विपक्षी राजनीतिक दलों के नेताओं के बाद अब चुनाव आयोग जैसी बेहद प्रतिष्ठित संस्था के आयुक्त के परिजन जाँच एजेंसियों के निशाने पर हैं। पिछले कुछ दिनों में पूर्व केंद्रीय मंत्री पी चिदंबरम से लेकर डीके शिवकुमार पर जाँच एजेंसियों ने शिकंजा कसा है। अंग्रेजी अख़बार द इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक़, अब चुनाव आयुक्त अशोक लवासा की पत्नी नोवेल सिंघल लवासा कर चोरी के आरोप में आयकर विभाग के रडार पर हैं। लवासा की पत्नी को विभाग की ओर से 10 कंपनियों में निदेशक होने के संबंध में दिये आयकर रिटर्न को लेकर नोटिस जारी किया गया है और इस बारे में विस्तृत जानकारी मांगी है। शुरुआती जांच के बाद विभाग ने उनसे अपनी निजी रकम के बारे में कुछ और दस्तावेज दिखाने के लिए कहा है।
बता दें कि यह वही लवासा हैं जिन्होंने लोकसभा चुनाव के दौरान मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा को चिट्ठी लिख कर इस बात पर असंतोष जताया था कि आचार संहिता के उल्लंघन के मामलों पर विचार करने वाली बैठकों में उनकी असहमतियों को दर्ज नहीं किया जाता है।
‘क्लीन चिट’ पर उठे थे सवाल
लवासा ने कहा था कि ‘अल्पसंख्यक विचार’ या ‘असहमति’ को दर्ज नहीं किए जाने की वजह से वह इन बैठकों से ख़ुद को दूर रखने पर मजबूर हैं। उस समय यह चिट्ठी सामने आने के बाद हड़कंप मच गया था क्योंकि चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन के मामलों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को लगातार ‘क्लीन चिट’ मिलने के बाद विपक्षी दलों ने चुनाव आयोग को निशाने पर ले लिया था।आयोग के इन फ़ैसलों की काफ़ी आलोचना हुई थी। यह बात भी चर्चा में रही थी कि मोदी और शाह को ‘क्लीन चिट’ चुनाव आयुक्तों की आम सहमति से नहीं दी गई थी और एक चुनाव आयुक्त की आपत्तियों को दरकिनार करते हुए ऐसा किया गया था।
अंग्रेज़ी अख़बार हिन्दुस्तान टाइम्स ने ख़बर प्रकाशित की थी कि लवासा ने इसके बाद ही चिट्ठी लिखी थी और सवाल उठाया था कि आचार संहिता के उल्लंघन के मामले में उनकी असहमति को क्यों नहीं शामिल किया गया। लवासा चाहते थे कि मोदी को चिट्ठी लिख कर उनका जवाब माँगा जाए और उसके बाद ही कोई फ़ैसला लिया जाए। पर उनकी सलाह को दरकिनार कर सीधे फ़ैसला ले लिया गया और मोदी को निर्दोष क़रार दिया गया।
बाद में ऐसी ख़बरें आई थीं कि चुनाव आयोग ने कहा था कि प्रधानमंत्री मोदी के मामले में दिया गया फ़ैसला अर्द्ध-न्यायिक फ़ैसला नहीं था, इसलिए उस फ़ैसले में असहमति को शामिल नहीं किया गया। लेकिन जानकारों के मुताबिक़, आचार संहिता उल्लंघन के मामलों में असहमति को शामिल किया जाना चाहिए।
मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा ने एक बयान जारी कर लवासा का नाम लिए बिना उनकी आलोचना की थी और कहा था कि सारे चुनाव आयुक्त एक जैसे नहीं होते हैं, वे एक-दूसरे के क्लोन नहीं होते और न ही एक टेम्प्लेट पर काम करते हैं। उनके अलग-अलग मत हो सकते हैं, होते हैं और होने भी चाहिए। तब यह सवाल उठा था कि क्या इस तरह किसी चुनाव आयुक्त की राय को दरकिनार किया जा सकता है?
आरटीआई से जान का ख़तरा!
इसके बाद हैरानी तब हुई थी जब इंडिया टुडे समूह की ओर से आरटीआई के तहत माँगी गई जानकारी को लेकर चुनाव आयोग ने बेहद अजीब जवाब दिया था। समूह की ओर से चुनाव आयोग से पूछा गया था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह द्वारा दिए गए भाषणों को लेकर मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा, चुनाव आयुक्त सुशील चंद्रा और चुनाव आयुक्त अशोक लवासा की क्या राय थी, इस बारे में जानकारी दें। लेकिन आयोग ने सूचना के अधिकार अधिनियम 2005 के नियम 8(1)(g) का हवाला देते हुए कहा था कि इस सूचना को नहीं दिया जा सकता है क्योंकि इस सूचना को देने से किसी व्यक्ति की जिंदगी को या उसकी शारीरिक सुरक्षा या उसकी पहचान को ख़तरा हो सकता है।
तब सवाल यह उठा था कि आख़िर आरटीआई के तहत माँगी गई इस जानकारी से किसकी जान को या उसकी सुरक्षा को ख़तरा हो सकता है और देश की बेहद ताक़तवर और प्रतिष्ठित संस्था की ओर से क्या इस तरह के जवाब की उम्मीद की जानी चाहिए? और क्या यह ख़तरा चुनाव आयुक्त अशोक लवासा को है। क्योंकि लवासा ने ही मोदी और शाह को क्लीन चिट देने को लेकर सवाल उठाये थे।
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