आख़िरकार उच्चतम न्यायालय ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) को दिए गए आरक्षण पर मुहर लगा दी। बाबरी मसजिद मामले, गुजरात के जाकिया जाफरी मामले में इसके पहले के उच्चतम न्यायालय के फ़ैसलों को देखते हुए सोशल मीडिया पर पहले से चर्चा थी कि यह फ़ैसला भी सरकार के पक्ष में जाएगा। न्यायालय ने अधिकतम 50 प्रतिशत आरक्षण होने का दायरा भी तोड़ दिया है, जिसके आधार पर वह जाट, मराठा, पाटीदार, कापू आदि आरक्षणों को खारिज करता रहा है। अब आने वाले दिनों में तमाम सवाल खड़े होने जा रहे हैं।
50 प्रतिशत से ऊपर आरक्षण
अब तक न्यायालय यह कहते हुए जाट आरक्षण, पाटीदार आरक्षण, मराठा आरक्षण को खारिज करता रहा है कि आरक्षण को 50 प्रतिशत से ऊपर नहीं बढ़ाया जा सकता है। न्यायालय के 5 पीठ के फ़ैसले ने अब यह व्यवधान ख़त्म कर दिया है। ईडब्ल्यूएस आरक्षण के लिए न्यायालय 50 प्रतिशत का स्लैब तोड़ने को तैयार हो गया है तो अब भविष्य में अन्य तरह के आरक्षणों के लिए भी जगह बन गई है। जाट, पाटीदार, मराठा, कापू के अलावा ओबीसी तबक़ा भी लगातार आरक्षण बढ़ाए जाने की मांग करता रहा है। मंडल कमीशन ने अपनी सिफारिशों में बताया था कि देश में ओबीसी की अनुमानित आबादी 52 प्रतिशत है। लेकिन उच्चतम न्यायालय ने आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत तय कर रखी थी, इसलिए मंडल आयोग ने ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण देने की सिफारिश की थी। अब यह मांग भी उठेगी कि एससी और एसटी को आबादी के अनुपात में आरक्षण दिया गया है और उसी तर्ज पर ओबीसी को भी उनकी आबादी के आधार पर आरक्षण दिया जाए।
गरीबी का सवाल
गरीब होना एक सापेक्ष अवधारणा है। सरकार ने इस पक्ष में कोई आंकड़ा प्रस्तुत नहीं किया है कि भारत में कितने गरीब हैं। साथ ही यह नहीं बताया गया है कि नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में गरीबों को आरक्षण दिए जाने से कितने गरीबों की गरीबी दूर की जा सकती है। सरकार ने यह भी नहीं बताया कि उसके पास कितनी नौकरियाँ हैं, कितने सरकारी संस्थान हैं, जिनके माध्यम से वह गरीबों की गरीबी दूर करने जा रही है। सरकार ने किसी तरह का कोई आंकड़ा प्रस्तुत नहीं किया है कि गरीबी दूर करने की यह योजना कितने साल के लिए लागू की जा रही है। सरकारी नौकरियों व शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण देकर वह कितने वर्षों में गरीबी उन्मूलन का लक्ष्य पूरा कर पाएगी? बगैर किसी आँकड़े के सरकार ने गरीबों के लिए आरक्षण का प्रावधान कर दिया। इसकी कोई ठोस कार्ययोजना नहीं लाई गई। आश्चर्यजनक रूप से न्यायालय ने सरकार के इस फ़ैसले पर मुहर लगा दी।
सबसे गरीब व्यक्ति का चयन
निश्चित रूप से सवर्ण तबक़े में भीषण गरीबी है। तमाम लोग भीख मांगकर जीवन-यापन कर रहे हैं। अगर सरकार आरक्षण के माध्यम से गरीबी दूर करना चाहती है तो गरीबों के चयन का क्या आधार होगा? इसमें उन गरीबों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए थी, जो सड़कों पर भीख मांगते हैं, बेसहारा हैं। भिखारियों में भी सबसे पीड़ित भिखारी का चयन किया जाना चाहिए, जो विकलांग हो, या किसी ऐसी बीमारी के शिकार हों, जिससे उसे भीख मांगने में भी दिक्कत आ रही है।
सरकार ने इसके पक्ष में कोई तर्क नहीं दिया है कि गरीबों के लिए आरक्षण पर पहला हक उनका होगा, जो भिखारी के साथ-साथ विकलांग भी हैं या वह किसी बीमारी से ग्रस्त हैं, जिससे वे भीख मांगने में भी सक्षम नहीं हैं।
यह प्रश्न भी न्यायालय ने अनुत्तरित छोड़ दिया है कि क्या सबसे गरीब व्यक्ति को इस फैसले से लाभ मिलेगा, क्या ऐसा कोई इंतजाम किया गया है?
प्रतिनिधित्व का सवाल
स्वतंत्रता संग्राम की पूरी लड़ाई प्रतिनिधित्व के मसले पर लड़ी गई। उसका मूल आधार यह था कि भारतीयों पर कोई विदेशी शासन नहीं कर सकता। कांग्रेस की शुरुआती लड़ाई आईसीएस की नौकरियों में भारतीयों को रखे जाने जैसे छोटे-छोटे मसलों से शुरू हुई। उसके बाद विधायिकाओं में भारतीयों के प्रतिनिधित्व से लेकर होम रूल और पूर्ण स्वराज होते हुए ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ तक मामला पहुंचा। आखिरकार 1947 में वह शुभ दिन आया, जब भारत अंग्रेजों के शासन से स्वतंत्र हो गया।
इसी तर्ज पर अंग्रेजों के शासनकाल से ही भारत में वंचित तबका लड़ाई लड़ रहा था कि उसे भी शासन सत्ता में भागीदारी मिलनी चाहिए। अंग्रेजों के समय ही एससी-एसटी को आरक्षण मिला। साथ ही दक्षिण भारत के राज्यों में तमाम अन्य पिछड़े वर्गों को आरक्षण दिया गया, जिससे शासन-सत्ता से वंचित लोगों को हिस्सा मिल सके। आरक्षण का मूल आधार यह बना कि जिस वर्ग को शासन में प्रतिनिधित्व नहीं है, उन्हें प्रतिनिधित्व दिया जाए।
ओबीसी, एससी, एसटी आरक्षण इसी आधार पर दिए गए कि समाज में नाई, धोबी, खटिक, मीणा आदि-आदि नाम से चिह्नित लोग शासन सत्ता में नहीं हैं। इससे इन्हें प्रशासन में भेदभाव झेलना पड़ता है। सत्ता में भागीदारी मिलने से इस वंचित तबक़े का शोषण ख़त्म होगा।
भाजपा की सत्तासीन सरकार को राजनीतिक लाभ लेना था, उसने ईडब्ल्यूएस आरक्षण दे दिया। लेकिन न्यायालय के फ़ैसले के बाद अब तमाम सवाल खड़े हो गए हैं, जिस पर राजनेताओं, बुद्धिजीवियों, न्यायालयों को विचार करना होगा। भारतीयों ने अंग्रेजों की सत्ता स्वीकार नहीं की। लंबी लड़ाई लड़ी। अंत में अंग्रेजों को खदेड़ा। ऐसे में कुछ जाति विशेष की सत्ता को शेष भारतीय किस आधार पर स्वीकार कर सकते हैं। स्वाभाविक है कि आरक्षण से जिस तरीक़े से छेड़छाड़ कर वंचितों को मिल रहे मामूली से हिस्से को छीनने की कोशिश की गई है, इसकी लड़ाई लंबी और महंगी चल सकती है।
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