कोरोना कई मरीज़ों के लिए संक्रमण के दौरान ही नहीं, ठीक होने के बाद भी उतना ही पीड़ादायक साबित हो रहा है।
हाल ही में एक रिपोर्ट आई है कि अमेरिका में कोरोना संक्रमित होने के 3 महीने के अंदर हर पाँच में से एक को मानसिक बीमारी हुई। विज्ञान की प्रतिष्ठित पत्रिका लांसेट साइकिएट्री में यूनिवर्सिटी ऑफ़ ऑक्सफ़ोर्ड की रिपोर्ट छपी है जिसके अनुसार 18.1 फ़ीसदी मरीज़ों में ऐसी दिक्कतें हैं। चीन में भी चीन के बड़े क़ारोबारी रहे जैक मा के फ़ाउंडेशन ने मानसिक बीमारियों पर एक रिपोर्ट तैयार करवाई थी। 48 फ़ीसदी मरीजों में ऐसी समस्याएँ दिखी थीं। उनमें अकेलापन, बेबसी, डिप्रेशन, अत्यधिक चिंता, फ़ोबिया यानी डर, चिड़चिड़ापन, नींद नहीं आना और पैनिक अटैक की भी समस्याएँ आईं। कोरोना के गंभीर मरीजों में तो बेहोश होने जैसी दिक्कतें भी आईं।
यह तो स्थिति है मानसिक बीमारियों के प्रति सचेत अमेरिका और चीन जैसे देशों में। भारत में हालात कैसे हैं? भारत में न तो वैसी कोई रिपोर्ट आई है और न ही यहाँ मानसिक बीमारियों के प्रति लोग जागरूक हैं। लेकिन ऐसी रिपोर्टें ज़रूर आ रही हैं कि डॉक्टरों के पास मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी दिक्कतों वाले मरीज़ों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। जब तब ऐसी रिपोर्टें सामने आ रही हैं।
रिपोर्टों के अनुसार डॉक्टरों का कहना है कि कोरोना से ठीक हुए मरीज़ों में थकान, सिरदर्द, अनिद्रा, साँस की तकलीफ, शरीर में दर्द, भूख न लगना, गले में खराश और दस्त की शिकायत तो आम है, लेकिन इसमें अब मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े मामले भी आ रहे हैं। अब इस बात के प्रमाण बढ़ रहे हैं कि कोरोना एंग्जाइटी, अवसाद, मनोविकार, अनिद्रा और याददाश्त के कमज़ोर होने का कारण बन सकता है।
जून में ही एक रिपोर्ट आई थी। कोरोना वायरस को देखते हुए मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं को हल करने के लिए महाराष्ट्र में गठित 'बीएमसी- एम पावर वन ऑन वन' हेल्पलाइन पर दो महीने में 45 हज़ार लोगों ने संपर्क किया था। इसमें से 52 फ़ीसदी तो ऐसे लोग थे जो लॉकडाउन के बाद की स्थिति को लेकर चिंतित थे।
कोरोना वायरस के बाद मानसिक तनाव की ख़बरें आ रही हैं। कई जगह से ख़बरें आईं कि कोरोना के डर से लोगों ने आत्महत्या कर ली।
दिल्ली में सर्दी-जुकाम के बाद एक युवक ने सिर्फ़ कोरोना के संदेह में ही हॉस्पिटल की बिल्डिंग से छलांग लगा दी थी। ऐसी स्थिति दुनिया भर में आई है। इसको लेकर उस चीन में व्यापक शोध भी हुआ जिसके वुहान शहर में कोरोना का पहला मामला आया था।
'द इंडियन एक्सप्रेस' की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार, मुंबई के जसलोक अस्पताल में मेडिकल रिसर्च के निदेशक और कोरोना पर किताब लिखने वाले डॉ. राजेश पारिख कहते हैं, 'हम तीन श्रेणियों के रोगियों को देख रहे हैं: पहला, जहाँ कोरोनो वायरस सीधे मस्तिष्क को प्रभावित करता है; दूसरा, मौजूदा मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं वाले लोग; और तीसरा, जहाँ मानसिक स्वास्थ्य की दिक्कतें संक्रमण की जटिलताओं के कारण हैं।'
पारिख कहते हैं कि मौजूदा मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं वाले रोगियों में पहले से ही इम्यूनिटी यानी प्रतिरक्षा कम होती है। एक बार संक्रमित होने पर, उनकी बीमारी और बढ़ जाती है। अगर वे कोरोना की वजह से अपने परिवार के किसी सदस्य को खो देते हैं तो मरीज इसके लिए भी ख़ुद को दोष देने लगता है।
मधुकर गौडे ऐसी ही बीमारी से गुजर रहे हैं। वह और 60 वर्षीय पत्नी मधुमति कोरोना की वजह से अस्पताल में भर्ती थे। इलाज के दौरान मधुमति की मौत हो गई। रिपोर्ट के अनुसार मधुकर के रिश्तेदार अमित अपराज कहते हैं, 'तब से ही वह (मधुकर) सो नहीं रहे हैं। जब हम बात कर रहे होते हैं तब वह ध्यान नहीं देते हैं और न ही ज़्यादा बात करते हैं। ऐसा लगता है जैसे उनका मन कहीं और है। वह कहते हैं कि अगर वह आइसोलेशन में नहीं होते तो वह अपनी पत्नी को बचा लेते। वह अब एंग्जाइटी की दवा ले रहे हैं।'
रिपोर्ट के अनुसार, पारिख ने अपनी किताब में 35 वर्षीय एक फिटनेस ट्रेनर के बारे में लिखा है। ट्रेनर को मांसपेशियों में कमजोरी हो गई थी और चलने में कठिनाई थी। जिस व्यक्ति का जीवन फिट रहने के इर्द-गिर्द घूमता है, उसकी कमजोर मांसपेशियाँ अब अवसाद, भय और बुरे सपने का कारण बन गईं।
'द इंडियन एक्सप्रेस' की रिपोर्ट के अनुसार, कोरोना मरीज़ों के मानसिक स्वास्थ्य के संभावित संकेतों के बारे में सलाह देने वाले फोर्टिस अस्पताल के डॉ. राहुल पंडित कहते हैं कि वह ख़ुद ही इसके शिकार हो गए थे। उन्होंने कहा, 'मैं सो भी नहीं सका, मैंने हर समय कोरोना के बारे में सोचा, लगातार थकान थी। ठीक होने के बाद ही मुझे यह एहसास हुआ कि ये न्यूरो-मनोरोग के लक्षण थे।'
1400 से ज़्यादा कोरोना मरीज़ों का इलाज करने वाले 62 वर्षीय डॉ. जलिल पार्कर कोरोना संक्रमित हो गए थे। वह कहते हैं कि पहले उन्होंने वायरस को हल्के में लिया था, लेकिन बाद में पता चला कि इसका असर बाद में भी रहता है। वह कहते हैं कि वह अक्सर यह भूल जाते थे कि वह क्या कर रहे थे। इसके अलावा उन्हें एक अजीब 'डर' लगा रहता था।
वैसे, अमेरिका में कोरोना मरीज़ों के बारे में एक रिपोर्ट आई थी कि जिन गंभीर कोरोना मरीज़ों को आईसीयू में रहना पड़ता है उनका मानसिक स्वास्थ्य ज़्यादा ही प्रभावित होता है और उन्हें अक्सर डरावने सपने आते हैं। जिन मरीज़ों को आईसीयू की ज़रूरत नहीं पड़ती है उन्हें उतनी गंभीर मानसिक परेशानियाँ नहीं होती हैं, लेकिन इसका असर होता ज़रूर है।
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