कांग्रेस में लंबे समय तक शीर्ष स्तर पर रहे और यूपीए सरकार में कई महत्वपूर्ण मंत्रालय संभालने वाले कपिल सिब्बल ने सियासत में नई राह चुन ली है। सिब्बल का यह कदम भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए मुश्किल पैदा कर सकता है और उनके इस कदम से राजनीति में न सिर्फ एक निष्पक्ष और दलगत राजनीति से ऊपर उठने वाली आवाज का रास्ता बनेगा, बल्कि अगले लोकसभा चुनावों के लिए बनने वाले विपक्षी मोर्चे को एक बड़ा चेहरा भी मिल गया है।
एक ऐसा चेहरा जो तमाम गैर भाजपा दलों और उनके क्षत्रपों को एक विपक्षी माला में पिरो कर एक तरफ कांग्रेस को उसका समर्थन करने को विवश कर सकता है, तो दूसरी तरफ भाजपा के लिए नई चुनौती भी खड़ी कर सकता है। इसकी शुरुआत अगले महीने से शुरू होने वाले राष्ट्रपति चुनाव से भी हो सकती है, जिसमें समाजवादी पार्टी के समर्थन से राज्यसभा में निर्दलीय पहुंचने वाले कपिल सिब्बल की एक अहम भूमिका हो सकती है। सिब्बल विपक्ष की तरफ से साझा उम्मीदवार भी हो सकते हैं या किसी नाम पर साझा सहमति भी बनवाने का काम कर सकते हैं।
कांग्रेस छोड़कर समाजवादी पार्टी के समर्थन से राज्यसभा में कपिल सिब्बल की वापसी से कांग्रेस के भीतर जी-23 की मुहिम ही ध्वस्त हो गई है। सिब्बल की इस चाल से कांग्रेस के भीतर सोनिया गांधी परिवार की पार्टी पर पकड़ और मजबूत हो गई है। अब कांग्रेस के भीतर नेतृत्व को चुनौती देने वाला कोई समूह नहीं बचा है। क्योंकि जहां इस मुहिम के अगुआ कपिल सिब्बल पार्टी से अलग होकर सपा के खेमे में चले गए हैं, वहीं दूसरे अगुआ गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा, मनीष तिवारी, शशि थरूर, भूपेंद्र सिंह हुड्डा, मुकुल वासनिक, मनीष तिवारी ने नेतृत्व के दबदबे को मंजूर करते हुए पार्टी के कामकाज में अपनी भूमिकाएं स्वीकार कर ली हैं।
ये सब न सिर्फ उदयपुर नवसंकल्प चिंतन शिविर में पूरी सक्रियता से शामिल हुए बल्कि अब कुछ को अहम समितियों और समूहों में जगह भी मिल गई है। सपा के समर्थन से कपिल के राज्यसभा जाने और बाकियों के नेतृत्व के सामने झुकने से जी-23 की मुहिम को लेकर शुरू में ही की गई एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता की टिप्पणी कि यह मुहिम सिर्फ ध्यानार्कषण प्रस्ताव है, सही साबित हो गई है।
गांधी परिवार और कांग्रेस दोनों के रहे संकटमोचक
सवाल है कि अब कपिल सिब्बल की नई पारी से आगे क्या-क्या हो सकता है। दरअसल सिब्बल अब तक कांग्रेस के टिकट पर ही लोकसभा और राज्यसभा में रहे हैं और वह पार्टी अनुशासन से बंधे रहे। इसलिए कई बार अपने मन की बात न तो सदन में और न ही सदन के बाहर कह सके। पिछले कुछ महीनों से उनके तेवर कांग्रेस नेतृत्व को लेकर काफी तीखे थे। उनका भाजपा विरोध और धर्मनिरपेक्षता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता जगजाहिर है, इसलिए उन पर भाजपा या मोदी सरकार के हाथों खेलने का आरोप नहीं लग सका।
एक जमाने में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के बेहद भरोसेमंद रहने वाले कपिल सिब्बल तमाम कानूनी विवादों में परिवार और पार्टी दोनों के संकटमोचक रहे हैं। इसी तरह कपिल लगभग सभी गैर भाजपा दलों के क्षत्रप नेताओं के कानूनी मामले भी देखते रहे हैं।
वह ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी, लालू प्रसाद यादव और तेजस्वी यादव, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन, एनसीपी नेता और महाराष्ट्र के पूर्व मंत्री अनिल देशमुख, नवाब मलिक, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन आदि के वकील भी रहे हैं। उनके रिश्ते नवीन पटनायक, जगन मोहन रेड्डी और चंद्रशेखर राव से भी अच्छे हैं। एनसीपी नेता शरद पवार भी कपिल सिब्बल को खास मानते हैं। कांग्रेस से अलग होने के बावजूद जी-23 के सभी प्रमुख नेताओं के साथ कपिल सिब्बल का संवाद और संपर्क कायम है। सपा में मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव, रामगोपाल यादव, शिवपाल सिंह यादव और मोहम्मद आजम खां भी कपिल सिब्बल के करीबी हैं। वामदलों के नेताओं से भी कपिल सिब्बल की कई मुद्दों पर सहमति है।
साझा उम्मीदवार बनाने पर राय-मशविरा शुरू
कपिल सिब्बल की सर्व स्वीकार्यता ही उनकी सबसे बड़ी ताकत है। इसलिए एक राय बन रही है कि उन्हें राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष का साझा उम्मीदवार बना दिया जाए। इसके लिए तमाम गैर-भाजपा क्षत्रप नेताओं से बातचीत शुरू हो चुकी है। समाजवादी पार्टी में शामिल होने की बजाय उसके समर्थन से राज्यसभा में कपिल के जाने के पीछे यही रणनीति है। इससे कपिल किसी दल विशेष के नहीं बल्कि सभी विपक्षी दलों के साझा उम्मीदवार होंगे। जब सारे भाजपा विरोधी क्षेत्रीय दल कपिल सिब्बल के लिए तैयार होंगे, तब कांग्रेस के सामने उन्हें समर्थन देने के सिवा कोई और चारा नहीं बचेगा।
हालांकि मौजूदा समय में राष्ट्रपति चुनाव में वोटों का गणित ऐसा है कि अगर नवीन पटनायक और जगन मोहन रेड्डी अपना हाथ खींच लें तो भाजपा के लिए अपना राष्ट्रपति बनवाना टेढ़ी खीर हो सकता है। वैसे भी बिहार में जिस तरह नीतीश कुमार के तेवर बदल रहे हैं उससे भी भाजपा दबाव में है। एक दिन पहले ही बिहार के राज्यपाल प्रधानमंत्री मोदी से मिल कर गए हैं। इसलिए कपिल सिब्बल एकमात्र ऐसे उम्मीदवार हैं, जो पूरे विपक्ष को एकजुट करके सत्तारूढ़-भाजपा गठबंधन के उम्मीदवार को कड़ी टक्कर दे सकते हैं।
बताया जाता है कि कपिल भी इसके लिए तैयार हैं और उन्हें लगता है कि अगर वह राष्ट्रपति का चुनाव नहीं भी जीत पाए, तो विपक्ष में वह एक सर्व स्वीकार्य चेहरे के तौर पर उभर सकते हैं जो 2024 के लोकसभा चुनावों में मोदी के मुकाबले विपक्षी चुनौती भी बन सकता है।
...या बन सकते हैं दूसरे हरकिशन सिंह सुरजीत
अगर ऐसा नहीं भी हुआ तो भी कपिल सिब्बल कम से कम सबको एकजुट करने की वैसी भूमिका तो निभा सकते हैं, जो कभी वामपंथी दिग्गज हरिकिशन सिंह सुरजीत ने निभाई थी। कपिल अगर कांग्रेस में रहते तो उन्हें राजनीति करने की वो आजादी नहीं मिलती जो उन्हें अब निर्दलीय रहते हुए मिलेगी। कपिल सिब्बल कहते हैं कि उन्होंने निर्दलीय रहने का फैसला इसलिए किया है कि संसद में दलगत राजनीति से ऊपर उठकर बोलने वाली आवाजें खत्म हो गई हैं। सभी सांसद अपने-अपने दलों के अनुशासन से बंधे रहते हैं और उनके सिर पर दलबदल कानून की तलवार लटकती रहती है। यह स्थिति लोकतंत्र के लिए घातक है। इसलिए वह संसद के भीतर और बाहर एक निष्पक्ष और दलगत राजनीति से ऊपर की आवाज बनेंगे। जबकि दलों ने लोकतंत्र को दलदल बना दिया है।
(विनोद अग्निहोत्री का यह लेख अमर उजाला से साभार)
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