आज के दौर में राजनीति में जिस विचारधारा की लड़ाई की बात कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी कर रहे हैं क्या वह कांग्रेस को उस मुकाम तक पहुँचा पाएँगे? उस दौर में जब देश में राजनेताओं ने ‘विचारधारा’ को सिर्फ़ एक शब्द ‘सत्ता’ तक संकुचित करके रख दिया है? सत्ता के बाजार में ‘बकरे’ की तरह खड़े राजनेताओं से विचारधारा की उम्मीद करना कहाँ तक सही साबित होगा?
नेताओं ने आज विचारधारा को ‘गमछे’ का रूप दे दिया है। जहाँ खूँटी देखी वहीं पुराना गमछा टाँग दिया और नया गले में डाल लिया।
नेताओं को पाला बदलते देर नहीं लगती
देश का पश्चिमी राज्य महाराष्ट्र हो या पूर्वोत्तर असम -त्रिपुरा, दक्षिण में केरल हो या उत्तर प्रदेश -बिहार, ‘गमछा’ बदलने की संस्कृति में कोई अंतर देखने को नहीं मिलेगा। 9 बार लोकसभा में जीतकर गए और केन्द्रीय मंत्री रहे बाला साहब विखे पाटिल के पुत्र राधाकृष्ण विखे पाटिल जो 10 साल महाराष्ट्र में मंत्री रहे और पिछले साढ़े चार साल कांग्रेस ने जिन्हें विधानसभा में विपक्ष के नेता के पद पर बिठाया, अपने बेटे के टिकट को लेकर बीजेपी में चले गए।
शरद पवार ने जिन विजय सिंह मोहिते पाटिल को महाराष्ट्र के उप-मुख्यमंत्री के पद पर बिठाया और सुप्रिया सुले की राज्यसभा सीट खाली होने पर उनके बेटे रणजीत सिंह मोहिते पाटिल को राज्यसभा भेजा वह भी एक टिकट के लिए बीजेपी में चले गए। यही कहानी पूर्वोत्तर की भी है।
पूर्वोत्तर की राजनीति में विचारधारा
असम में मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के सबसे क़रीबी कहे जाने वाले हेमंत बिस्वा सरमा ने कांग्रेस छोड़ बीजेपी का दामन थाम लिया। बीजेपी ने पूर्वोत्तर में पहली जीत असम में हासिल की थी। असम की जीत दिलाने में हेमंत बिस्वा सरमा की अहम भूमिका रही है। 2006 तक वह असम के पूर्व सीएम तरुण गोगोई के राइट हैंड कहे जाते थे। यही नहीं, लोग उन्हें गोगोई का उत्तराधिकारी भी समझते थे। वक़्त ने ऐसी सियासी करवट ली कि दोनों के रिश्तों में 2010 में दरार आ गई। इसके बाद हेमंत ने कांग्रेस को अलविदा कह दिया और 2015 में वह बीजेपी में शामिल होकर पूरे नॉर्थ ईस्ट में पार्टी का चेहरा बन गए। इतना ही नहीं, नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस (बीजेपी के नेतृत्व वाला ग़ैर-कांग्रेसी पार्टियों का गठबंधन) के संयोजक बनाए गए और मंत्री भी हैं।
राहुल गाँधी के क़रीबी रहे पार्टी के प्रवक्ता टॉम वडक्कन, प्रियंका चतुर्वेदी ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जिन्हें राहुल गाँधी ने क़रीब से देखा भी है। ऐसे में राहुल गाँधी का यह कहना कि हम विचारधारा के बल पर भारतीय जनता पार्टी को हरा देंगे, आज के यथार्थ से परे लगता है।
आज की राजनीति के यथार्थ हैं- भारतीय जनता पार्टी और उसके ‘चाणक्य’ कहे जाने वाले अध्यक्ष अमित शाह। अमित शाह इसलिए प्रसिद्ध नहीं हैं कि उन्होंने कोई आचार्य विष्णु गुप्त की तरह राजनीति या अर्थनीति पर कोई किताब लिखी है? वह अपनी ‘सत्ता नीति’ के लिए सराहे जा रहे हैं।
अमित शाह की रणनीति
कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं को अपनी पार्टी में शामिल कराकर अमित शाह ने त्रिपुरा में वामपंथी सरकार को सत्ता से बेदखल कर दिया। 1988 से 1993 तक कांग्रेस नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार को छोड़ दें तो त्रिपुरा में 1978 से लेकर 2018 तक वाम मोर्चा की सरकार थी और मुख्यमंत्री माणिक सरकार 1998 से सत्ता में थे। उनके दौर में जो आँकड़े दिए जाते थे उनके हिसाब से साक्षरता दर के मामले में त्रिपुरा देश भर में अव्वल था। मानव विकास सूचकांक में भी बीजेपी शासित राज्यों से काफ़ी आगे था। मनरेगा को लागू करने में भी त्रिपुरा पहले नंबर पर था। माणिक सरकार के बारे में कहा जाता था कि वह अशांत त्रिपुरा में शांति और सुरक्षा बहाल करने में कामयाब रहे थे, इसी वजह से वहाँ से अफ़्सपा यानी आर्म्ड फ़ोर्सेज़ स्पेशल पावर एक्ट को वापस लिया गया था।
त्रिपुरा में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का कार्य करने वाले सुधीर देवधर ने ख़ुद इस बात को कहा था कि ‘त्रिपुरा में काम कर रहे कांग्रेस पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं की तुलना अन्य राज्यों के कांग्रेस नेताओं के साथ नहीं की जा सकती। यहाँ कांग्रेस एकमात्र पार्टी है जो त्रिपुरा में कम्युनिस्ट पार्टी के साथ लड़ रही है।’
अमित शाह ने कांग्रेस की उसी ताक़त को अपने साथ मिलाया और बीजेपी की सत्ता बना ली। यही फ़ॉर्मूला बंगाल में ममता बनर्जी के ख़िलाफ़ चलाया और अपनी धुर-विरोधी विचारधारा वालों का सहयोग हासिल कर बीजेपी को नयी ज़मीन तैयार करके दी। ऐसे में राहुल गाँधी जिस विचारधारा की बात कर रहे हैं उसे कैसे मज़बूती प्रदान कर पाएँगे?
अपनी राय बतायें