जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने कल वह बात कह दी जो सब जानते थे मगर आज तक किसी राज्यपाल ने क़बूल करने की हिम्मत नहीं की थी। वह यह कि हर राज्यपाल वस्तुतः केंद्र के हाथ का एक रबर स्टांप है और वह वही करता है जो केंद्र चाहता है। हमने अतीत में और वर्तमान में ऐसे ढेरों उदाहरण देखे हैं, ख़ासकर जब किसी राज्य में किसी दल को बहुमत न मिला हो और दो पक्षों में से किसी एक को सरकार बनाने का न्योता देना हो तो राज्यपाल ने उसी पक्ष को पहले दावत दी है जो केंद्र में शासन करने वाले राजनीतिक दल से जुड़ा हुआ हो। कर्नाटक का उदाहरण सबसे ताज़ा है जब वहाँ के राज्यपाल ने बीजेपी के येदयुरप्पा को सबसे बड़े दल का नेता होने की दलील के आधार पर पहले सरकार बनाने का आमंत्रण दे दिया था और बहुमत जुटाने के लिए दो सप्ताह का समय भी दे दिया था जो सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद घटाया गया।
कश्मीर में भी स्थिति कमोबेश कर्नाटक जैसी ही थी हालाँकि ऊपरी तौर पर अलग नज़र आती थी। वहाँ येदयुरप्पा ख़ुद सरकार के मुखिया के रूप में सामने थे, यहाँ बीजेपी ने सज्जाद ग़नी लोन नाम से एक डमी को आगे कर दिया गया था। लेकिन चाल वही थी कि विपक्ष के लोगों में से कुछ घोड़े ख़रीदे जाएँ और बीजेपी के साथ एक मिलीजुली सरकार बनाई जाए भले ही स्पष्ट बहुमत विपक्षी दलों के गठजोड़ के पास हो।
लेकिन सत्यपाल मलिक ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने सज्जाद लोन के नेतृत्व में बीजेपी की सरकार नहीं बनने दी लेकिन साथ ही विपक्ष को भी सरकार बनाने का मौक़ा नहीं दिया। आख़िर वह क्या चीज़ थी जिसने मलिक को एक दूसरा वजूवाला बनने से रोका। यदि मलिक की बात मानें तो ऐसा उन्होंने इसलिए नहीं किया ताकि इतिहास में उन्हें एक बेईमान राज्यपाल के रूप में न याद करे।
मलिक न केंद्र के मोहरे बने न उसे पूरी तरह नाराज़ किया
- विश्लेषण
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- 28 Nov, 2018
सत्यपाल मलिक केंद्र को इतना नाराज़ भी नहीं करना चाहते थे कि विपक्ष की सरकार बनवा दें। इसलिए उन्होंने बीच का रास्ता चुना कि न इसकी सरकार बने, न उसकी सरकार बने।
