हिंदी-भाषी समाज में पढ़ने की आदत में गिरावट के शुरुआती शोर के बीच एक हिंदी उपन्यास ने बिक्री के सभी रिकॉर्ड तोड़ दिये थे।1993 में छपे 347 पेज के इस उपन्यास के प्रचार के लिए शहरों में होर्डिंगें लगायी गयी थीं। अनुमान है कि बीते तीन दशक में इस उपन्यास की आठ करोड़ प्रतियाँ बिक चुकी हैं। साहित्यकारों की नज़र में ‘लुगदी' श्रेणी के इस उपन्यास के लेखक थे वेदप्रकाश शर्मा और उपन्यास था- वर्दीवाला गुंडा!
2017 में दिवंगत हुए मेरठ निवासी वेद प्रकाश शर्मा को यह सफलता उसी हिंदी समाज के दम पर मिली जो साहित्य पर ख़र्च को फ़िज़ूल मानने के लिए बदनाम है। शायद इस उपन्यास ने समाज में पल रहे किसी गहरे भाव को शब्द दे दिये थे। लेकिन ठहरिए, वर्दीवालों यानी पुलिसवालों को पहली बार गुंडा कहने का श्रेय वेदप्रकाश शर्मा को नहीं जाता। बीती सदी के साठ के दशक में इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक न्यायाधीश जस्टिस आनंद नारायण मुल्ला ने पुलिस को यह ख़िताब दिया था।
एक मुक़दमे की सुनवाई के दौरान जस्टिस मुल्ला ने बेहद तल्ख़ लहजे में टिप्पणी की थी कि, “मैं ज़िम्मेदारी के सभी अर्थों के साथ कहता हूँ, पूरे देश में एक भी क़ानून-विहीन समूह नहीं है जिसका अपराध का रिकॉर्ड अपराधियों के संगठित गिरोह भारतीय पुलिस बल की तुलना में कहीं ठहरता हो।”
जस्टिस मुल्ला की इस टिप्पणी की गूँज बहुत दूर तक सुनाई पड़ी थी। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस मुल्ला के फैसले के इस अंश को यूपी सरकार की अपील पर हटा दिया था, लेकिन पुलिस ज्यादती पर बहस के दौरान हमेशा इस टिप्पणी को याद किया जाता है।
बहरहाल, इस ‘राष्ट्रवादी’ समय में ‘गुंडों’ को ‘हत्यारा’ बनता देखा जा सकता है। यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ खुलेआम अपराधियों को ठोंकने की बात कहकर पुलिस को एक तरह से हत्या का निर्देश देते नज़र आते हैं। भारतीय न्याय संहिता में किसी को अपराधी क़रार देने का अधिकार न किसी मुख्यमंत्री के पास है और न पुलिस के पास। अपराधी घोषित करने से लेकर सज़ा देने तक का अधिकार अदालत के पास है और इसकी एक निश्चित प्रक्रिया है, पर इसका पालन करना सरकार की ‘कमज़ोरी’ समझा जा रहा है।
आँकड़े बताते हैं कि यूपी के योगी राज के सात सालों में 12 हज़ार से ज़्यादा मुठभेड़ें हुई हैं जिनमें 207 आरोपितों की जान गयी और साढ़े छह हज़ार से ज़्यादा घायल हुए हैं। इन मुठभेड़ों में 17 पुलिसकर्मियों की जान भी गयी है और तमाम घायल भी हुए हैं, लेकिन आम धारणा यही है कि असल मुठभेड़ गिनती की ही होती हैं। आमतौर पर घर से उठाकर किसी आरोपित को मार दिया जाता है जैसे कि सुल्तानपुर में मंगेश यादव के मामले में हुआ। यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का सार्वजनिक रूप से यह बयान देना कि मुठभेड़ में मरने वालों में साठ फ़ीसदी (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) समाज के हैं, इसके गंभीर सामाजिक कोण की ओर इशारा करता है।
हालाँकि ये आँकड़े ख़ुद योगी राज के इक़बाल पर सवाल उठाते हैं। सरकार मानती है कि हर मुठभेड़ दरअसल अपराधियों का पुलिस पर हमला है। इसका मतलब तो ये हुआ कि औसतन हर दिन पुलिस पर चार से ज़्यादा बार हमला होता है। ऐसी स्थिति तो क़ानून व्यवस्था की बदहाली की स्वीकारोक्ति है लेकिन योगी सरकार का दावा उलट है।
सत्ता के संरक्षण में पुलिस को ‘हत्यारा’ बनाने का क्या भयावह नतीजा निकल रहा है, इसे यूपी के पूर्व डीजीपी सुलखान सिंह ने अपनी एक फ़ेसबुक पोस्ट में दर्ज किया है। 30 सितंबर को उन्होंने अपने फ़ेसबुक पेज पर प्रयागराज में फ़र्ज़ी मुठभेड़ मामले में ‘12 पुलिस कर्मियों पर मुक़दमा लिखने’ के अदालती आदेश और बीजेपी के पूर्व सांसद बृजभूषण शरण सिंह के इस बयान की कटिंग लगायी कि ‘प्रमोशन और पैसे के लिए एनकाउंटर किया जा रहा है।’ सुलखान सिंह ने चेताया कि किसी दबाव में एनकाउंटर करने वाले पुलिसवाले पछताएँगे और जाँच में उलझने पर कोई साथ नहीं देगा। उन्होंने लिखा, “मैं पहले भी पुलिस कर्मियों को फर्जी मुठभेड़ों पर आगाह कर चुका हूँ। गाजीपुर के एक मामले में घटना के 22 वर्ष बाद पुलिस कर्मियों को सजा सुनाई गई थी।
सुलखान सिंह ने आगे लिखा है- एक पोस्ट में मैंने और पहले लिखा था कि किस तरह जनपद सीतापुर की एक मुठभेड़ के मामले में घटना के 25 वर्ष बाद पुलिस कर्मियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई और एक एक करके कई पुलिस अधिकारी केन्द्रीय कारागार, बरेली में मरते रहे लेकिन अदालतों से उनकी जमानत नहीं हुई। लगभग ढाई सौ पुलिस अधिकारी जेलों में सड़ रहे हैं। इन्हें कोई मदद करने वाला या बचाने वाला नहीं होता है। पीलीभीत जनपद में खूंखार आतंकवादियों को मुठभेड़ में मारने वाले 45 पुलिस अधिकारियों को उम्र-कैद की सजा हुई। उस समय भी भाजपा सरकार थी। वर्तमान भाजपा सरकार ने बार-बार गुहार लगाने के बाद भी इन बूढ़े और रिटायर्ड पुलिस अधिकारियों की सजा माफ नहीं की। हाईकोर्ट से भी जमानत नहीं हुई।”
पूर्व डीजीपी ने लिखा, “जो सरकारें और वरिष्ठ पुलिस अधिकारी, अपने अधीनस्थों पर नाजायज दबाव डालकर फर्जी मुठभेड़ करवाते हैं, वे फँसने पर कोई मदद नहीं करते। जब मुकदमा सजा के लेवेल पर आता है तब तक ये पुलिस अधिकारी बूढ़े और रिटायर्ड हो चुके होते हैं। कोई आगे पीछे नहीं होता। इन्हें उनकी किस्मत के भरोसे छोड़ दिया जाता है। पुलिस अधिकारी अभी भी नहीं चेते तो बाल-बच्चे तक रोयेंगे। नैतिकता का तकाजा है कि पुलिस स्वयं अपराधी न बने।”
सुलखान सिंह जिस नैतिकता की अपेक्षा कर रहे हैं, वह पुलिस के अपने रूल बुक का हिस्सा है, लेकिन अगर कोई सरकार ये तय कर ले कि वह क़ानून से ऊपर है और अपने राजनीतिक हित-अहित का ध्यान रखते हुए पुलिस को अपराध करने की शह दे तो पूरी व्यवस्था अनैतिक ही नहीं अपराधी साबित हो जाती है।
ऐसा नहीं है कि अन्य सरकारों में फ़र्ज़ी मुठभेड़ नहीं होती थीं। लेकिन ऐसा जब भी होता था, सरकार बैकफ़ुट पर रहती थी। मानवाधिकार आयोग से लेकर मानवाधिकार संगठनों तक के सवालों का उसे जवाब देना होता था। लेकिन अब सवाल उठाने वाले ‘देशद्रोही' के तमग़े से नवाज़े जाते हैं जो हर वक़्त ‘धर्मध्वजाधारी और राष्ट्रवादी सरकार के ख़िलाफ़ साज़िश रचते हैं।’ पहले यह संभव नहीं था कि मुख्यमंत्री विधानसभा में खड़े होकर ‘ठोंक दो’ को सरकारी नीति घोषित करे। संविधान को ठेंगे पर रखने की यह बीमारी बीजेपी शासित सभी राज्यों में नज़र आती है। बड़े से बड़ा नेता भी अपराधियों को 'ऊपर पहुँचाने’ का श्रेय लेकर ताली लूटने में जुटा रहता है।
हाल में मोहित पांडेय नाम के एक नौजवान व्यापारी की लखनऊ के चिनहट थाने में हुई मौत का वीडियो वायरल है। इससे कुछ दिन पहले अमन कुमार गौतम नाम के एक दलित नौजवान की भी लखनऊ में ही पुलिस हिरासत में मौत हुई थी। यह बताता है कि पुलिस का पूरा रवैया आरोपितों के प्रति क्या रहता है। मुठभेड़ ही नहीं, हिरासत भी जानलेवा बन चुकी हैं। यही वजह है कि पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस एन.वी. रमन्ना को कहना पड़ा कि “पुलिस स्टेशन मानवाधिकारों एवं मानवीय सम्मान के लिए सबसे बड़ा खतरा है। मानवाधिकारों के हनन और शारीरिक यातनाओं का सबसे ज्यादा खतरा थानों में है। थानों में गिरफ्तार या हिरासत में लिए गए व्यक्तियों को प्रभावी कानूनी सहायता नहीं मिल पा रही है जबकि इसकी बेहद जरूरत है।”
कुल मिलाकर ‘ठोंक दो’ नीति पर इतराने वाली सरकारें समाज को क़बीलाई दौर में ले जाने को आतुर हैं। वे वास्तविक रूप से सभ्य और आधुनिक समाज बनने की राह में रोड़ा अटका रही हैं। जनता को क़ानून का सम्मान सिखाने के बजाय, वे ‘ग़ैरक़ानूनी पौरुष’ के प्रदर्शन पर तालियाँ बजवाने में जुटी हैं लेकिन ये तालियाँ इतिहास में गालियाँ बनकर गूँजेंगी, यह निश्चित है।
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