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क्या अनुच्छेद 370 को कभी ख़त्म किया जा सकता है? 

अनुच्छेद 370 पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनवाई किए जाने की ख़बर के बाद से यह मुद्दा एकाएक चर्चा में आ गया है। मोदी सरकार ने 5 अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 में बदलाव का फ़ैसला किया था। यानी इसे ख़त्म नहीं किया था। सवाल है कि क्या इसे कभी खत्म किया जा सकता है? और यदि इसे ख़त्म नहीं किया गया था तो फिर इतना हंगामा क्यों मचा है?

अनुच्छेद 370 को समाप्त किया जा सकता है या नहीं, यह तो अब सुप्रीम कोर्ट को तय करना है, लेकिन सवाल है कि इसको लेकर संविधान क्या कहता है? इसको ख़त्म करने की व्यवस्था अनुच्छेद 370 में ही है। उसके खंड 3 में लिखा हुआ है कि राष्ट्रपति इसे पूरी तरह निष्क्रिय या कुछ संशोधनों या अपवादों के साथ सक्रिय रहने की घोषणा कर सकता है लेकिन उसके लिए उसे जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा की सहमति ज़रूरी होगी। तो सवाल है कि फिर इसमें इतनी उलझन क्यों है? उस संविधान सभा से सहमति क्यों नहीं मांगी जाती है? या तो वह इस पर सहमति देगी या फिर इनकार करेगी? यही वह सवाल है जो बेहद पेचीदा हो गया है।

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यह पेचीदगी इसलिए कि वह संविधान सभा तो अब है नहीं जो राष्ट्रपति को अपनी सहमति या असहमति दे। उस संविधान सभा को तो 1957 में राज्य का संविधान बनाकर भंग कर दिया गया था। इसीलिए कुछ संविधान विशेषज्ञ मानते हैं कि अनुच्छेद 370 को समाप्त नहीं किया जा सकता है। वरिष्ठ पत्रकार नीरेंद्र नागर लिखते हैं कि जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय भी 2015 में ऐसा ही फ़ैसला दे चुका है और सुप्रीम कोर्ट भी एक अन्य मामले में 2018 में इसी तरह की टिप्पणी कर चुका है। लेकिन कुछ दूसरे संविधान विशेषज्ञों का मानना था कि चूँकि अनुच्छेद 370 भारतीय संविधान का ही एक अंग है और भारतीय संसद को उसे संशोधित करने का अधिकार है, इसलिए यह भारतीय संसद द्वारा हटाया जा सकता है। लेकिन क्या यह इतना आसान है?

सवाल है कि 5 अगस्त 2019 को सरकार ने अनुच्छेद 370 के साथ क्या किया? राष्ट्रपति द्वारा जारी आदेश के द्वारा अनुच्छेद 370 के खंड 3 में लिखे संविधान सभा शब्द का अर्थ बदल दिया गया है। 

इस शब्द को बदले जाने के बाद सरकार को रास्ता दिखा और फिर उसने कुछ अन्य नियमों का सहारा लेकर अनुच्छेद 370 को एक तरह से निष्क्रिय कर दिया। नीरेंद्र नागर ने एक लेख में लिखा है कि "अनुच्छेद 370 के खंड 1 के तहत राष्ट्रपति को यह अधिकार है कि वह राज्य सरकार की सहमति से ऐसा आदेश जारी कर सकता है। अब चूँकि राज्य में कोई चुनी हुई सरकार तो थी नहीं। इसलिए राज्यपाल की सहमति ही काफ़ी थी। राज्यपाल की सहमति को ही राज्य की सहमति मानते हुए राष्ट्रपति ने यह आदेश जारी किया कि अनुच्छेद 370 के खंड 3 में लिखित ‘संविधान सभा’ को ‘राज्य विधानसभा’ कर दिया जाए।"
तो सवाल है कि संविधान सभा को राज्य विधानसभा में बदलने से फ़र्क क्या पड़ा? राष्ट्रपति को अनुच्छेद 370 को निष्क्रिय घोषित करने के लिए राज्य विधानसभा की सहमति ज़रूरी होगी ही। क्या जम्मू-कश्मीर की विधानसभा कभी अनुच्छेद 370 को समाप्त करने के लिए राज़ी होगी, क्या वह सहमति देगी?

क्या सरकार को ऐसा लगता है कि जम्मू कश्मीर की पीडीपी, एनसी जैसी प्रमुख पार्टियाँ ऐसा कभी कर सकती हैं? 

इसका जवाब बीजेपी को भी पता है। इसीलिए शायद सरकार ने तरकीब निकाली कि अनुच्छेद 370 को पूरी तरह ख़त्म न किया जाए। अगस्त 2019 में संसद में गृहमंत्री अमित शाह ने कहा था कि अनुच्छेद 370 का खंड 1 बना रहेगा और खंड 2 और 3 ख़त्म होंगे। ऐसा अमित शाह ने क्यों कहा, यह समझना ज़्यादा मुश्किल नहीं है। अनुच्छेद 370 का खंड 1 बना रहना ज़रूरी है क्योंकि उसी के तहत राष्ट्रपति केंद्र का कोई भी क़ानून राज्य पर लागू करता है। यदि अनुच्छेद 370 का खंड 1 ही समाप्त हो गया तो राष्ट्रपति जम्मू-कश्मीर पर ये क़ानून कैसे लागू करेगा। राष्ट्रपति ने जो आदेश जारी किया था, वह भी अनुच्छेद 370 के खंड 1 द्वारा दी गई शक्तियों के आधार पर ही किया।

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ये कई सारी उलझनें हैं इसीलिए यह मामला सुप्रीम कोर्ट में गया है। भले ही इस मामले की सुनवाई 4 साल बाद हो रही है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट संविधान के नज़रिए से मामले पर गौर करेगा। 

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को संविधान के अनुच्छेद 370 में बदलाव को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर रोजाना सुनवाई के लिए 2 अगस्त की तारीख तय की है। ये सुनवाई सोमवार से शुक्रवार तक हुआ करेगी। केंद्र सरकार ने इस अनुच्छेद में बदलाव करके जम्मू और कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा छीन लिया था। कुछ याचिकाओं में जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019 को भी चुनौती दी गई है, जिसने जम्मू-कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेशों जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में विभाजित कर दिया था।

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क़मर वहीद नक़वी
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