कहा जाता है कि आम इंसान कोई भी मुसीबत पड़ने पर सबसे पहले पुलिस के पास जाता है क्योंकि उसे उम्मीद होती है कि थाने, चौकी में उसकी बात सुनी जाएगी और उसे इंसाफ़ मिलेगा। लेकिन ऐसी स्थिति में क्या होगा जब पुलिसकर्मी ही किसी एक समुदाय के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित हों और यह मान बैठे हों कि उस समुदाय के लोग स्वाभाविक रूप से अपराधी होते हैं या उनके अपराधी होने की संभावना ज़्यादा होती है। ऐसे में उस समुदाय के व्यक्ति को तो न्याय मिलना बेहद मुश्किल हो जायेगा।
ऐसी ही कई हैरान करने वाली बातें मंगलवार को जारी की गई सीएसडीएस की लोकनीति और काॅमन कॉज की ओर से तैयार की गई सर्वे रिपोर्ट में सामने आई हैं। इस रिपोर्ट को सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस जे. चेलमेश्वर ने जारी किया। यह रिपोर्ट पुलिस की उपयुक्तता और काम करने की स्थितियों के बारे में बताती है। रिपोर्ट को तैयार करते वक़्त 21 राज्यों के 12 हज़ार पुलिसकर्मियों का इंटरव्यू लिया गया और साथ ही पुलिसकर्मियों के परिवारों के 11 हज़ार सदस्यों से भी बात की गई। रिपोर्ट का नाम - ‘स्टेटस ऑफ़ पुलिसिंग इन इंडिया रिपोर्ट 2019’ है।
रिपोर्ट के मुताबिक़, देश में हर दो में से एक पुलिसकर्मी को यह लगता है कि मुसलमानों के अपराधी होने की संभावना स्वाभाविक रूप से ज़्यादा होती है। अब ऐसे में सवाल यह है कि आख़िर ऐसे में कैसे पुलिसकर्मी किसी मामले में मुसलमानों के साथ न्याय कर पाएँगे?
देश भर में पिछले कुछ सालों में हुई मॉब लिंचिंग की घटनाओं में अधिकांश मामले ऐसे हैं जिनमें गो तस्करी या गो मांस ले जाने के शक में मुसलमानों को पीटा गया है और कुछ दिनों बाद उनकी मौत हो गई। इसमें ग्रेटर नोएडा में अखलाक से लेकर अलवर में पहलू ख़ान तक और इसके अलावा कई मामले हैं। लेकिन इस मामले में भी पुलिसकर्मियों का रवैया बेहद हैरानी भरा है। क्योंकि रिपोर्ट के मुताबिक़, 35 फ़ीसदी पुलिसकर्मियों का मानना है कि गो हत्या के मामलों में भीड़ का अपराधी को सजा देना स्वाभाविक है।
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पुलिस से उम्मीद तो यह की जाती है कि वह भीड़ को क़ानून हाथ में लेने से रोकेगी लेकिन फिर पुलिस की क्या ज़रूरत है कि जब वह यह मानती है कि भीड़ का ख़ुद ही सजा देना स्वाभाविक है। कुछ ऐसा ही हाल रेप के अभियुक्त के मामले में है। क्योंकि 43 फ़ीसदी पुलिसकर्मियों का यह मानना है कि रेप मामलों में भीड़ के द्वारा अभियुक्त को पीटा जाना स्वाभाविक है।सर्वे से पता चलता है कि 37 फ़ीसदी पुलिसकर्मियों ने इंटरव्यू के दौरान इस बात को माना कि मामूली अपराधों के लिए पुलिस द्वारा क़ानूनी सजा के बजाय हल्का दंड दिया जाना चाहिए। यह भी जानकारी सामने आई कि 72 फ़ीसदी पुलिसकर्मी मानते हैं कि प्रभावशाली व्यक्तियों से जुड़े मामलों की जाँच के दौरान उन्हें राजनीतिक दबाव का सामना करना पड़ा।
रिपोर्ट को जारी करने के बाद पूर्व जस्टिस चेलमेश्वर ने कहा कि कोई भी एक दृढ़ इच्छाशक्ति वाला अफ़सर सब कुछ कर सकता है लेकिन उस अफ़सर को वहाँ नियुक्त कौन करेगा। रिटायर्ड जस्टिस ने कहा, ‘हमें इस बारे में बात करने की ज़रूरत है कि पुलिसकर्मियों को राजनीतिक प्रभाव से कैसे दूर रखा जाए। उनका इशारा पुलिसकर्मियों के ट्रांसफ़र की ओर था। उन्होंने कहा कि ट्रांसफ़र किया जाना एक तरह का दंड है और यहाँ तक कि संवैधानिक पद पर बैठे जज भी बेवजह के ट्रांसफ़र से सुरक्षित नहीं हैं।
राजनीतिक दलों पर यह आरोप लगता है कि वे अपनी मर्जी से पुलिस अधिकारियों का जब चाहे तब तबादला कर देते हैं। निश्चित रूप से इससे पुलिसकर्मी दबाव में काम करते हैं और ऐसे मामलों में जहाँ राजनेताओं पर कार्रवाई करनी हो, पुलिस नहीं कर पाती और पीड़ितों को न्याय नहीं मिल पाता है।
हाशिमपुरा दंगा
लोकनीति और काॅमन कॉज की इस रिपोर्ट को पढ़ने के बाद 1987 में मेरठ के हाशिमपुरा में हुए नरसंहार की ओर ध्यान जाता है। मेरठ में कर्फ्यू के दौरान 22 मई, 1987 को पीएसी के जवान हाशिमपुरा मुहल्ले से 50 लोगों को जिनमें सभी मुसलमान थे, को ट्रक में भरकर ले गए थे और इन सभी को गोली मार दी गई थी। इनकी लाशों को गंग नहर और हिंडन नदी में फेंक दिया गया था। गोली लगने के बाद बचे कुछ लोगों ने इस मामले की शिकायत की थी और तब इस हत्याकांड का पता चला था। निचली अदालत ने इस नरसंहार के सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया था। लेकिन दिल्ली हाई कोर्ट ने 2018 में निचली अदालत का फ़ैसला पलटते हुए सभी 16 अभियुक्तों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। कहने का मतलब यह है कि इतने बड़े नरसंहार में भी पुलिस ने सबूत जुटाने और मामले की जाँच में लापरवाही की।
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