धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में मंदिर- मसजिद जैसे उपासना स्थलों के निर्माण पर सरकार को पैसा खर्च करना चाहिए या नहीं? करीब 70 साल पहले गुजरात स्थित सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार के प्रस्ताव पर यह सवाल खड़ा हुआ था। पूर्व केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार के इस पर सवाल करने से नई बहस की शुरुआत हो गई है।
उन्होंने लखनऊ में अपनी पार्टी के राज्य स्तरीय अधिवेशन में यह सवाल उठाया कि जब सरकार ‘राम मंदिर निर्माण' के लिए ट्रस्ट का गठन कर उसे आर्थिक मदद कर सकती है तो मसजिद के लिए ट्रस्ट का गठन क्यों नहीं कर रही? पवार ने कहा, ‘बीजेपी लोगों को सांप्रदायिक आधार पर बाँट रही है।’
सरकार ने बनाया मंदिर ट्र्स्ट
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद तय समय सीमा से पहले सरकार ने राम मंदिर ट्रस्ट का गठन कर दिया और उसके पदाधिकारी बना दिए गए, इसकी पहली बैठक हो चुकी है। इस ट्रस्ट और उसके पदाधिकारियों को लेकर संतों, अखाड़ों और शंकराचार्यों के बीच रस्साकसी चल रही है।
सरकार कितनी तटस्थ रहती है या उसकी भूमिका क्या है, यह बहुत महत्वपूर्ण है। जब हम देश को एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र मानते हैं, तो मंदिर -मसजिद या उपासना स्थल बनाने जैसे कार्यों से सरकारों को दूर रहना चाहिए।
साल 2017 में जब गुजरात के विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी सोमनाथ मंदिर में दर्शन के लिए गए तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने निजी ट्विटर हैंडल से उन पर हमला बोला था।
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‘यदि सरदार पटेल न रहे होते तो आज यह मंदिर नहीं रहता, आज कुछ लोगों को यह मंदिर याद आ रहा है, पर कुछ लोग इतिहास भूल गए हैं। उनके परिवार के सदस्य देश के पहले प्रधानमंत्री इस मंदिर को बनाने के विचार के ख़िलाफ़ थे। जब राजेंद्र प्रसाद इस मंदिर के उद्गाटन के लिए आये तो उन्होंने अपनी अप्रसन्नता जाहिर की थी।’
नरेंद्र मोेदी, प्रधानमंत्री
क्या है सोमनाथ का मामला?
सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार को लेकर जो बातें आधिकारिक तौर पर उपलब्ध हैं, उनके अनुसार आज़ादी से पहले जूनागढ़ रियासत के नवाब ने 1947 में पाकिस्तान के साथ जाने का फ़ैसला किया था। भारत ने उनका यह फ़ैसला मानने से इनकार कर दिया और उसे भारत में मिला लिया गया। भारत के तत्कालीन उप प्रधानमंत्री सरदार पटेल 12 नवंबर, 1947 को जूनागढ़ पहुँचे थे और उन्होंने भारतीय सेना को इस क्षेत्र को स्थिर बनाने के निर्देश दिए। उन्होंने साथ ही सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण का आदेश भी दिया था।
सोमनाथ पर गाँधी के विचार
सरदार पटेल, के. एम. मुंशी और कांग्रेस के दूसरे नेता इस प्रस्ताव के साथ महात्मा गाँधी के पास गए थे और ऐसा बताया जाता है कि महात्मा ने इस फ़ैसले का स्वागत किया था।
महात्मा गाँधी ने सुझाव भी दिया था कि सोमनाथ मंदिर के निर्माण के खर्च में लगने वाला पैसा आम जनता से दान के रूप में इकट्ठा किया जाना चाहिए, ना कि सरकारी ख़ज़ाने से दिया जाना चाहिए।
इस घटना के कुछ समय बाद ही गाँधी की हत्या हो गई और सरदार पटेल भी नहीं रहे। मंदिर को दुरुस्त करने की ज़िम्मेदारी के. एम. मुंशी पर आ गई जो नेहरू सरकार में खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री थे। मुंशी के निमंत्रण पर मई, 1951 में भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद सोमनाथ मंदिर गए थे। उन्होंने कहा था, ‘सोमनाथ मंदिर इस बात का परिचायक है कि पुनर्निर्माण की ताक़त हमेशा तबाही की ताक़त से ज़्यादा होती है।’
नेहरू ने राजेंद्र प्रसाद को सोमनाथ ना जाने की सलाह दी थी। उनका मानना था कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और राष्ट्रपति के किसी मंदिर के कार्यक्रम में जाने से ग़लत संकेत जाएगा। राष्ट्रपति ने उनकी राय नहीं मानी थी।
'मंदिर को सरकारी पैसे न मिलें'
नेहरू ने ख़ुद को सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार और पुनर्निर्माण से अलग रखा था और सौराष्ट्र के मुख्यमंत्री को पत्र तक लिखा था कि सोमनाथ मंदिर परियोजना के लिए सरकारी फ़ंड का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए।
आज नेहरू नहीं है और देश में लोकतंत्र है, लिहाज़ा उनके विचारों से सहमत और असहमत होने की स्वतंत्रता सभी को है। ऐसे में शरद पवार यह सवाल खड़ा करते हैं कि मंदिर को ट्रस्ट बनाकर पैसा दिया जा रहा है तो मसजिद को क्यों नहीं? तो उस पर चर्चाएँ तो होगी ही।
लोकतंत्र में इस तरह के निर्माण को लेकर जो चिंता नेहरू ने उस दौर में जताई थी उसको हमारे देश के राजनेता कभी का धुआँ में उड़ा चुके हैं। देश में बड़े पैमाने पर मूर्तियाँ बनाने की होड़ मची हुई है। भारत जैसे देश में हजारों करोड़ रुपया इस पर खर्च किया जा रहा है जहाँ शिक्षा और स्वास्थ्य की मूलभूत सुविधाएँ आज़ादी के सात दशक बाद भी हमारे देश की सरकारें उपलब्ध नहीं करा पायी हैं।
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