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विदेश सचिव विक्रम मिसरी के साथ तालिबान नेता अमीर खान मुत्तकी

भारत आतंकी तालिबान से बात करने को क्यों मजबूर, जानें खास कारण

भारत ने अभी तक अफगानिस्तान की तालिबान सरकार को मान्यता नहीं दी है। तालिबान आज भी अंतरराष्ट्रीय आतंकवादियों की सूची में शामिल है। इसके बावजूद भारत की अफगानिस्तान से लगातार बातें हो रही हैं। बैठकें हो रही हैं। विदेश सचिव विक्रम मिसरी की तालिबान शासित अफगानिस्तान के कार्यवाहक विदेश मंत्री अमीर खान मुत्तकी की बैठक पर तमाम देशों की नजर है। यह बातचीत-मुलाकात इसके बावजूद हो रही है, जबकि अफगानिस्तान में तालिबान शासकों ने वहां की महिलाओं पर तमाम पाबंदियां लगाकर उनकी जिन्दगी मुश्किल कर दी है। लेकिन जब भारतीय उपमहाद्वीप से लेकर तमाम देशों में जियो पॉलिटिक्स में उतार-चढ़ाव आ रहा है तो ऐसी चीजें, मानवाधिकार, आतंकवाद मायने नहीं रखते। आपको बातचीत के टेबल पर बैठना ही पड़ता है।
विक्रम मिसरी और अमीर खान मुत्तकी की बैठक भारत द्वारा अपने सुरक्षा हितों को सुरक्षित करने की एक कोशिश है। जिसमें कई महत्वपूर्ण भूमिकाएँ शामिल हैं। लेकिन मामला यहीं तक नहीं है। इसके कुछ और कारण भी हैं जिनकी वजह से भारत को उच्चस्तर पर तालिबान से बातचीत करना पड़ रही है। ये हैं- तालिबान का समर्थक और सहयोगी पाकिस्तान उसका विरोधी बन गया है। ईरान काफ़ी कमज़ोर हो गया है। रूस अपना युद्ध स्वयं लड़ रहा है और अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प की वापसी हो रही है।
  • सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि चीन तालिबान के साथ राजदूतों की अदला-बदली करके अफगानिस्तान में अपनी पैठ बना रहा है।
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अफगानिस्तान में वर्षों के निवेश को भारत खोना नहीं चाहता। सुरक्षा भारत की सबसे महत्वपूर्ण और मुख्य चिंता है - किसी भी भारत विरोधी आतंकवादी समूह को अफगानिस्तान के क्षेत्र में ऑपरेट करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। अगस्त 2021 के मध्य में अशरफ गनी सरकार को हटाने और काबुल पर कब्ज़ा करने के बाद से ही तालिबान भारत के साथ अधिक सक्रिय जुड़ाव का आह्वान कर रहा था। अमेरिकी सैनिकों को अफगानिस्तान से अराजक तरीके से बाहर निकलना पड़ा लेकिन वो जाते-जाते अफगानिस्तान अच्छा खासा बर्बाद कर गए। भारत ने अपना पहला कदम 31 अगस्त, 2021 को ही उठा लिया था, जब कतर में उसके राजदूत दीपक मित्तल ने शेर मोहम्मद अब्बास स्टानिकजई (एक भारतीय सैन्य अकादमी कैडेट जो बाद में तालिबान के उप विदेश मंत्री बने) के नेतृत्व में तालिबान के दोहा कार्यालय प्रतिनिधियों से मुलाकात की। 
इसके बाद, भारतीय अधिकारियों ने विदेश मंत्रालय में संयुक्त सचिव (पाकिस्तान, अफगानिस्तान और ईरान) जेपी सिंह से जून 2022 में प्रमुख तालिबान नेताओं से मुलाकात के साथ शुरुआत की। इससे भारत से एक तकनीकी टीम काबुल में भारतीय दूतावास में भेजी गई।
अभी तक भारत और तालिबान शासन के अधिकारियों के बीच कम से कम चार बैठकें हो चुकी हैं। पिछले साल से संबंधों को लेकर हालात बदल रहे हैं।
भारत और ईरान की दोस्ती पुरानी है जो आज भी जारी है। ईरान की सीमा अफगानिस्तान से मिली हुई है। भारत और ईरान की अफगानिस्तान नीति मिलती-जुलती है। लेकिन अब ईरान कमजोर पड़ गया है। इसराइल ने ईरान के दो प्रॉक्सी संगठनों हिजबुल्लाह और हमास को लगभग छिन्न-भिन्न कर दिया है। इसराइल ने ईरान पर सीधे मिसाइल हमले भी किए। ईरान की 1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद यह पहला हमला था। ईरान अब पड़ोसी अफगानिस्तान में तालिबान के बारे में सोचने की बजाय, इसराइल पर फिर से फोकस कर रहा है। 
पिछले हफ्ते दिल्ली आये एक वरिष्ठ ईरानी अधिकारी ने दिल्ली में कहा था कि यद्यपि तालिबान का महिलाओं के साथ व्यवहार "भयानक" है, लेकिन तालिबान शासन एक "वास्तविकता" है। इसलिए, ईरान अब तालिबान की गर्दन पर दबाव नहीं डाल रहा है।
दूसरी बड़ी वजह रूस है। जो पिछले तीन वर्षों में, यूक्रेन में युद्ध में फंस गया है। वो शुरू से तालिबान के साथ संबंध बनाने की कोशिश कर रहा था। राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने जुलाई 2024 में कहा कि तालिबान अब आतंकवाद से लड़ने में सहयोगी है। मॉस्को अफगानिस्तान से लेकर मध्य पूर्व तक के देशों में स्थित इस्लामिक समूहों से एक बड़ा सुरक्षा खतरा देखता है। लेकिन दिसंबर में जब सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल-असद का शासन खत्म हो गया तो इसने एक प्रमुख सहयोगी खो दिया।
चीन अफगानिस्तान में खेल कर रहा है और इस खास वजह से भारत को तालिबान से बात करना पड़ रही है। चीन वहां पुल बना रहा है। उसकी नजर वहां के प्राकृतिक संसाधनों पर है। सितंबर 2023 में, चीन ने काबुल में अपना राजदूत भेजा था और 2024 की शुरुआत में, बीजिंग को अपने राजदूत के रूप में एक तालिबान प्रतिनिधि मिला।
चीन ने अफगान केंद्रीय बैंक की विदेशी संपत्तियों पर लगी रोक हटाने का भी आह्वान किया है। भारत का मानना ​​है कि बीजिंग अपनी बेल्ट एंड रोड पहल के तहत अफगानिस्तान के प्राकृतिक संसाधनों तक पहुंच बना सकता है। काबुल में चीन के सहयोग से बड़े पैमाने पर घर और पार्क बनाने की शहरी विकास परियोजना चल रही है। एक समारोह में तालिबान के एक मंत्री ने चीन के रुख की सराहना करते हुए कहा, "हमने पूर्व समर्थक देशों से संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन चीन ही एकमात्र ऐसा देश था जिसने हमारी मदद की।" अमेरिका, यूरोप, पश्चिम और भारत ने जिस तरह अफगानिस्तान को छोड़ा था, चीन ने फौरन अपनी पैठ बनाने की कोशिश तभी से शुरू कर दी थी।
अफगानिस्तान से बातचीत की बड़ी वजह पाकिस्तान भी है। वही पाकिस्तान जिसने 2021 में तत्कालीन आईएसआई प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल फैज हमीद के साथ काबुल के सेरेना होटल में चाय पीकर तालिबान के उदय होने का जश्न मनाया था। लेकिन अब तालिबान के साथ उसके रिश्ते खराब हो गये हैं।
भारत इस बात से हमेशा सावधान है कि तालिबान पाकिस्तान की आईएसआई को अपनी धरती का इस्तेमाल भारत और भारतीय हितों के खिलाफ तो नहीं करेगा। लेकिन तालिबान और पाकिस्तान के बीच तनाव अब उस स्तर पर है कि एक दूसरे पर हमले किये जा रहे हैं। दोनों तरफ से लोग मर रहे हैं।
अमेरिका में राष्ट्रपति की कुर्सी बदल रही है। बाइडेन के नेतृत्व में अमेरिकी फौज अफगानिस्तान को बर्बाद करके आई थी। लेकिन ट्रम्प हो सकता है कि तालिबान के साथ फिर से संवाद शुरू करें। क्योंकि आख़िरकार, यह ट्रम्प प्रशासन ही था जिसने तालिबान के साथ सबसे पहले बातचीत शुरू की थी और अमेरिकी सेना की वापसी पर समझौता किया था। बाइडेन ने हालांकि उस समझौते को लागू किया। अमेरिका ने उसमें भारत को भी शामिल किया था। दुबई में बैठकें हुई थीं। इसलिए भारत ट्रम्प राज में तालिबान से अमेरिकी रिश्ते में अपनी स्थिति बेहतर रखना चाहता है। 
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भारतीय अधिकारियों के साथ पहली बैठक में ही तालिबान ने इस बात पर जोर दिया कि "जब मानवीय सहायता और विकास परियोजनाओं की बात आती है तो भारत की मदद स्वागत योग्य है।" वास्तव में, मित्तल और स्टैनिकजई के बीच 2021 की उस बैठक में, तालिबान अधिकारियों ने स्पष्ट रूप से कहा था कि भारत की परियोजनाएं पिछले 20 वर्षों में 3 बिलियन अमेरिकी डॉलर खर्च करने की वजह से बहुत "बेहतर" रही हैं और वे चाहेंगे कि "भारत अफगानिस्तान में निवेश करता रहे।"
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क़मर वहीद नक़वी
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