हिंदी को अनिवार्य किए जाने की आशंका को लेकर जो विवाद हाल में उठा है उस पर अब उत्तर पूर्वी राज्यों से तीखी प्रतिक्रिया आई है। ऐसी ही प्रतिक्रिया तमिलनाडु में भी आई है और हिंदी को थोपे जाने का विरोध खुद राज्य में बीजेपी के अध्यक्ष ने ही किया है।
उत्तर पूर्व छात्र संगठन यानी एनईएसओ ने इस क्षेत्र में कक्षा 10 तक हिंदी को अनिवार्य विषय बनाने के केंद्र के फ़ैसले पर नाराज़गी जताई है। उसने कहा है कि यह क़दम स्वदेशी भाषाओं के लिए हानिकारक होगा और इससे असामंजस्य बढ़ेगा। एनईएसओ आठ छात्र संगठनों का एक समूह है। उसने गृहमंत्री अमित शाह को एक चिट्ठी लिखी है और उन्हें अपने फ़ैसले पर पुनर्विचार करने के लिए कहा है। अमित शाह ने 7 अप्रैल को नई दिल्ली में संसदीय राजभाषा समिति की बैठक में कहा था कि सभी पूर्वोत्तर राज्य 10वीं कक्षा तक के स्कूलों में हिंदी अनिवार्य करने पर सहमत हो गए हैं।
हिंदी पर ऐसे ही बयानों के बीच तमिलनाडु बीजेपी के अध्यक्ष अन्नामलाई ने कहा कि तमिलनाडु बीजेपी हिंदी थोपे जाने को स्वीकार नहीं करेगी। इंडिया टुडे की रिपोर्ट के अनुसार उन्होंने कहा, 'तमिलनाडु बीजेपी बहुत स्पष्ट है कि हम किसी भी कारण से हिंदी थोपे जाने को स्वीकार नहीं करेंगे या अनुमति नहीं देंगे।' उन्होंने यह भी कहा कि 1965 में कांग्रेस ने एक क़ानून लाया कि हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए, और 1986 में दूसरी राष्ट्रीय शिक्षा नीति के माध्यम से एक बार फिर हिंदी थोपने का प्रयास किया गया।
लेकिन तमिलनाडु से अलग उत्तर पूर्व के राज्यों में हिंदी को अनिवार्य किए जाने को लेकर गृहमंत्री के बयान पर तीखी प्रतिक्रिया हुई है। 'द इंडियन एक्सप्रेस' की रिपोर्ट के अनुसार केंद्रीय गृहमंत्री को लिखे पत्र में एनईएसओ ने 'प्रतिकूल नीति' को तत्काल वापस लेने का आह्वान किया है। चिट्ठी में इसने सुझाव दिया है कि स्थानीय भाषाओं को कक्षा 10 तक अपने मूल राज्यों में अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए, जबकि हिंदी एक वैकल्पिक विषय बना रहना चाहिए।
उत्तर पूर्व छात्र संगठन ने कहा है, 'यह समझा जाता है कि हिंदी भाषा भारत में लगभग 40-43 प्रतिशत नैटिव वक्ताओं द्वारा बोली जाती है, हालाँकि यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि देश में अन्य मूल भाषाओं की एक बड़ी संख्या है, जो अपने आप में समृद्ध, संपन्न और जीवंत हैं और भारत को एक विविध और बहुभाषी राष्ट्र की छवि गढ़ती है।' बता दें कि पूर्वोत्तर में प्रत्येक राज्य की अपनी अनूठी और विविध भाषाएँ हैं, जो विभिन्न जातीय समूहों द्वारा बोली जाती हैं।
एनईएसओ ने कहा है कि इस तरह का कदम एकता नहीं लाएगा बल्कि आशंकाओं व असामंजस्य पैदा करने का एक उपकरण होगा। उसने कहा है कि केंद्र को पूर्वोत्तर की स्थानीय स्वदेशी भाषाओं के और उत्थान पर ध्यान देना चाहिए।
बता दें कि अमित शाह ने 7 अप्रैल को बैठक में कहा था कि भारत के अलग-अलग राज्यों के लोगों को एक दूसरे के साथ हिंदी में बातचीत करनी चाहिए ना कि अंग्रेजी में। अमित शाह ने संसदीय भाषा समिति की 37 वीं बैठक में कहा था, “प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फैसला किया है कि सरकार चलाने का माध्यम राजभाषा होनी चाहिए और इससे निश्चित रूप से हिंदी की अहमियत बढ़ेगी। अब वक़्त आ गया है कि राजभाषा को हमारे देश की एकता का अहम हिस्सा बनाया जाए।”
गृह मंत्री ने कहा कि जब ऐसे राज्यों के लोग जो अलग-अलग भाषाएं बोलते हैं, वे आपस में बात करते हैं तो यह बातचीत भारत की भाषा में होनी चाहिए।
अमित शाह इससे पहले भी पूरे देश की एक भाषा हिंदी होने की बात कह चुके हैं और तब इसे लेकर देश के कई राज्यों में काफी विरोध हुआ था। साल 2019 में अमित शाह ने एक ट्वीट में कहा था कि आज देश को एकता के दौर में बांधने का काम अगर कोई एक भाषा कर सकती है तो वह सबसे ज़्यादा बोले जाने वाली हिंदी भाषा ही है। तो सवाल है कि क्या 2019 की तरह ही इस बार भी विरोध होगा और फिर से यह मामला दब जाएगा या फिर इस बार विरोध के बावजूद इसको आगे बढ़ाया जाएगा?
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