्थापित करने और किसानों के क़र्ज़ माफ़ करने के राहुल के वादों को भले ही आलोचना झेलनी पड़ी हो लेकिन वहाँ के चुनावी अजेंडे को निर्धारित करने में और धार देने में इनकी अहम भूमिका रही। इनके साथ रफ़ाल सौदे और नोटबंदी जैसे मुद्दों को लेकर राहुल गाँधी ने प्रधानमंत्री के ऊपर अपना आक्रामक रुख़ बनाए रखा।

मंदिर पॉलिटिक्स

गुजरात के चुनाव प्रचार के दौरान भी राहुल मंदिरों में जाते थे। उनकी इस रणनीति से लोगों के मन में जो धारणा थी कि सिर्फ बीजेपी ही मंदिरों और देवी-देवताओं में विश्वास करती है, वह ख़त्म हुई। साथ ही गुजरात की तरह चार राज्यों में राहुल गाँधी ने अपने चुनावी भाषणों में मुसलमानों का कोई ज़िक्र नहीं किया ताकि कांग्रेस पर मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप न लग सके। दूसरी ओर आरएसएस की तुलना मुस्लिम ब्रदरहुड से करके वे मुसलमानों को अपनी ओर आकर्षित करने में भी काफ़ी हद तक सफल रहे।  

अब देखना यह है कि क्या उनके नेतृत्व में वह पैनापन आ पाता है जिससे बीजेपी को 2019 में रोका जा सके। अवसर आने पर यदि अकेले नहीं तो अन्य विपक्षी दलों के साथ केंद्र में मिलीजुली सरकार कैसे बने, यह भी राहुल गाँधी की कठिन परीक्षा होगी।पाँच राज्यों के चुनाव परिणाम आने वाले समय में देश में राजनीति की दिशा तय करेंगे।
  • अतुल चंद्रा टाइम्स ऑफ़ इंडिया, लखनऊ के पूर्व संपादक हैं।
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