पिछली बार सत्तारूढ़ दल से बुरी तरह ट्रोल होने और उसकी साइबर सेना के निशाने पर आने के बावजूद 'द हिन्दू' और उसके पत्रकार एन राम ने रफ़ाल सौदे पर नया खुलासा किया है। अख़बार में छपी ख़बर में एक बार फिर नरेंद्र मोदी सरकार के फ़ैसले पर सवाल उठाया गया है और कहा गया है कि जान बूझ कर फ्रांसीसी कंपनियों को खा़स रियायतें दी गईं। ऐसी रियायतें पहले कभी किसी कंपनी को नहीं दी गई थी। लेकिन यह ख़बर उस समय आई है जब चुनाव प्रचार ज़ोर पकड़ चुका है और पहले चरण के मतदान में सिर्फ़ दो दिन बचे हैं। प्रधानमंत्री ने पार्टी का घोषणापत्र जारी करते हुए साफ़ लफ़्जों में कह दिया है कि राष्ट्रवाद उनकी प्रेरणा है। उन्होंने इस राष्ट्रवाद को चुनावी मुद्दा बना लिया है और आम लोगों की जिंदगी को प्रभावित करने वाले मुद्दे दरकिनार हो चुके है। राहुल गाँधी ने यह ज़रूर कहा है कि उनकी सरकार बनी तो रफ़ाल मामलों की जाँच होगी, पर इस मुद्दे से लोगों का ध्यान हट चुका है। ऐसे में रफ़ाल की इस ख़बर के राजनीतिक मायने हैं और उसका सियासी प्रभाव है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है।
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली सुरक्षा मामलों की संसदीय समिति ने रफ़ाल सौदे के ऑफ़सेट कॉन्ट्रैक्ट में दसॉ को कुछ ऐसी रियायतें दी थीं, जो आज तक किसी कंपनी को कभी नहीं मिली थीं। ‘द हिन्दू’ अख़बार ने कंपनी के प्रमुख और मशहूर पत्रकार एन राम की ख़बर छापी है, जिसमें यह सनसनीखेज खुलासा किया गया है।
दसॉ को ख़ास रियायत
ख़बर में कहा गया है कि भारत के साथ किसी तरह के विवाद की स्थिति में मध्यस्थता के प्रावधान और कंपनी के खातों की जानकारी देने के प्रावधान को क़रार से हटा दिया गया। यह छूट 24 अगस्त, 2016 को दी गई थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली सुरक्षा मामलों की समिति ने इस पर मुहर लगाई थी। रक्षा मामलों की खरीद से जुड़ी परिषद यानी डिफ़ेन्स अक्वीज़िशम कौंसिल ने जो शर्तें लगाई थीं, इस क़रार में दसॉ एवियेशन और एमबीडीए को उससे छूट दी गई थीं। मामला सिर्फ़ यही नहीं है।क़रार के क्लॉज़ 22 और 23 में प्रावधान था कि रक्षा सौदों में किसी तरह के एजेंट या किसी एजेंसी की कोई भूमिका नहीं होगी और वे क़रार को किसी तरह से प्रभावित नहीं करेंगे। इसका उल्लंघन किए जाने पर आर्थिक दंड का प्रावधान भी था।
लेकिन फ्रांसीसी कंपनी इन प्रावधानों को क़रार से हटाने के लिए दबाव बना रही थीं। इन प्रावधानों को हटाने का प्रस्ताव क़रार में बाद में अलग से जोड़ा गया और संसदीय समिति के पास भेज दिया गया था।
सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से छिपाई जानकारी
केंद्र सरकार जब सुप्रीम कोर्ट गई और सौदे से जुड़े दस्तावेज़ वहाँ पेश किए तो उसने इन तथ्यों की जानकारी नहीं दी। उसने इन प्रावधानों को हटाने से जुड़े प्रस्ताव को क़रार के साथ जोड़ने की बात सर्वोच्च अदालत को नहीं बताई, इस पूरे मामले को छिपा ले गई।रफ़ाल सौदे में ऑफ़सेट कॉन्ट्रैक्ट को लेकर काफ़ी राजनीतिक विवाद हो चुका है। इसके तहत आयात करने वाला देश निर्यातक देश को यह कह सकता है कि आयात करने वाले देश की किसी कंपनी की मदद ले। इस मामले में दसॉ ने अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस एअरो इन्फ़्रास्ट्रक्चर को चुना था। इसके तहत रिलायंस और दूसरी ऑफ़सेट कंपनी को 30,000 करोड़ रुपये मिलने हैं। इसका भुगतान सात साल में पूरा होगा और भुगतान की पहली किस्त अक्टूबर 2019 में दी जाएगी। इसके तहत अधिक यानी 57 प्रतिशत रकम का भुगतान अंतिम दो साल में ही किया जाना था।
सौदे की बातचीत करने वाली भारतीय टीम (इंडियन निगोशिएसन टीम यानी आएनटी) ने अपनी रिपोर्ट में यह भी कहा है कि शुरू में फ्रांसीसी कंपनियाँ क़रार में ऑफ़सेट कंपनी की बात नहीं डालना चाहती थीं।
वे क़रार से इस बात को पूरी तरह गोल कर गईं। बाद में भारत ने कहा कि ‘मेक इन इंडिया’ के तहत भारतीय कंपनी को ऑफ़सेट पार्टनर बनाना होगा, उसके बाद ही क़रार में इसे डाला गया। आईएनटी की रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि फ्रांसीसी ऑफ़सेट पार्टनर के अलावा, विवाद होने पर मध्यस्थता की ज़रूरत, किसी एजेंट की भूमिका नहीं होने और कंपनी के खातों की जानकारी नहीं देने की बात भी क़रार में शामिल नहीं करना चाहती थीं।
सौदे पर बातचीत करने वाली भारतीय टीम का यह भी कहना है कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल के फ्रांसीसी कंंपनियों से समानान्तर बातचीत करने का नतीजा यह निकला कि भारत का पक्ष कमज़ोर हो गया। डोभाल ने जनवरी 2016 में पेरिस जाकर फ्रांसीसी कंपनियों से बात की थी।
पहले भारत इस पर ज़ोर दे रहा था कि फ्रांसीसी कंपनी के खातों की जानकारी उसे मिलनी चाहिए, लेकिन बाद में भारत फ्रांस के उस क़ानून को मानने पर राज़ी हो गया जिसमें यह कहा गया था कि किसी कंपनी के खातों की जानकारी नहीं दी जाएगी। सुरक्षा मामलों पर बनी कैबिनेट समिति ने 24 अगस्त 2016 को इस पर अपनी मुहर लगा दी।
‘द हिन्दू’ की ख़बर में यह भी कहा गया है कि ऑफ़सेट कॉन्ट्रैक्ट दोनों देशों की सरकारों के बीच हुए क़रार में नहीं था। इस क़रार पर जिस दिन यानी 23 सितंबर 2016, उसी दिन फ्रांसीसी कंपनियों से ऑफ़सेट क़रार भी हुआ था, पर दोनों क़रार अलग-अलग थे।
रिलायंस ही क्यों?
लेकिन सबसे अधिक विवाद जिस मुद्दे पर हुआ था, उस प्रश्न का जवाब आज तक नहीं मिला है और न ही निकट भविष्य में इस पर कोई खुलासा होने की संभावना है। वह सवाल है कि अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस को ही फ्रांसीसी कंपनियों ने ऑफ़सेट पार्टनर क्यों चुना। रिलायंस डिफेन्स लिमिटेड की स्थापना 28 मार्च 2015 को हुई, यानी रफ़ाल सौदे से दो हफ़्ते पहले। इसके बाद 24 अप्रैल 2015 को रिलायंस एअरोस्ट्रक्चर की स्थापना हुई, इस कंपनी में 99.98 प्रतिशत हिस्सेदारी रिलायंस डिफेन्स की है। अक्टूबर 2016 में दसॉ ने रिलायंस एअरोस्ट्रक्चर के साथ साझा कंपनी रिलायंस एअरोस्पेस बनाई। फरवरी 2017 में इसे रजिस्टर्ड किया गया और इसका नाम बदल कर दसॉ रिलायंस एअरोस्पेस लिमिटेड कर दिया गया।इस पर विवाद तब शुरू हुआ जब तत्कालीन फ्रांसीसी राष्ट्रपति फ्रास्वां ओलां ने कह दिया कि भारत सरकार ने उन्हें कहा था कि उन्हें उसकी सुझाई कंपनी को ही ऑफ़सेट पार्टनर बनाना होगा। ओलां ने कहा था कि जो पार्टनर उन्हें दिया गया, उसे मानने को वे मजबूर थे, इस मामले में उनकी कुछ नहीं चली।
बाद में फ्रांसीसी मीडिया ने ख़बर दी थी कि दरअसल रिलायंस का चुनाव इसलिए किया गया था ताकि रफ़ाल सौदा हासिल करने के बदले में पैसे का भुगतान किया जा सके। इसलिए इसी कंपनी को पार्टनर बनाना ज़रूरी था।
यह भविष्य में ही मालूम पड़ेगा कि रिलायंस ने ऑफ़सेट पार्टनर की किस भूमिका का कितना पालन किया।
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