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‘रंग’ समीक्षा: सांप्रदायिक माहौल में भी लोगों को जोड़ सकता है तिरंगा!

कई बार यह महसूस होता है कि हिंदी की फ़ीचर फ़िल्मों की तुलना में हिंदी की शॉर्ट फ़िल्में जीवन की सच्चाई को ज़्यादा नज़दीक से दिखाती हैं। सिर्फ़ इतना ही नहीं, बल्कि वे अपने सामाजिक सरोकार को भी बड़ी ज़िम्मेदारी के साथ निभाती हैं और वे शुष्क नहीं होतीं, रचनात्मकता से भरपूर होती हैं। बिल्कुल ताज़ा तरीन फ़िल्म ‘रंग’ ऐसी ही एक महत्वपूर्ण फ़िल्म है जो प्रासंगिकता और रचनात्मकता को साथ साथ लेकर चलती है।

‘रंग’ ने समाज में व्याप्त सांप्रदायिक माहौल का बहुत सीधा और सटीक सा जवाब दिया है कि जब लोग रंगों में [हिन्दू और मुसलमान में] बँटे हों तो उन्हें सिर्फ़ तिरंगा ही जोड़ सकता है और जिसके लिए सबसे उचित स्थान है – स्कूल।

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अपनी मासूम सी कोशिश में लेखक और निर्देशक ने दर्शकों को बताने की कोशिश की है कि हमें अपने अपने सामाजिक दायरे से निकल कर शिक्षा प्राप्त करने के लिए कदम बढ़ाना चाहिए क्योंकि सांप्रदायिकता अशिक्षा और सामाजिक दूरी के कारण पैदा होती है जबकि स्कूल सामाजिक निकटता बढ़ाने और सामुदायिक संपर्क बढ़ाने की सबसे अच्छी जगह है। इसलिए हमें अपने बच्चों को किसी धार्मिक आयोजनों में भेजने के बजाए स्कूल भेजना चाहिए जहाँ उन्हें सद्भाव की शिक्षा मिलती है। 
कथा और पटकथा के स्तर पर फ़िल्म बहुत कसी हुई है। फ़िल्म शुरू होती है सांप्रदायिक माहौल में प्रशासन द्वारा कर्फ़्यू के हटाने से। रोज़ खाने कमाने वाला मुख्य पात्र जो साईकिल मरम्मत करके दो पैसे कमाता है, अभी भी माहौल को शंका से देखता है और बच बच कर चलने की कोशिश करता है। ऐसे में जब उसका अबोध बेटा स्कूल जाने की ज़िद पकड़ लेता है तो वह उसे समझा नहीं पाता कि इस माहौल में उसका स्कूल जाना ठीक नहीं है। आख़िर वह कैसे समझाए। वह नहीं चाहता कि ऐसा माहौल उसके बच्चे पर थोड़ा सा भी असर करे। 
communal plot based short film rang review - Satya Hindi

तब वह उसे लेकर स्कूल चलता है और दर्शकों को पहला झटका तब लगता है जब वह समुदाय विशेष के गाँव से गुज़रता है, और फिर दूसरे समुदाय विशेष के गाँव से गुज़रता है। इस जगह पटकथा लेखक ने ‘रंग’ को लेकर जो ट्विस्ट एंड टर्न का नाटकीय खेल दिखाया है वह बहुत प्रासंगिक है। मुख्य पात्र दोनों समुदायों को रंगों के खेल से चकमा देते हुए अंततः जब स्कूल पहुँचता है तो बच्चे के हाथ में दो अलग अलग रंग नहीं बल्कि तीन रंगों का तिरंगा पकड़ाता है। बच्चा हमारे आने वाले कल का प्रतिनिधित्व करते हुए हाथ में तिरंगा लिए बढ़ता है जहाँ गणतंत्र दिवस का झंडोत्तोलन और राष्ट्रगान हो रहा होता है।

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इसका कैमरा वर्क (पी पी सी चक्रवर्ती) बहुत सुंदर है। गाँव, विशेषकर घर और खेतों के सुंदर लोकेशन को कैमरे में बहुत ही सुंदर तरीके से कैप्चर किया गया है। पूरे दृश्यांकन में उतनी ही मासूमियत झलकती है जितनी कहानी के किरदारों में।

अभिनेता मानवेन्द्र त्रिपाठी, अनुरेखा भगत और कामरान शाह ने बड़े सलीके से अपने अपने पात्रों का निर्वाह किया है।       

इस फ़िल्म के लिए निर्माता – निर्देशक सुनील पाल और लेखक जीतेंद्र नाथ जीतू बधाई के पात्र हैं। 

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फरीद खान
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