अखिलेश ने संकेत दिए कि दिल्ली के गठबंधन पर सपा भी यही व्यवहार करेगी।' जाहिर है कि भविष्य में यही होकर रहेगा। समाजवादियों का नैसर्गिक स्वभाव है कि वे एक होकर न रह सकते हैं और न किसी के साथ चल सकते हैं। समाजवादी विचारधारा के अनुसार नि:स्वार्थ सेवा, त्याग और आध्यात्मिक प्रवृत्ति - इनमें शोषक और शोषित के लिए कोई स्थान नहीं। यदि किसी के पास कोई संपत्ति है तो वह समाज की धरोहर मात्र है, देखा जाये तो इसके अनुसार सभी लोग एक समान स्थिति में होने चाहिए। सबके लिए समानता। किन्तु आज देश के तमाम समाजवादियों का आचरण इस स्थापित सिद्धांत के ख़िलाफ़ है। फिर चाहे वे कहीं के समाजवादी हों।
भारत में किसान मजदूर पार्टी की स्थापना से लेकर आज की समाजवादी पार्टी के अलावा कितने समाजवादी दल देश में हैं इसकी गणना करना कठिन काम है। किसी के पास साइकल है तो किसी के पास लालटेन लेकिन हैं सबके सब अँधेरे में। पहले समाजवादी कांग्रेस की कोख में थे लेकिन जब बात नहीं बनी तो कांग्रेस से बाहर आकर अलग राजनीतिक दल बना बैठे। पहले कृषक मजदूर प्रजापार्टी फिर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी बनी। इससे भी काम नहीं चला तो डॉ. राम मनोहर लोहिया की एक अलग समाजवादी पार्टी बनी। समाजवाद के नाम पर कांग्रेस की तरह वामपंथी भी बंटे। और फिर समाजवादी पार्टी लगातार विभाजित होती रही। आज उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी है। बिहार में लालू प्रसाद यादव की अपनी पार्टी है। नीतीश कुमार की अपनी पार्टी है, ओडिशा में नवीन पटनायक की अपनी। सबके मूल में समाजवाद है लेकिन कैसा समाजवाद है ये दुनिया जानती है।
आज देश में जब भाजपा के खिलाफ एक साझा मंच बनाया गया है तब उसमें पहला वार उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव ने किया है। मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव इसका बहाना बने। मध्यप्रदेश में समाजवादी कांग्रेस से 6 सीटें चाहते थे लेकिन बात नहीं बनी और अब यादव धमकी दे रहे हैं कि उनके साथ जो भोपाल में हुआ वही सब वे दिल्ली में कांग्रेस के साथ करेंगे। हमारे समाजवादी मित्र रमाशंकर सिंह इस बाबत बहुत पहले ही भविष्यवाणी कर चुके हैं कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद विपक्षी एकता का शीराजा बिखरेगा और अब ये भविष्यवाणी सही साबित होती दिखाई दे रही है।
समाजवादी मध्यप्रदेश में चुनाव लड़कर उसी बीजेपी का लाभ कर सकते हैं जो उन्हें ईडी, सीबीआई और ऐसे ही दूसरे हथियारों से डराती-धमकाती रहती है। मध्यप्रदेश में फ़िलहाल कांग्रेस को किसी तीसरे दल के सहयोग की ज़रूरत नहीं है।
न समाजवादी पार्टी की और न आम आदमी पार्टी की। इस हकीकत को इन छोटे-मोटे दलों को समझना चाहिए था लेकिन नहीं समझा और अब अपने ही पांवों पर कुल्हाड़ी मारने लगे हैं। आम आदमी पार्टी भी मध्यप्रदेश में चुनाव लड़ रही है और समाजवादी पार्टी भी। बहुजन समाज पार्टी को चुनाव लड़ने से कुछ पैसा मिल जाता है। इस बार भाजपा के तमाम असंतुष्ट बसपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं।
इंडिया गठबंधन के सदस्य समाजवादी दल के सुप्रीमो अखिलेश यादव अपने पिता मुलायम सिंह यादव की तरह परिपक्व नहीं हैं। आपको याद होगा कि सत्ता को लेकर समाजवादी आपस में ही लड़ते आये हैं। पहले अखिलेश और उनके चच्चा शिवपाल में जूतम-पैजार हुई थी। बिहार में शरद यादव और नीतीश कुमार लड़े थे। राजद में भी तनातनी चलती ही रहती है। एक ओडिशा में नवीन पटनायक अपने पिता की बीजद को बिखरने से बचाये हुए हैं लेकिन वे किसी तीन- पांच में नहीं हैं। वे न भाजपा के दुश्मन हैं और न कांग्रेस के मित्र। अखिलेश यादव को या तो नवीन पटनायक से राजनीति सीखनी चाहिए या फिर बहन मायावती से। वे घमंड में भूल गए हैं कि यदि समाजवादी पार्टी विपक्षी गठबंधन से अलग रही तो भाजपा सत्ता में आये या कांग्रेस उसे 'हप्पा' की तरह निगल जाएगी।
समाजवादी पार्टी के व्यवहार को दरकिनार कर कांग्रेस ने मध्यप्रदेश विधानसभा की 230 सीटों में से 229 सीटों के लिए अपने प्रत्याशियों के नामों का ऐलान कर दिया है। कांग्रेस ने अंत में दो-तीन प्रत्याशियों को बदला भी है। यानी कांग्रेस अपनी धुन में अपना काम कर रही है। अखिलेश भूल जाते हैं कि वे उत्तर प्रदेश में नहीं मध्यप्रदेश में राजनीति करना चाहते हैं जहां उनकी पार्टी की हैसियत भी ठीक वैसी है जैसी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की। लेकिन कांग्रेस उत्तर प्रदेश में शून्य होकर भी आज देश के चार राज्यों की सत्ता में है। अर्थात कांग्रेस के सामने अखिलेश की पार्टी की हैसियत बहुत कम है।
अखिलेश किन शर्तों पर इंडिया गठबंधन में शामिल हुए थे ये वे जानें और कांग्रेस जाने, लेकिन इस समय उनकी भूमिका भाजपा के शुभचिंतक जैसी नजर आ रही है। अखिलेश को उनकी इस भूमिका का लाभ होगा या नुकसान ये भी उन्हें ही पता है किन्तु बाहर से लगता है कि वे न सिर्फ अपने पांव पर कुल्हाड़ी मार बैठे हैं बल्कि विपक्षी एकता के लिए भी वे खलनायक बन रहे हैं।
समाजवादी अपनी फक्कड़ शैली की वजह से कम से कम मुझे तो पसंद हैं। वे भले ही धन कुबेर बन गए हों लेकिन रहते फकीरों की तरह ही हैं। बात भी वैसी ही करते हैं लेकिन दुर्भाग्य ये है कि वे तोड़फोड़ के अपने आचरण को नहीं बदल पाए। तोड़फोड़ उनके डीएनए का अविभाज्य अंग बन गया है। समाजवादियों की ये खसलत है कि वे अपने आपको सबसे बड़ा राजनीतिज्ञ मानते हैं। जबकि देश का राजनीतिक इतिहास उठाकर देख लीजिये समाजवादी पिछले 75 साल में कभी राष्ट्रीय दल नहीं बन पाये। कभी अकेले सत्ता में नहीं आ पाए। वे कब, किस पार्टी के बगलगीर हो जाएँ ये उन्हें खुद पता नहीं होता।
समाजवादियों के लिए न कांग्रेस अस्पृश्य है और न भाजपा। न बीएसपी अछूत है और न कोई तीसरा दल। वे सबके साथ खिचड़ी पका सकते हैं और सबको एक झटके में पटकनी दे सकते हैं। रायता फैलाना समाजवादियों का जन्मसिद्ध अधिकार है।
(राकेश अचल के फेसबुक पेज से)
अपनी राय बतायें