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प्रणब मुखर्जी की किताब पर उनके बेटे-बेटी में क्यों है विवाद?

कांग्रेस नेता सोनिया गांधी और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की आलोचना करने के बाद सुर्खियों में छाई दिवंगत राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की किताब 'द प्रेसीडेंशियल ईयर्स' पर विवाद तो हुआ ही था, अब उनकी नई पुस्तक पर भी लड़ाई शुरू हो गई है। यह  लड़ाई और किसी के बीच नहीं, किताब के लेखक के बेटे और बेटी के बीच है।
दिलचस्प बात यह भी है कि दोनों ही कांग्रेस में हैं, लेकिन पुस्तक के विवादित हिस्सों के प्रकाशन पर दोनों के विचार एकदम उलट हैं।

बेटे का विरोध

पूर्व राष्ट्रपति के बेटे अभिजीत मुखर्जी ने प्रकाशक रूपा पब्लिशर्स से कहा है कि किताब के लेखक के बेटे की हैसियत से वह यह कह रहे हैं कि संस्मरण 'द प्रेशिडेंशियल मेमोआयरर्स ‘ से जुड़ी विवादित बातें न प्रकाशित की जाएं। उन्होंने प्रकाशक को इससे जुड़ा एक ट्वीट कर कहा है कि उनकी अनुमति इसके लिए नहीं है।
लेकिन प्रणब बाबू की बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी इस किताब के छापे जाने के पक्ष में हैं। उनका तर्क है कि पूर्व राष्ट्रपति ने बीमार पड़ने से पहले ही किताब लिख कर तैयार कर ली थी और उस पर उनके हाथ के लिखे नोट्स भी हैं। लिहाज़ा, जो कुछ है, वह उनकी मर्जी के अनुसार है और इसलिए वह प्रकाशित होनी चाहिए।

शर्मिष्ठा ने किया भाई पर हमला

शर्मिष्ठा ने अपने भाई पर खुला हमला करते हुए ट्वीट कर कहा है कि वे किताब के प्रकाशन में बेवजह अड़चन डाल रहे हैं और उन्हें ऐसा कतई नहीं करना चाहिए।
बता दें कि प्रणब मुखर्जी की किताब 'द प्रेसिडेंशियल ईयर्स' में जिस तरह काग्रेस पार्टी के सबसे वरिष्ठ नेता की खुले आम आलोचना की गई है, उससे पार्टी पहले से ही परेशान है, हालांकि आधिकारिक तौर पर किसी ने कुछ नहीं कहा है।

विवाद क्यों?

प्रणब मुखर्जी ने उस किताब में लिखा है कि 2014 में पार्टी को मिली हार के लिए पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी जिम्मेदार थे। उन्होंने लिखा है, 

“कुछ लोगों को ये लगता है कि अगर मुझे 2004 में प्रधानमंत्री बना दिया गया होता तो शायद 2014 की हार को टाला जा सकता था। मुझे ऐसा लगता है कि मेरे राष्ट्रपति बनने के बाद पार्टी के नेतृत्व ने राजनीतिक लक्ष्य को लेकर काम नहीं किया।”


'द प्रेसीडेंशियल ईयर्स' का एक अंश

मनमोहन सरकार में वित्त मंत्री रहे मुखर्जी ने लिखा है कि 'मेरे जाने के बाद सोनिया गांधी पार्टी के मामलों को सुलझाने में सक्षम नहीं थीं जबकि मनमोहन सिंह की सदन से लंबी ग़ैर हाजिरी की वजह से उनका सांसदों के साथ कोई संपर्क ही नहीं हो पाता था।'

मोदी-मनमोहन की तुलना

मुखर्जी ने अपनी किताब में मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी की तुलना की है। उन्होंने लिखा है, “जहां डॉ. मनमोहन सिंह गठबंधन को बचाने के लिए चिंतित रहते थे और इससे सरकार के कामकाज पर असर पड़ता था, जबकि मोदी अपने पहले कार्यकाल में अधिनायकवादी की तरह काम करते दिखाई दिए और इससे सरकार, विधायिका और न्यायपालिका के बीच रिश्ते ख़राब हुए।’ 
बहरहाल, प्रकाशक को खुश होना चाहिए कि उसके किताब का प्रचार छपने से पहले ही हो रहा है और वह भी मुफ़्त।
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क़मर वहीद नक़वी
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