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क्या इस्तीफ़ों से ख़ुद को बदल पाएगी कांग्रेस?

क्या इस्तीफ़ों से ख़ुद को बदल पाएगी कांग्रेस? भारतीय राजनीति में यह सवाल आज यक्ष प्रश्न सा हो गया है। यह सही है कि आज़ादी के बाद कांग्रेस आज सबसे बड़े संकट के दौर से गुजर रही है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी पार्टी के कुछ नेताओं पर सवाल उठाते हुए अपने पद से इस्तीफ़ा देने की पेशकश कर चुके हैं। राहुल गाँधी के अलावा कई राज्यों के कांग्रेस अध्यक्ष भी अपना इस्तीफ़ा पार्टी हाईकमान को सौंप चुके हैं। लेकिन क्या इस्तीफ़ों से कांग्रेस सुधर जाएगी या बदल जाएगी?
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आज के दौर में कांग्रेस त्रिशंकु अवस्था में नज़र आती है और उसे नेतृत्व से ज़्यादा विचारधारा पर बात और चिंतन करने की ज़रूरत है। उसे यह सोचने की ज़रूरत है कि क्या समय के हिसाब से उसे अपनी सोच बदलनी होगी? पिछला लोकसभा चुनाव जीतने के बाद नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने जब ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ की बात कही थी तो पार्टी के बड़े-बड़े नेता इसे चुनौती देते हुए नज़र आते थे और कहते थे कि भारत को कांग्रेस मुक्त करना असंभव है?
लेकिन अब जब पार्टी ने फिर से एक बार लोकसभा चुनाव में बड़ी हार देखी तो ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का सवाल जीतने वाली पार्टी में नहीं ख़ुद कांग्रेस के अंदर ही चर्चा का विषय बन गया है।

चुनाव प्रचार के दौरान और हार के बाद भी कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी ने यह बात दोहरायी कि कांग्रेस बदल रही है और उसे बदलना है। लेकिन कांग्रेस कैसे बदल रही है यह नज़र नहीं आता? 

राहुल गाँधी भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस की लड़ाई को विचारधारा की लड़ाई कहते हैं? लेकिन सिर्फ़ मिलजुल कर रहना और सभी धर्मों में भाईचारा बना रहे, इतना कह देने मात्र से तो काम नहीं चलने वाला। 

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राहुल पिछले एक साल में बार-बार क्रोनि कैपिटलिज़्म शब्द का इस्तेमाल करते रहे हैं, आदिवासियों का जल-जंगल-ज़मीन पर हक़, हर ग़रीब को एक न्यूनतम आमदनी की बात भी राहुल ने की लेकिन वह इसे अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं, देश की जनता और बुद्धिजीवियों को समझाने में असफल रहे।
सिर्फ़ न्याय योजना की घोषणा कर देने मात्र से ही क्या कांग्रेस बदल जाएगी? या उसे अपनी उन बुनियादी नीतियों की तरफ़ लौटना होगा जिन्हें आज़ादी के बाद नेहरू और इंदिरा गाँधी ने आगे बढ़ाया था?
नेहरू और इंदिरा के दौर तक इस देश की राजनीति में स्पष्ट रूप से विचारधाराओं का अंतर देखा जा सकता था। कांग्रेस और बीजेपी के बाद वामपंथी और समाजवादी विचारों की तरफ़ झुकावों वाली पार्टियाँ थीं जो तीसरे मोर्चे के नाम से चिन्हित की जाती थीं। लेकिन जब कांग्रेस ने 1991 में भूमंडलीकरण और खुले बाजार की अर्थव्यवस्था को साक्षात किया तो विचारधाराओं का विभाजन धुंधला होता गया। उससे पहले तक बीजेपी अपनी अलग अर्थ नीति और विदेश नीति की बात करती थी और अमरीका की तरफ़ झुकाव दर्शाती थी लेकिन उसके बाद बीजेपी कहने लगी कि कांग्रेस ने हमारी अर्थ नीति और विदेश नीति चुरा ली। 
सोवियत संघ में समाजवादी गढ़ ढहने के बाद देश में भी वामपंथी दलों का दायरा सिकुड़ने लगा और मंडल आयोग के बाद ध्रुवीकरण के रूप में जन्मीं लोहियावादी या जय प्रकाश नारायण और कर्पूरी ठाकुर के विचारों वाली पार्टियाँ परिवारवाद के शिकंजे में फंस कर रह गयीं।
हिंदुत्व और मंडल के ध्रुवीकरण ने कांग्रेस के दायरे को सीमित कर दिया। कांग्रेस को अपने दायरे को विस्तारित करने के लिए अपनी विचारधारा को फिर से परिमार्जित करना होगा। इंदिरा की हत्या से उपजी सहानुभूति लहर वाली जीत के बाद कांग्रेस कभी बहुमत के साथ सत्ता में नहीं रही। नेहरू के निधन के बाद 1969 में जब कांग्रेस पार्टी टूटी तो लोकसभा में इंदिरा गाँधी के साथ मात्र 228 सांसद रह गए थे। लेकिन इंदिरा ने सरकार का और कांग्रेस का झुकाव वामपंथी विचारधारा की तरफ़ बढ़ाया और राजाओं के प्रीवी पर्स बंद करने, बैंकों का राष्ट्रीयकरण, बीमा कारोबार का राष्ट्रीयकरण, कोयला खदानों का अधिग्रहण जैसे फ़ैसले लिए। 
इंदिरा के ‘ग़रीबी हटाओ’ के नारे ने कांग्रेस को ग़रीबों से जोड़ा और पार्टी को बड़ा बहुमत दिया। लेकिन आज कांग्रेस ग़रीबों के बीच लोकप्रिय नहीं रही। मंडल की राजनीति और बहुजन समाज पार्टी कांग्रेस की ज़मीन को साल दर साल खिसकाती रही।
सरकारी आँकड़ों को देखें तो 1971 में ग़रीबी की दर 57 प्रतिशत थी। इंदिरा गाँधी ने ‘ग़रीबी हटाओ’ का नारा देकर कई योजनाएँ शुरू कीं। आज ग़रीबी दर के आंकड़ों में बदलाव आया है लेकिन खुली अर्थ व्यवस्था का जो सबसे बड़ा दोष है वह देश की जनता को बड़े पैमाने पर अपने दायरे में समेट रहा है और वह है आय की विषमता का।
ग़रीब तेज़ी से ग़रीब हो रहा है और देश की अधिकाँश आय गिने-चुने लोगों की तिजोरियों में जा रही है। भूमंडलीकरण के इस दौर में सरकार की उद्योगपरक नीतियों के चलते देश में आय में विषमता की बहुत बड़ी खाई बन रही है और यह तेज़ी से बढ़ती जा रही है।
ऑक्सफ़ैम इंटरनेशनल की नई रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय अरबपतियों की संपत्ति में 2018 में प्रतिदिन 2,200 करोड़ रुपये का इजाफ़ा हुआ है। इस दौरान, देश के शीर्ष एक प्रतिशत अमीरों की संपत्ति में 39 प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि 50 प्रतिशत ग़रीब आबादी की संपत्ति में महज तीन प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। इस रिपोर्ट पर ऑक्सफ़ैम इंटरनेशनल की कार्यकारी निदेशक विनी ब्यानिमा ने कहा भी था कि 'नैतिक रूप से यह क्रूर' है कि भारत में जहाँ ग़रीब दो वक़्त की रोटी और बच्चों की दवाओं के लिए जूझ रहे हैं, वहीं कुछ अमीरों की संपत्ति लगातार बढ़ती जा रही है।
ऑक्सफ़ैम इंटरनेशनल की रिपोर्ट के नजरिये से 2019 लोकसभा चुनाव के परिणाम को देखें तो राजनीति की नयी विचारधारा यहीं से शुरू हो सकती है? वह यह कि राजनीति को ग़रीबों के साथ खड़ा रहना है या चंद उद्योगपतियों के साथ?

निजीकरण चाहता है मध्यम वर्ग

दरअसल, भूमंडलीकरण के इस दौर में चंद उद्योगपतियों के अलावा एक मध्यम वर्ग भी हमारे देश में पैदा हुआ है। यह मध्यम वर्ग ना सिर्फ़ बहुराष्ट्रीय कंपनियों अपितु राजनीतिक दलों को भी आकर्षित कर रहा है और यह निजीकरण का हिमायती है। इस मध्यम वर्ग और उसको लेकर आकर्षित होने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने इस देश में बहुत तेज़ी से सरकारों से वह करा लिया जिसे भारत जैसे किसी ग़रीब देश में करने से पहले वहाँ की ग़रीबी को हटाना चाहिए था। यही मध्यम वर्ग राष्ट्रवाद का ध्वजवाहक बना हुआ है। उसे शिक्षा, स्वास्थ्य, बस, रेल चलाने के लिए सरकार के बजाय कोई निजी कंपनी पसंद है।   
राहुल गाँधी ने निजी कंपनियों के उद्योगपतियों का तो प्रचार के दौरान बार-बार नाम लिया लेकिन ग़रीबों को लेकर ज़मीनी लड़ाई शुरू नहीं की। उन्होंने आदिवासियों की ज़मीन अधिग्रहण के बिल पर विरोध तो जताया लेकिन उन लोगों के बीच जाकर खड़े नहीं हुए।

हम डिजिटल इंडिया के दौर की बात करते हैं लेकिन संसद के अंदर की आवाज़ को आदिवासी अंचल में सुनाने की तकनीक विकसित नहीं कर पाए, लिहाजा जाना तो सड़क पर ही पड़ेगा। 18 लाख सरकारी नौकरियों के खाली पड़े पदों को भरने की बात कर देने से भी काम नहीं चलेगा? 

कांग्रेस संगठन में चंद नेताओं के पद बदल देने या कुछ की कुर्सियाँ चली जाती हैं, तो इससे देश की जनता को कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ने वाला। देश की जनता को उस समय बदलाव दिखेगा जब कांग्रेस के नेता उनके मुद्दों को लेकर उनके बीच संघर्षरत नज़र आएँ। 

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संजय राय
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