नोटबंदी के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ 2 जनवरी 2023 को अपना फैसला सुनाने वाला है। इंडियन एक्सप्रेस ने आज 28 दिसंबर को अपनी एक विशेष रिपोर्ट में दावा किया है कि केंद्र सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक ने सुप्रीम कोर्ट से कई तथ्य छिपा लिए। उसने जो एफिडेविट सुप्रीम कोर्ट में जमा कराए, उनमें पूरे तथ्य नोटबंदी के बारे में नहीं बताए।
नोटबंदी पर दाखिल कई याचिकाओं के जवाब में आरबीआई और केंद्र सरकार ने बस एक बात पर ज्यादा जोर दिया कि पूरी तरह सोच विचार करने के बाद ही इस कदम को उठाया गया। 8 नवंबर 2016 को प्रधानमंत्री मोदी ने नोटबंदी की घोषणा टीवी पर अपने राष्ट्रीय संबोधन में की थी। सरकार और आरबीआई ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि फरवरी 2016 से ही इस पर बातचीत शुरू हो गई थी। नौ महीने इस पर बातचीत होने के बाद आरबीआई ने इसकी अनुमति दी। इस संबंध में दाखिल हलफनामों में यह बात कही गई है।
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक आरबीआई और सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपने हलफनामे में यह नहीं बताया कि आरबीआई की अनुमति एक प्रोसेस (प्रक्रिया) था , यह एक जरूरत थी, जिसे पूरा किया गया। यानी आसान शब्दों में अगर कहें तो यह कि आरबीआई से अनुमति लेना प्रक्रिया का एक हिस्सा था। उसे बस सूचना दी गई कि 8 नवंबर 2016 को ऐसी घोषणा होने जा रही है। अगर उस समय के घटनाक्रम देखे जाएं तो केंद्र सरकार लगातार आरबीआई की आलोचना खुलकर कर रही थी।
अपने 8 नवंबर 2016 के भाषण में पीएम मोदी ने कहा था कि देश में जितना ज्यादा कैश सर्कुलेशन में है, उसका सीधा संबंध भ्रष्टाचार से है। हालांकि जीडीपी के प्रतिशत के मुताबिक ही कैश का सर्कुलेशन होना चाहिए। उस समय 2016 तक पिछले 5 वर्षों में कैश का फ्लो और जीडीपी प्रतिशत 11 फीसदी के आसपास या उससे थोड़ा ज्यादा था। सरकार ने अमेरिका का हवाला देते हुए कहा था कि वहां यह 7.7 फीसदी के लेवल पर था और भारत में 11.5 फीसदी के लेवल पर था। इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को यह नहीं बताया कि नोटबंदी के तीन साल बाद कैश सर्कुलेशन और जीडीपी फिर से उसी लेवल पर आ गए।
आरबीआई की वार्षिक रिपोर्ट 2019-20 में कहा गया था कि करेंसी और जीडीपी अनुपात 2019-20 में 11.3 फीसदी से बढ़कर नोटबंदी से पहले के लेवल 12.0 फीसदी पर आ गया। फिर 2021-22 में यह बढ़कर 14.4 फीसदी हो गया। अब सरकार को अमेरिका के कैश सर्कुलेशन और जीडीपी का ध्यान नहीं आया।
सरकार और आरबीआई ने सुप्रीम कोर्ट को 500 और 1000 रुपयों के नोटों के चलन पर दिए गए आंकड़ों के जरिए भी अंधेरे में रखा। सरकार ने कहा था कि 500 और एक हजार के नोटों का चलन इतना बढ़ गया है कि इससे ब्लैक मनी बढ़ रही है। 2016 से पहले के पांच वर्षों का हवाला देते हुए सुप्रीम कोर्ट को बताया गया कि 500 रुपये के नोटों का चलन 76.38 फीसदी और 1000 रुपये के नोटों का चलन 108.98 फीसदी तक पहुंच गया था। लेकिन अगर उसी समय के आर्थिक सर्वेक्षण के डेटा का अध्ययन किया जाए तो पता चलता है कि 2011-12 और 2015-16 तक अर्थ व्यवस्था का आकार 30 फीसदी तक घट गया था।
सरकार और आरबीआई की यह बात विरोधाभासी है कि कैश सर्कुलेशन और जीडीपी बढ़ रहा था और अर्थ व्यवस्था घट रही थी। आरबीआई के सेंट्रल बोर्ड ने स्पष्ट कहा कि आरबीआई के विश्लेषण में खामी है। हकीकत यह है कि अर्थव्यवस्था की विकास दर वास्तविक है और उसके मुकाबले कैश सर्कुलेश में बढ़ोतरी नाममात्र की है। खैर, यहां यह बताना जरूरी है कि सरकार ने उन 500 और 1000 रुपये के पुराने नोटों की जो करेंसी पेश की, वो फिर से 500 और 2000 के नोट थे। बहुत सारे लोगों ने अपने पुराने नोट के बदले दो हजार के नोट में ब्लैकमनी कन्वर्ट कर ली। यह सब सरकार और आरबीआई के सामने हुआ।
आरबीआई और सरकार ने पांच सौ और एक हजार के पुराने नोटों की वजह से ब्लैक मनी के चलन की बात कही थी लेकिन आरबीआई के केंद्रीय बोर्ड का कहना है कि लोग कैश के रूप में ब्लैक मनी नहीं रखते, बल्कि गोल्ड और अचल संपत्ति के रूप में ब्लैक मनी होती है। सरकार की नोटबंदी का असर गोल्ड और अचल संपत्तियों पर जरा भी नहीं पड़ा।
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