भारत ने मणिपुर हिंसा को लेकर यूरोपीय संसद द्वारा पारित प्रस्ताव की तीखी आलोचना की है। यूरोपीय संसद ने मानवाधिकार की स्थिति पर वह प्रस्ताव पारित किया था। इस पर भारत ने दोहराया है कि मणिपुर एक 'आंतरिक मामला' है। विदेश मंत्रालय ने कहा है कि यह कदम औपनिवेशिक मानसिकता को दर्शाता है और यह स्वीकार्य नहीं है।
भारत के विदेश मंत्रालय की यह प्रतिक्रिया तब आई है जब यूरोपीय संसद के प्रस्ताव में भारत में अल्पसंख्यकों के अधिकारों को लेकर भी नरेंद्र मोदी सरकार की आलोचना की गई है। यूरोपीय संसद में 6 संसदीय समूहों की तरफ से प्रस्तुत इस प्रस्ताव में मणिपुर में पिछले दो महीने से चल रही हिंसक वारदातों को न रोक पाने के लिए मोदी सरकार के तौर-तरीकों की तीखी आलोचना की गई है। इसमें कहा गया है कि हिंदू बहुसंख्यकवाद को बढ़ावा देने वाली राजनीति से प्रेरित और बँटवारा करने वाली नीतियों और आतंकी समूहों की गतिविधियों में हुई बढ़ोतरी से हम चिंतित हैं।
इस प्रस्ताव में मणिपुर में हिंसा के बाद कर्फ्यू लगाने और इंटरनेट पर रोक लगाने के राज्य सरकार के फ़ैसले की कड़ी आलोचना की गई। कहा गया है कि इससे मीडिया और सिविल सोसाइटी को हिंसा की सही सूचना नहीं मिल पा रही है और उन्हें रिपोर्टिंग में मुश्किल आ रही है।
इस प्रस्ताव को लेकर विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने कहा, 'हमने देखा है कि यूरोपीय संसद ने मणिपुर के घटनाक्रम पर चर्चा की और एक तथाकथित अत्यावश्यक प्रस्ताव को लाया। भारत के आंतरिक मामलों में इस तरह का हस्तक्षेप अस्वीकार्य है और औपनिवेशिक मानसिकता को दर्शाता है।'
यूरोपीय संसद में मणिपुर के हालात पर बहस से पहले भारत ने अपना रुख साफ़ कर दिया था। विदेश सचिव विनय क्वात्रा ने कहा कि यूरोपीय संघ के सांसदों को यह स्पष्ट कर दिया गया है कि यह भारत का बिल्कुल आंतरिक मामला है।
प्रस्ताव में कहा गया है कि हमने भारतीय अधिकारियों से अनुरोध किया है कि वह जातीय व धार्मिक हिंसा को तुरंत रोके और धार्मिक अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए सरकार सभी जरूरी कदम उठाए। इसमें कहा गया है कि अल्पसंख्यक समुदायों के प्रति असहिष्णुता ने मणिपुर में हिंसा को भड़काया है।
इसने अधिकारियों से हिंसा की स्वतंत्र जांच की अनुमति देने और गैरकानूनी सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम को निरस्त करने के लिए भी आग्रह किया है।
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