असम में बीजेपी के नेतृत्व वाले गठबंधन ने फिर से जीत हासिल की है, मगर उसकी जीत का रहस्य क्या है। बीजेपी के नेता दावा कर रहे हैं कि उन्होंने विकास किया है, लोगों ने उसके लिए उसे दोबारा सत्ता सौंपी है, लेकिन क्या इसमें सचाई है और अगर ऐसा है तो क्या वह पहले से ज़्यादा मज़बूत होकर उभरी है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि उसकी जीत के पीछे दूसरी वज़हें हों जो विकास के दावे से ढँकी जा रही हैं?
आइए, इन प्रश्नों के उत्तर तलाशें। इसके पहले यह बता देना ज़रूरी है कि बीजेपी ने चुनाव जीतने के लिए उसी स्तर पर प्रयास किए थे जैसे पश्चिम बंगाल में। यह और बात है कि पूरे देश का ध्यान बंगाल में था इसलिए असम में बीजेपी के प्रचार अभियान पर उतना ध्यान नहीं दिया गया। मगर चाहे वह धन-बल, मीडिया-बल, सरकार-बल का मामला हो या फिर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का, बीजेपी ने असम में भी खेल वही खेला जो बंगाल में।
पूरी केंद्र सरकार और खुद प्रधानमंत्री ने ताक़त झोंक रखी थी, तब जाकर सरकार बनाने की नौबत आ पाई है, मगर उसमें भी बीजेपी अपने दम पर बहुमत हासिल करने में नाकाम रही है। उसे उतनी ही सीटें मिली हैं, जितनी पिछली बार मिली थीं, जबकि इस बार उसने आठ सीटों पर ज़्यादा चुनाव लड़ा था।
यही नहीं, उसके सहयोगी दल असम गण परिषद की स्थिति तो और कमज़ोर हो गई है। पिछली बार के मुक़ाबले उसे पाँच सीटों का नुक़सान हुआ है और दहाई का आँकड़ा भी नहीं छू पाई है। एक ऐसी पार्टी जिसकी राज्य में दो-दो बार सरकार रह चुकी हो, बीजेपी की चाकरी करते-करते कहाँ पहुँच चुकी है, इस चुनाव ने साबित कर दिया है।
अगर वोटों के गणित में जाएँगे तो बीजेपी के वोटों में इज़ाफ़ा और कांग्रेस के मतों में कमी दिखलाई देगी। लेकिन ये कमी-बेशी लोकप्रियता को ज़ाहिर नहीं करती।
कांग्रेस के मतों में कमी इसलिए आई क्योंकि उसने इस बार 122 की बजाय केवल 94 सीटों पर चुनाव लड़ा। ये गिरावट भी एक प्रतिशत से कम है।
इसके उलट बीजेपी ने आठ सीटों पर ज़्यादा चुनाव लड़ा और उसके वोटों में लगभग तीन फ़ीसदी का इज़ाफ़ा हुआ है। उसके वोट क्यों बढ़े इसकी एक बड़ी वज़ह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण रहा है। सचाई ये है कि बीजेपी ने पूरा चुनाव सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के आधार पर ही लड़ा। उसके स्टार कैंपेनर हिमंत बिस्व सरमा मुग़ल राज आ जाने का हौआ खड़ा करते रहे। और उन्होंने खुल्लमखुल्ला यहाँ तक कहा कि उन्हें मियाओं के वोट नहीं चाहिए।
चुनाव नतीजे बताते हैं कि ऊपरी असम में तो ये ध्रुवीकरण हुआ ही है, निचले और मध्य असम में जहाँ भी मुसलिम मतदाताओं की संख्या निर्णायक नहीं है, बीजेपी और उसकी सहयोगी असम गण परिषद तथा यूपीपीएल-लिबरल को इसका लाभ मिला है। ऊपरी असम हिंदू बहुल क्षेत्र है और यहीं सीएए के ख़िलाफ़ ज़बर्दस्त आंदोलन चला था। ये एक बड़ा सवाल था कि क्या बीजेपी यहाँ पर पिछली बार की तरह अच्छा प्रदर्शन कर पाएगी।
हालाँकि कोरोना महामारी की वज़ह से एक साल में आक्रोश कमज़ोर पड़ गया था मगर ख़तरा तो फिर भी था। ख़ास तौर पर कांग्रेस ने जिस तरह से घोषणा कर दी थी कि वह सीएए लागू नहीं होने देगी, उसके बाद अगर वे असमिया मतदाता उसके पास खिसक जाते तो उसे भारी नुक़सान हो सकता था। कांग्रेस ने इसीलिए अपने चुनावी अभियान का केंद्र भी ऊपरी असम को बनाया था। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल दो-ढाई सौ लोगों के साथ वहाँ डेरा डालकर पार्टी की मदद करते रहे। इस सबके बावजूद नतीजे बताते हैं कि बीजेपी हिंदुत्व के बल पर उसे संभालने में कामयाब रही। उसने बदरुद्दीन अजमल का इतना बड़ा हौआ खड़ा किया और कांग्रेस को उससे जोड़ दिया कि हिंदू असमिया मतदाता उससे छिटका नहीं।
हालाँकि उसे इस चीज़ का भी लाभ मिला कि सीएए के सवाल पर बने दो नए राजनीतिक दल असम जातीय परिषद और राइजोर दल ने कांग्रेस को मिलने वाले वोट उसे नहीं मिलने दिए। एजेपी ने बयान्नवे सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए थे और ज़्यादातर जगहों पर प्रत्याशियों ने ठीक-ठाक वोट हासिल किए। अध्यक्ष लूरिनज्योति दो सीटों पर चुनाव लड़े और हारे मगर दोनों जगहों पर उन्होंने जितने वोट लिए वे कांग्रेस के उम्मीदवारों की हार का कारण बने। माना जा रहा है कि एजेपी और राइजोर दल की वजह से क़रीब आधा दर्ज़न सीटों पर बीजेपी जीती है।
बहुत सारे प्रेक्षकों का मानना है कि एजेपी को बीजेपी ने ही खड़ा किया था ताकि सीएए विरोधी वोट कांग्रेस को न मिलें। इसमें अखिल असम छात्र संघ यानी आसू की भी भूमिका रही है। यानी वोटों के विभाजन की रणनीति के तहत एजेपी का इस्तेमाल किया गया और अगर ऐसा हुआ है तो कहा जा सकता है कि ये रणनीति कामयाब रही है।
अखिल गोगोई जेल में रहते हुए भी चुनाव जीत गए हैं। वे धुर बीजेपी विरोधी हैं, मगर अपने बयानों की वज़ह से उन्होंने महागठबंधन का नुक़सान कर दिया।
यहाँ हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए कि पिछले पाँच-सात सालों में असमिया हिंदुओं के एक हिस्से का बड़े पैमाने पर हिंदुत्व के प्रति आकर्षण बढ़ा है और वे बीजेपी के साथ आ गए हैं। बीजेपी ने उन्हें बांग्लादेशियों को वापस भेजने का वादा करके लुभाया और फिर सत्ता में हिस्सेदारी देकर अपना बना लिया। ये वर्ग अब हिंदुत्व के ध्वजाधारी बन गया है।
हिंदीभाषी समाज में पहले से आरएसएस की पैठ रही है और वह उसका मुख्य कार्यकर्ता है। इन दोनों वर्गों की मदद से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति बीजेपी के लिए आसान हो गई है।
बहरहाल, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का खेल बोड़ो इलाक़ों में भी हुआ। पिछले दो दशकों से बीपीएफ यहाँ की सबसे मज़बूत पार्टी रही है। पिछली बार उसने यहाँ की 12 में से 12 सीटें जीत ली थीं। माना जा रहा था कि एआईडीयूएफ़ के साथ आने से उसकी जीत और पक्की हो गई है, क्योंकि बोडो इलाक़ों में मुसलिम मतदाताओं की संख्या अच्छी-खासी है। मगर हुआ उल्टा। बदरुद्दीन की पार्टी से हाथ मिलाने से हिंदुओं और मुसलिम विरोधी भावनाएं रखने वाले बोड़ो मतदाताओं का ध्रुवीकरण बीजेपी और यूपीपीएल-लिबरल की तरफ़ हो गया और एक तरह से दोनों ने मिलकर झाड़ू फेर दी। बीपीएफ़ को केवल चार सीटें मिल पाईं।
सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के साथ असमिया मतदाताओं की मदद से असम गण परिषद भी अपना वजूद बचाने में कामयाब हो गई। यह माना जा रहा था कि वह चार-पाँच सीटों पर ही सिमट जाएगी। मगर उसने नौ सीटें जीत लीं। चूँकि बीजेपी की अपने दम पर बहुमत हासिल करने की हसरत पूरी नहीं हुई है, इसलिए वह असम गण परिषद पर निर्भर रहेगी। यूपीपीएल की सीटें उसे बहुमत के क़रीब भर ले जा सकती हैं। उसके बल पर वह स्थिर सरकार नहीं बना सकती है।
दरअसल, कांग्रेस के बदरुद्दीन अजमल की पार्टी एआईयूडीएफ़ के साथ गठबंधन को बीजेपी ने हिंदू-असमिया विरोधी प्रचारित किया जिससे हिंदुत्व के नाम पर तो ध्रुवीकरण हुआ ही असमिया-बंगाली के नाम पर भी मतदाता बँट गए। कांग्रेस के गठबंधन को बहुत शक्तिशाली माना जा रहा था, लेकिन हिंदू-मुसलिम की राजनीति ने उसे कमज़ोर कर दिया। ऊपरी असम में बीजेपी के ख़िलाफ़ जो माहौल बना था उसका फ़ायदा भी कांग्रेस को नहीं मिल सका, क्योंकि असमिया के नाम पर दो और पार्टियाँ आ गईं और जो वोट उसे मिलना था, वे ले गईं।
स्पष्ट है कि बीजेपी नेताओं का विकास का दावा सांप्रदायिक राजनीति का एक सुंदर आवरण भर है। बेशक़ पाँच साल शासन में रहते हुए कुछेक अच्छे काम भी उसने किए ही होंगे, गोगोई सरकार ने भी किए थे। उस समय हिमंत बिस्व सरमा उनके साथ ही थे, मगर असलियत यही है कि असम की राजनीति पहले के मुक़ाबले और भी ज़्यादा सांप्रदायिकता की धुरी पर केंद्रित हो गई है।
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