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दिल को क्यों छू लेती है ‘चमकीला’?

एक बार 'दिनमान' पत्रिका के लिए (1983 ) मैं दादा कोंडके का इंटरव्यू कर रहा था। मैंने सवाल किया -''आप की फिल्मों में तमाम डायलॉग्स दो अर्थ वाले क्यों होते हैं? दादा कोंडके का जवाब था -"किसने कहा कि दो अर्थ वाले होते हैं? मेरे सभी डायलॉग का अर्थ एक ही होता है। दूसरा अर्थ आपके दिमाग में है।"

मैंने उनसे दूसरा सवाल किया कि आपकी हीरोइन भद्दे इशारे करती रहती है, क्यों? इस पर दादा कोंडके ने कहा कि मेरी हीरोइन नौ वार (आम मराठी स्त्रियों जैसी 9 गज) की साड़ी पहनती है और कभी कोई अश्लील इशारे नहीं करती। दादा कोंडके का साफ-साफ कहना था कि अश्लीलता तो आपके दिमाग में है। बेशक, दादा कोंडके की बातें अपनी जगह सही होंगी। लेकिन उनकी लोकप्रियता में उनकी फिल्मों के संवादों का बड़ा योगदान रहा है। दादा कोंडके कोली समुदाय के थे, जो दलित मछुआरों में गिने जाते हैं।

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अब यही बात अमर सिंह चमकीला के बारे में भी कही जा सकती है। उन्होंने अनेक तरह के गाने गए और धार्मिक गाने भी गए, लेकिन उन्हें धार्मिक गानों में वह सफलता नहीं मिली जो लोक संगीत या लोक गीतों के गायन में मिली थी। उनके गानों के विषय आम आदमी से जुड़े होते थे। उनके गानों के बोलों में वे भगवान को याद करते थे।  जर्दे की बातें होती थीं, गाड़ी की बात होती थी, लड़कियों की बात होती थी। लड़कियों को कंधा मारने और आंख मारने की बातें होती थी। मूंछों पर ताव देने की बातें होती थीं और अफीम की गोली अंदर जैसी बातें भी होती थी। और वे तमाम बातें होती थीं जिन्हें कई लोग अश्लील करार देते हैं। चमकीला ने लोगों की बातों में आकर धार्मिक गाने भी गाने शुरू किया, लेकिन धार्मिक गानों में उन्हें वह प्रतिसाद नहीं मिला। लोग कहते हैं कि उन्होंने पंजाबी मर्दों के लिए गर्म मिजाज गाने लिखे, गाये और संगीतमय प्रस्तुतियां दीं। कहते हैं कि इतने शोज़ किया करते थे कि कोई दिन खाली नहीं जाता था। कई बार तो दो दो शो भी करते थे।  

इम्तियाज़ अली की फिल्म अमर सिंह चमकीला एक बायोपिक है जिसमें चमकीला को अकारण हीरो बनाने की कोशिश नहीं की गई है। एक दलित लोक गायक और संगीतकार के जीवन को जस का तस धरा गया है। न तो दलित होने के कारण अतिरिक्त संवेदना दिखाई गई है और न ही चमकीला के सही या गलत फैसलों को लेकर स्पष्टीकरण देने कोशिश की गई।

धनीराम उर्फ अमर सिंह चमकीला के गानों को लेकर समाज में बहुत सारी बातें होती रहीं। लेकिन विवाहेत्तर संबंधों को लेकर उनकी काफी आलोचना की गई। वे दलित थे और उन्होंने पहली पत्नी तथा बच्चों के होते हुए उनकी जानकारी छुपाकर तथाकथित उच्च वर्ग की दूसरी लड़की से शादी की थी। वह भी गायिका थीं।
इस शादी से कई लोग नाराज थे। यह भी शक है कि चमकीला और उनकी पत्नी अमरजोत की हत्या तथाकथित उच्च जाति के लोगों द्वारा करवाई गई थी।

इम्तियाज अली की फिल्म का एक डायलॉग है -''चमार हूं, पर भूखा नहीं मरूंगा।''  जाहिर है उन्हें उनकी जाति को लेकर नीचा दिखाने की कोशिश की गई होगी। अमर सिंह चमकीला की जिंदगी में बहुत सारे संघर्ष आए। फिल्म में भी गए हैं। एक और डायलॉग है -''गोली चलाना बंदूक वालों का काम है। वे चलाएंगे। हमारा काम तो गाने-बजाने का है। हमारा काम है गीत गाना तो हम गीत गाएंगे।  वह हमारे लिए नहीं रुकेंगे। तब तक स्टेज पर हैं और जीते जी मर जाएं, इससे तो अच्छा है मर के जिंदा रहें।''

 

इस फिल्म में जब चमकीला की दूसरी पत्नी परमजोत (परिणीति चोपड़ा) की एंट्री होती है, तब उनके हाथ में नानक सिंह चर्चित किताब 'चिट्टा लहू' होती है। यह किताब 1932 में प्रकाशित हुई थी और इसमें समाज के हालात का जीवंत वर्णन है। फिल्म के शुरू में ही जिस तरह चमकीला और अमरजोत की हत्या दिखाई गई और मोटर साइकिल पर आये हत्यारों के गायब होने के दृश्य हैं, वे लोमहर्षक हैं। इसके बाद पूरी फिल्म फ्लैशबैक में चलती है। अरिजीत सिंह ने इरशाद कामिल के गीत को मधुर आवाज़ दी है।

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यह फिल्म चमकीला पर बायोपिक है। चमकीला ने दो शादियां की थीं। उनकी पहली पत्नी से उनके चार बच्चे थे, जिनमें से दो नहीं रहे।  उन्होंने दूसरी शादी की तो अपनी पहली पत्नी के बारे में दूसरी को नहीं बताया था। यह बात भी इस फिल्म में दिखाई गई है। चमकीला में भी मानवीय कमियां और खूबियां रही होंगी। चमकीला अपने जीवन में अपने फायदे के सभी फैसले करता है और मौका आने पर तथाकथित नैतिकता नहीं दिखाता। आज से करीब पांच दशक पहले किसी ग्रामीण दलित लड़के का गीत-संगीत की दुनिया में शिखर पर पहुंच जाना कोई साधारण बात नहीं थी। चमकीला के संघर्षों को भी  दिखाया गया है, लेकिन वह प्रतीकात्मक है।  

इस फिल्म में जगह जगह लालटेन और मशालें जलती दिखाई गई हैं। दिलजीत दोसांझ और परिणीति चोपड़ा ने अमरजोत और चमकीला को बेहतरीन तरीके से निभाया। इम्तियाज अली ने चमकीला को भगवान बनाने की कोशिश नहीं की। फिल्म में एक दृश्य में चमकीला अपनी पहली पत्नी को नोटों की गड्डी थमाकर चुपचाप मुंह फेर कर निकल जाता है, कई दर्शकों को वह सीन अखरा होगा।

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चमकीला की हत्या को 36 साल हो गए और अभी तक उनकी हत्या के अपराधी पकड़े नहीं गए। पुलिस ने जांच की फाइल को दाखिल दफ्तर कर दिया है। जाहिर है अब पुलिस और प्रशासन को चमकीला की कोई जरूरत नहीं है। फिल्म का सबसे अच्छा पहलू दिलजीत दोसांझ और परिणीति चोपड़ा की जोड़ी है। इम्तियाज़ अली ने इस फिल्म में दर्शकों को अस्सी के दशक की मोरल पुलिसिंग, जातिगत भेदभाव, सामाजिक बदमाश‍ियों और पूर्वाग्रह में डूबी एक त्रासदी की गहराई बताई है। कविता की तरह बनी यह फिल्म कभी कभी रंगमंच जैसी लगती है, जिसमें राजनीति की उत्तेजना, साहस, ज्वलंत मुद्दे और समाज की त्रासदी का वर्णन है। एआर रहमान का पार्श्व संगीत दिलफरेब है।

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डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी
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