दिल्ली के चुनाव नतीजों से क्या बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ख़ुश हैं? इस एक लाइन का मतलब समझने से पहले बिहार के ताज़ा राजनीतिक हालात के बारे में बात करना ज़रूरी है। बिहार में जनता दल (यूनाइटेड) और बीजेपी मिलकर सरकार चला रहे हैं और लोकजनशक्ति पार्टी (एलजेपी) भी एनडीए गठबंधन में शामिल है। तीनों ही दलों ने लोकसभा का चुनाव मिलकर लड़ा था और विधानसभा का चुनाव भी मिलकर ही लड़ेंगे। नवंबर, 2020 में राज्य में विधानसभा के चुनाव होने हैं और इससे पहले दिल्ली के चुनाव नतीजों ने बिहार का सियासी पारा बढ़ा दिया है।
बीजेपी के ‘राष्ट्रवाद’ से दिक्क़त
दूसरी बार सरकार में आने के बाद बीजेपी अपने राष्ट्रवाद के एजेंडे पर बहुत तेज़ी से आगे बढ़ रही है। पिछले 8 महीनों में बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने तीन तलाक़ पर कानून बनाने, जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाने और नागरिकता संशोधन क़ानून को लेकर अपने तेवर साफ़ कर दिये हैं कि वह आने वाले 5 साल तक इस एजेंडे पर काम करती रहेगी। लेकिन इससे सहयोगी दलों में नाराज़गी बढ़ रही है। शिरोमणि अकाली दल नागरिकता क़ानून को लेकर नाराज़गी जता चुका है और इस क़ानून के विरोध में पंजाब की विधानसभा में लाये गये प्रस्ताव का समर्थन कर चुका है। पंजाब में बीजेपी बड़ी ताक़त नहीं है, इसलिये वह अकालियों के विरोध को लेकर इतनी चिंतित नहीं दिखती।
बीजेपी की असली चिंता बिहार को लेकर है। बिहार में उसके दोनों सहयोगी दल जेडीयू और एलजेपी उसके राष्ट्रवाद के एजेंडे से परेशानी महसूस करते हैं। नागरिकता क़ानून, एनआरसी और एनपीआर को लेकर ख़ुद नीतीश कुमार इतनी बुरी तरह फंस गए हैं कि उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि वह मोदी सरकार के साथ बने रहें या उसे छोड़ दें। इसे लेकर जेडीयू के अंदर लंबे समय तक घमासान भी हुआ और चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर और वरिष्ठ नेता पवन वर्मा को पार्टी छोड़कर जाना पड़ा।
जेडीयू और एलजेपी, दोनों ही एनआरसी और एनपीआर के विरोध में हैं। शायद इसी वजह से कभी नागरिकता क़ानून के बाद एनआरसी लाने की बात करने वाली केंद्र सरकार को क़दम पीछे खींचने पड़े हैं। इससे पहले जेडीयू अनुच्छेद 370 और तीन तलाक़ के मसले पर भी खुलकर विरोध दर्ज करा चुकी है।
मुसलिम मतदाताओं के रुख से परेशानी
दिल्ली के चुनाव नतीजे साफ़ कहते हैं कि यहां के 14 फ़ीसद मुसलिम मतदाताओं ने आम आदमी पार्टी को एकमुश्त वोट दिया है। और उन्होंने ऐसा सिर्फ़ इसलिए किया है क्योंकि उन्हें इस बात का पूरा भरोसा था कि केवल आम आदमी पार्टी ही बीजेपी को हरा सकती है। सीधा मतलब यह हुआ कि मुसलिम मतदाताओं ने बीजेपी को हराने वाली पार्टी को अपना सियासी रहनुमा चुना है। बिहार में 17 फ़ीसदी मुसलिम मतदाता हैं। नागरिकता संशोधन क़ानून को लेकर देश भर में मुसलिम मतदाताओं में मोदी सरकार से जबरदस्त नाराज़गी है। जेडीयू और एलजेपी का मुसलिम मतदाताओं में अच्छा जनाधार माना जाता है लेकिन इन दोनों दलों को बीजेपी के साथ चुनाव लड़ना है, ऐसे में मुसलिम मतदाता इस बार इनका साथ देंगे, इसे लेकर आशंकाएं हैं।
जेडीयू, एलजेपी को होगा नुक़सान!
अगर मुसलिम मतदाताओं ने दिल्ली की तर्ज पर वोटिंग की यानी कि बीजेपी के ख़िलाफ़, तो इसकी चपेट में जेडीयू और एलजेपी भी स्वाभाविक रूप से आएंगे। बिहार में नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़ हो रही रैलियों में जिस तरह मुसलिम मतदाताओं की भीड़ उमड़ रही है, वह इसे साफ़ करती है कि बीजेपी के साथ रहने से जेडीयू और एलजेपी को मुसलिम वोटों का नुक़सान होना तय है।
मोदी के प्रचार पर लगाई थी रोक
अब सवाल यह है कि क्या जेडीयू, एलजेपी इस ख़तरे से अंजान हैं। नहीं, वे कहीं ज़्यादा सचेत हैं और इस सियासी नुक़सान की भरपाई के एवज़ में वे बीजेपी से ज़्यादा सीटें मांगेंगे और उसे अपनी शर्तों पर चुनाव लड़ने को कहेंगे। यहां याद दिलाना ज़रूरी होगा कि एक समय एनडीए में रहते हुए ही नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी के बिहार में चुनाव प्रचार करने पर रोक लगा दी थी। तब 2002 के दंगों का भूत नरेंद्र मोदी का पीछा कर रहा था। नीतीश ने ऐसा सिर्फ़ इसलिये किया था कि मोदी के बिहार में आने से मुसलिम मतदाता उनसे नाराज न हो जाएं। तो क्या इस बार नीतीश मुसलिम मतदाताओं की नाराज़गी का जोख़िम मोल लेंगे। जवाब होगा बिलकुल नहीं। बाद में नीतीश ने एनडीए से भी नाता तोड़ा और वह फिर वापस भी आये। एनडीए से भी नाता तोड़ने के दौरान नीतीश बीजेपी और संघ की विचारधारा को देश को तोड़ने वाला भी बता चुके हैं।
दिल्ली के चुनाव नतीजों के बाद जेडीयू और लोक जनशक्ति पार्टी को इस बात का पूरा मौक़ा मिलेगा कि वे बिहार में बीजेपी पर सीटों के बंटवारे को लेकर दबाव बना सकेंगे।
संघ के बढ़ते प्रभाव से परेशानी
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ देश भर के साथ ही बिहार में लगातार अपना प्रभाव बढ़ाने में जुटा है। बिहार के राजनीतिक हलकों में इस बात की चर्चा है कि नीतीश कुमार केंद्र में फिर से बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार बनने के बाद संघ और बीजेपी की बढ़ती ताक़त को लेकर डरे हुए हैं। नीतीश को डर है कि संघ जिस तरह हिंदू समाज को जातियों से मुक्त कर ‘सिर्फ़ हिंदू’ बनाने में जुटा है, ऐसे में कहीं संघ के प्रभाव में आकर उन्हें समर्थन देने वाली जातियाँ बीजेपी का रुख न कर लें।
एक ओर तो मुसलिम वोट खोने का डर और दूसरी ओर हिंदू मतों के ध्रुवीकरण की आशंका नीतीश को खाये जा रही है। रामविलास पासवान भी इस आशंका से डरे हुए हैं।
‘बड़ा भाई’ कौन का झगड़ा
बिहार बीजेपी के कई नेता राज्य का मुख्यमंत्री बनने की सियासी ख़्वाहिश रखते हैं और नीतीश को खुलेआम केंद्र की राजनीति करने की सलाह दे चुके हैं। ये नेता बीजेपी को राज्य की राजनीति का ‘बड़ा भाई’ कहते हैं। इसका सीधा मतलब यह है कि राज्य में मुख्यमंत्री का पद बीजेपी के पास हो। हालांकि अमित शाह ऐसे नेताओं के अरमानों पर पानी फेर चुके हैं और कह चुके हैं कि चुनाव नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। लेकिन जो बीजेपी 25 साल पुराने साथी शिवसेना को ढाई साल के लिये मुख्यमंत्री की कुर्सी देने के लिये राजी नहीं हुई, वह बिहार में मौक़ा मिलने पर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अड़ सकती है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता।
बीजेपी को ही झुकना होगा!
ऊपर जो हमने लाइन कही है कि आख़िर दिल्ली के नतीजे से नीतीश कुमार क्यों गदगद हैं। उसका सीधा मतलब यही है कि अगर बीजेपी दिल्ली में चुनाव जीत जाती तो वह नीतीश और पासवान पर सीटों के मोल-भाव को लेकर दबाव बनाती। लेकिन यहां पासा उल्टा पड़ चुका है। यहां पर यह भी याद दिलाना ज़रूरी है कि झारखंड से बीजेपी की विदाई में नीतीश और पासवान का भी योगदान है क्योंकि इन दोनों दलों ने वहां बीजेपी के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ा था और दिल्ली में भी उम्मीदवार उतारने की धमकी दी थी। लेकिन दिल्ली में बीजेपी ने इन्हें मनाया और दो सीट जेडीयू को और एक सीट बीजेपी को दी। लेकिन अब मानने और झुकने की बारी बीजेपी की है और उसे इन दोनों सहयोगी दलों के सामने झुकने के लिये मजबूर होना होगा क्योंकि नीतीश और पासवान का मूल आधार बिहार में ही है और एनडीए में बने रहने या केंद्र की सत्ता में भागीदारी के बदले में वे बिहार की सत्ता से बेदख़ल होना क़तई मंजूर नहीं करेंगे। कुल मिलाकर गेंद अब विशेष रूप से नीतीश के पाले में है और बीजेपी को उनकी शर्तों के हिसाब से चलना ही होगा।
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