असम विधानसभा चुनाव के पहले दौर में 47 सीटों के लिए 27 मार्च को मतदान होने जा रहा है। कुल 126 विधानसभा सीटों में से इन 47 सीटों के लिए सबसे ज़्यादा अनुमान लगाए जा रहे हैं और भविष्यवाणियाँ भी की जा रही हैं। वज़ह बिल्कुल साफ़ है और वह ये है कि सबसे ज़्यादा अनिश्चितता यहीं है। हालाँकि कुछ जनमत सर्वेक्षण बीजेपी की एकतरफ़ा जीत बता रहे हैं और कई प्रेक्षक भी मानते हैं कि बीजेपी की बढ़त है, मगर ये बढ़त कितनी है इसको लेकर कोई आश्वस्त नहीं है।
बीजेपी के सामने चुनौती
दो महीने पहले तक लग रहा था कि बीजेपी इस चुनाव को बड़े आराम से निकाल लेगी, मगर स्थितियाँ बदली हैं। एक तो महागठबंधन की वज़ह से उसे गंभीर दावेदार के रूप में देखा जाने लगा और दूसरा ऊपरी असम में काँग्रेस ने डटकर काम किया है। लेकिन इस तरह का काम साल भर पहले से करना चाहिए था, इसलिए शायद उसका लाभ भी उसे उतना नहीं मिल पाएगा।
सीएए आंदोलन अहम मुद्दा
पिछले पाँच साल में सबसे बड़ा परिवर्तन तो नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के ख़िलाफ़ चले अभूतपूर्व आंदोलन की वज़ह से आया है। इस आंदोलन का ज़ोर ऊपरी असम में ही था। इसने बीजेपी की लोकप्रियता को ध्वस्त कर दिया था। ये तो कोरोना महामारी ने आंदोलन पर ब्रेक लगा दिया जिसकी वज़ह से उसे सँभलने का मौक़ा मिल गया वर्ना उसका सूपड़ा साफ़ था।
बहरहाल, हमें केंद्र सरकार का सीएए नहीं चाहिए, का संकल्प अब कितना बाक़ी है इसी को लेकर अनुमान लगाना मुश्किल हो रहा है। लोगों से बात करने पर पता चलता है कि गुस्सा अभी गया नहीं है। वे दिल से मानते हैं कि इस कानून की वज़ह से असमिया भाषा एवं संस्कृति के लिए ख़तरा खड़ा हो गया है। बीजेपी के रवैये ने उनके गुस्से को और भी बढ़ा दिया है। बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने घोषणापत्र जारी करते समय कहा कि वह सीएए को पक्के तौर पर लागू करेगी। उनके इस बयान की चर्चा लोग आक्रोश के साथ कर रहे हैं।
सीएए से होगा नुक़सान?
बीजेपी पर ये आरोप लगा है कि उसने अंधाधुंध पैसा बहाकर लोगों को खामोश करने की कोशिश की है। शहरी मध्यवर्ग सड़कों और पुलों का विकास देखकर खुश हो रहा है और सीएए पर अब उतना उग्र नहीं है। इसी आधार पर बीजेपी और उसके समर्थक दावा कर रहे हैं कि सीएए अब कोई मुद्दा नहीं रह गया है। लेकिन ऐसा लगता नहीं है। अलबत्ता अगर अंडरकरंट के रूप में ये मौजूद है तो ये कहना मुश्किल हो रहा है कि वह उसे कितना नुक़सान पहुँचाएगा।
ये सही है कि काँग्रेस इस मुद्दे को उस तरह से ज़िंदा रखने और उसको चुनाव में भुनाने में कामयाब होते नहीं दिख रही है। पिछले दो-तीन महीनों में उसने ज़मीनी स्तर पर काफ़ी काम किया है, मगर इसका बढ़ा लाभ उसे मिल पाएगा ऐसा नहीं लगता। उसकी उम्मीदें उन क्षेत्रीय दलों पर टिकी हुई हैं, जिन्होंने सीएए के ख़िलाफ़ आंदोलन का नेतृत्व किया था।
अखिल गोगोई के राइजोर दल और असम जातीय परिषद ने बड़ी संख्या में प्रत्याशी खड़े किए हैं। काँग्रेस को उम्मीद है कि ये दल बीजेपी और एजीपी को नुक़सान पहुँचाएंगे, जिसका फ़ायदा उसे मिलेगा। मगर इसका उलटा भी हो सकता है।
चाय मज़दूरों की अहमियत
ऊपरी असम में कामयाबी की कुंजी चाय बागानों में है, क्योंकि शहरी क्षेत्रों की चंद सीटों को छोड़ दें तो बाक़ी सीटों का फ़ैसला चाय बागान मज़दूर ही करेंगे। पिछली बार बीजेपी को मिली अभूतपूर्व सफलता की वजह चाय मज़दूरों का समर्थन ही था। मगर पिछले पाँच साल में प्रदेश सरकार ने उन्हें निराश किया है।
ख़ास तौर पर न्यूनतम मज़दूरी को बढ़ाकर 351 रुपये करने का वादा उसने पूरा नहीं किया है। इसलिए ठीक चुनाव के पहले उसने 50 रुपये की बढ़ोतरी करके इसे 217 रुपये करने की कोशिश की थी, मगर उस पर भी प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है।
पहले दौर की चुनौती
काँग्रेस और बीजेपी दोनों के लिए ज़रूरी है कि पहले दौर के मतदान में वे अच्छा प्रदर्शन करें। बीजेपी अगर इस इलाक़े में 15 के आसपास सीटें गँवाती है तो उसके लिए दिसपुर दूर हो जाएगा, क्योंकि महागठबंधन की वज़ह से बराक घाटी और निचले असम में उसका नुक़सान होना तय है। ऊपरी असम के नुक़सान की भरपाई निचले असम से होने की संभावना नहीं है।
चूँकि ऊपरी असम में मुसलमानों की तादाद बहुत कम है और मुश्किल से तीन-चार सीटों पर उनकी ठीक-ठाक उपस्थिति है इसलिए ध्रुवीकरण की राजनीति का प्रभाव पड़ने की संभावना कम ही है।
हालाँकि बांग्लादेशी मुसलमानों को लेकर यहाँ के मतदाताओं में गुस्सा ज़रूर है, मगर इस इलाक़े में रहने वाले मुसलमान ठेठ असमिया हैं और वे उन्हें अपना हिस्सा मानते हैं। फिर बीजेपी ने सीएए के मामले में जो रुख़ दिखाया है उससे भी वे पिछली बार की तरह उसको लेकर उत्साहित नहीं हैं।
एजीपी को लेकर गुस्सा
बीजेपी के सहयोगी दल एजीपी को लेकर तो मतदाताओं में और भी ज़्यादा गुस्सा है। असमिया मतदाता मानते थे कि एजीपी उनकी पार्टी है, मगर वह जिस तरह से बीजेपी की गोद में जाकर बैठ गई है, उससे वे ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। वे मानते हैं कि एजीपी ने उनके साथ गद्दारी की है। ज़ाहिर है कि एजीपी की दुर्गति होना तय माना जा रहा है।
दूसरी ओर, असम के बाक़ी क्षेत्रों में काँग्रेस के महागठबंधन का प्रदर्शन अच्छा रहेगा ये सब मानते हैं, मगर उनके भरोसे वह सरकार बनाने की उम्मीद नहीं कर सकती। उसे कम से कम 15 सीटें ऊपरी असम से जीतना ही होंगी, मगर क्या वह ऐसा कर पाएगी? लाख टके का सवाल यही है।
जहाँ तक नए बने क्षेत्रीय दलों का सवाल है तो उनको लेकर कुछेक सीटों पर ही उत्साह नज़र आ रहा है। अखिल गोगोई के शिवसागर से जीतने की संभावना अच्छी है, मगर बाक़ी सीटों पर कोई उम्मीद वे नहीं कर सकते।
इसी तरह असम जातीय परिषद (एजेपी) को भी एकाध सीट ही दी जा रही हैं। एजेपी अध्यक्ष लूरिनज्योति गोगोई के जीतने की ही संभावनाएं कम बताई जा रही हैं। वे दो-दो सीटों से उम्मीदवार हैं। अगर इन दलों ने महागठबंधन से तालमेल कर लिया होता तो इनकी सफलता की संभावना भी बढ़ती और महागठबंधन भी ज़्यादा सीटें जीत सकता था, मगर ये हो न सका।
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