संसद का चेहरा इस बार बदला हुआ है। इसमें काफ़ी दिनों बाद सवर्णों की तादाद बढ़ी है, वे बहुमत में भी हैं। संसद के कुल निर्वाचित 542 सांसदों में 232 सवर्ण हैं, जबकि ओबीसी सदस्यों की तादाद 120 है। अनुसूचित जाति के 86 और अनुसूचित जनजाति के 52 सांसद इस बार लोकसभा में हैं। मंडल आयोग की सिफ़ारिशें लागू करने के बाद जो भारतीय राजनीति का व्याकरण बदला, उसके बाद यह एक तरह का यू-टर्न है।
मंडल आयोग की सिफ़ारिशों की वजह से देश की राजनीति बदली, अन्य पिछड़ी जातियों यानी ओबीसी का वर्चस्व बढ़ा और उनके अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले दलों की अहमियत बढ़ी। इस वजह से क्षेत्रीय दल मजबूत हुए और कांग्रेस पार्टी कमज़ोर हुई।
क्षेत्रीय दलों का दबदबा
कांग्रेस बदली हुई राजनीति के मुताबिक़ अपने को जल्दी से ढाल नहीं पाई और क्षेत्रीय दल उसका जनाधार हड़पती गई। नतीजा यह हुआ कि 1989 में ओबीसी सांसदों की संख्या 11 प्रतिशत से बढ़ कर 21 प्रतिशत हो गई। इसके बाद के चुनाव में यानी 2004 में संसद में ओबीसी सांसदों की तादाद बढ़ कर 26 प्रतिशत हो गई।
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दूसरी ओर, इसी दौरान सवर्ण सांसदों की संख्या लगातार गिरी। सवर्ण सांसदों की तादाद 1984 में 49 प्रतिशत से गिर कर 39 प्रतिशत हो गई। इसके बाद के चुनाव यानी 2004 में सिर्फ़ 34 प्रतिशत सवर्ण ही संसद पहुँच सके। लेकिन इसके बाद यह ट्रेंड बदल गया। साल 2009 में 43 प्रतिशत सवर्ण चुने गए जबकि ओबीसी के सांसदों की संख्या गिर कर 18 प्रतिशत हो गई। यह ट्रेंड चलता रहा। साल 2014 के आम चुनाव में अगड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व बढ़ कर 44.5 प्रतिशत हो गया। दूसरी ओर, ओबीसी समुदाय का प्रतिनिधित्व 20 प्रतिशत पर रुका रहा।
एक अध्ययन से भी पता चलता है कि ओबीसी में सबसे ज़्यादा नुक़सान में यादव रहे। यह जाति उत्तर प्रदेश और बिहार में प्रभावशाली है, जिनकी संख्या इन दो राज्यों में 8 प्रतिशत और 11 प्रतिशत है।
हालिया चुनाव में इनका प्रतिनिधित्व 11 प्रतिशत से घट कर 6 प्रतिशत पर आ गया। वे जाटों से भी पीछे रह गए, जिनकी संख्या 7.5 प्रतिशत है।
फ़ायदे में ब्राह्मण
अगड़ी जातियों में सबसे अधिक लाभ में ब्राह्मण हैं। हालिया चुनाव के बाद उनका प्रतिनिधित्व 9 प्रतिशत से बढ़ कर 17 प्रतिशत हो गया। वे हिन्दी भाषी इलाक़ों में राजपूतों के बराबर आ गए। लेकिन बिहार में ओबीसी का वर्चस्व बचा हुआ है। इस बार के आम चुनावों में बिहार से चुने गए सांसदों में 30 प्रतिशत ओबीसी हैं।पर्यवेक्षकों का कहना है कि इस बार बीजेपी हिन्दू वोटों को एकजुट करने में कामयाब रही है। वह इस चेष्टा में बहुत दिनों से थी, पर उसे कामयाबी नहीं मिल रही थी। इस बार उसने आम लोगों को हिन्दुत्व के नाम पर लामबंद करने में सफलता हासिल कर ली। इसका नतीजा यह हुआ कि ओबीसी हितों की बात करने वाली तमाम पार्टियाँ हारीं। इसे बिहार में राष्ट्रीय जनता दल से समझा जा सकता है, जहाँ उसका एक भी उम्मीदवार नहीं जीता। इस वर्ग पर कांग्रेस का भी प्रभाव था, जिसे इस बार सिर्फ एक सीट मिली है। दूसरी ओर बीजेपी के साथ मिल कर चुनाव लड़ने वाले जनता दल यूनाइटेड के 17 में से 16 उम्मीदवार जीते तो रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी के सभी छह उम्मीदवार जीत गए। मंडल आयोग की सिफ़ारिशें लागू होने के बाद यह पहली बार हुआ है कि सवर्णों की पार्टी समझे जाने वाले दल के उम्मीदवार जीते हैं और पिछड़ों की बात करने वाली पार्टी अपने ही इलाक़े में बुरी तरह हारी है।
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