बिहार में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के बीच गठबंधन को लेकर खींचतान की ख़बरें आती रहती हैं। इस बीच राज्य में हुए उपचुनाव में विधानसभा की 5 सीटों में से सिर्फ़ 1 सीट पर जेडीयू प्रत्याशी जीत हासिल कर सका और वह भी महज 5,000 वोटों से।
लोकसभा चुनाव के परिणाम के बाद से ही दोनों दलों में खींचतान शुरू हो गई थी। प्रचंड बहुमत से सत्ता में वापसी करने वाले नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल में जेडीयू के सांसद शामिल नहीं किए गए। नीतीश ने तब मंत्रिमंडल में उचित प्रतिनिधित्व न मिलने की बात कही थी। उसके बाद नीतीश कुमार ने अपने मंत्रिमंडल का विस्तार किया तो उन्होंने बीजेपी के कोटे से एक भी मंत्री नहीं बनाया।
उपचुनावों के पहले भी दोनों दलों के बीच खींचतान बनी रही। बीजेपी के बिहार के कुछ नेता नीतीश कुमार के नेतृत्व पर न सिर्फ़ सवाल उठाते रहे हैं, बल्कि उन्होंने यह विचार भी व्यक्त किया है कि बीजेपी को अगला चुनाव जेडीयू से अलग होकर लड़ना चाहिए। हालांकि उपचुनाव से ठीक पहले बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने एक चैनल को दिए गए साक्षात्कार में नीतीश कुमार का पक्ष लेते हुए कहा कि बिहार का अगला विधानसभा चुनाव नीतीश के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। शाह ने कहा कि दोनों दलो के बीच कोई खींचतान नहीं है और यह गठबंधन अटल है।
शाह के बयान के बावजूद उपचुनाव में बीजेपी-जेडीयू गठबंधन की स्थिति अच्छी नहीं रही। किशनगंज में बीजेपी की स्वीटी सिंह को 60, 258 जबकि ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के कमरुल होदा को 70,469 वोट मिले हैं। सिमरी बख्तियारपुर में जेडीयू के अरुण कुमार को 55,927 वोट जबकि आरजेडी के ज़फर आलम को 71,425 वोट मिले हैं।
दरौंदा में निर्दलीय प्रत्याशी करनजीत सिंह को 51,207 वोट, जेडीयू के अजय कुमार सिंह को 23,895 वोट, आरजेडी के उमेश कुमार सिंह को 20,891 वोट मिले। नाथनगर में आरजेडी की राबिया खातून को 50,824 वोट जबकि जेडीयू के लक्ष्मीकांत मंडल को 55,936 वोट मिले। बेलहर में आरजेडी के रामदेव यादव को 76,339 वोट और जेडीयू के लालदारी यादव को 57,103 वोट मिले हैं।
इस तरह से सत्तासीन गठजोड़ 5 में से सिर्फ एक विधानसभा क्षेत्र में मामूली अंतर से जीतने में कामयाब हो सका है। वहीं, विपक्षी आरजेडी ने भारी अंतर से जीत दर्ज की है। हालांकि दरौंदा के विजयी निर्दलीय प्रत्याशी बीजेपी नेता हैं और उन्होंने भारी अंतर से जीत हासिल की है लेकिन यहाँ पार्टी की आधिकारिक प्रत्याशी चुनाव हार गईं।
वोट ट्रांसफ़र कराने में सफल रही आरजेडी
बिहार उपचुनाव की एक ख़ास बात और है। आरजेडी ने किशनगंज में प्रत्याशी नहीं उतारा, जहाँ कमरुल होदा को अच्छे अंतर से जीत मिली है। सिमरी बख्तियारपुर में आरजेडी के ज़फर आलम जीते हैं और नाथनगर में राबिया खातून मामूली वोट से हारी हैं। आरजेडी ने 3 विधानसभा सीटों पर मुसलिम, एक पर यादव और एक पर ठाकुर प्रत्याशी उतारा। आरजेडी अपना पूरा वोट मुसलमान प्रत्याशियों को ट्रांसफ़र कराने में सफल रही है, जबकि पूरे चुनाव में पाकिस्तान और अनुच्छेद 370 के माध्यम से हिंदू-मुसलिम ध्रुवीकरण की कोशिश की गई थी।
इस परिणाम से एनडीए के खेमे में खलबली होनी स्वाभाविक है। एनडीए को पूरा भरोसा था कि 2020 में होने वाले राज्य विधानसभा चुनाव में नीतीश को नेता घोषित किए जाने के बाद गठबंधन सभी सीटें जीत लेगा। लेकिन चुनाव परिणाम आने के बाद पूरा खेल बदल गया।
स्वाभाविक है कि अब राज्य में नेतृत्व को लेकर बीजेपी नेताओं की ओर से नीतीश पर हमले तेज होंगे। इसकी एक वजह यह भी है कि समस्तीपुर सुरक्षित लोकसभा सीट पर लोक जनशक्ति पार्टी के प्रत्याशी प्रिंस राज 49.48 प्रतिशत वोट पाकर कांग्रेस प्रत्याशी अशोक कुमार से जीतने में कामयाब रहे हैं। हार-जीत का अंतर भी अच्छा खासा है। इस जीत से बीजेपी को यह कहने का मौक़ा मिला है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को बिहार की जनता ने स्वीकार किया है, लेकिन नीतीश के नेतृत्व को खारिज कर दिया है।
इसका पहला असर तो राज्य के विधानसभा चुनाव मे टिकट बंटवारे पर पड़ सकता है। बिहार में नीतीश कुमार की जेडीयू खुद को गठबंधन में बड़ा दल मानती है। जेडीयू की राज्य में ज़्यादा विधानसभा सीटों पर दावेदारी रही है लेकिन उपचुनाव में हार के बाद वह कमजोर हुई है।
साथ ही बीजेपी के राज्य स्तर के नेताओं को अब नीतीश कुमार के नेतृत्व पर सवाल उठाने का मौक़ा मिल गया है। शाह के बयान के बाद जहां बिहार बीजेपी के नेताओं में सुस्ती आ गई थी, अब उम्मीद है कि वे एक बार फिर अपने तलवार की धार तेज कर रहे होंगे।
बिहार उपचुनाव का परिणाम नीतीश के लिए ख़तरे की घंटी है। बीजेपी अब उम्मीद कर रही है कि जेडीयू 2005 और 2010 के विधानसभा चुनाव की तर्ज पर ज़्यादा विधानसभा सीटें नहीं मांगेगी। साथ ही नीतीश की पार्टी के भीतर भी नेतृत्व को लेकर सवाल खड़े हो सकते हैं और इसे बीजेपी की ओर से ही बल दिया जा सकता है, जिससे कि सीटों के बंटवारे को लेकर दबाव बना रहे। दोनों दलों के राजनीतिक स्वार्थों व लाभों को देखते हुए गठबंधन टूटने की संभावना कम नजर आती है, लेकिन यह तय है कि नीतीश की मुश्किलें बढ़ने जा रही हैं।
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