छत्तीसगढ़ में आख़िर रमन सिंह इतनी बुरी तरह क्यों हार गए? क्या उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों ने हरवा दिया? मीडिया रिपोर्टों की मानें तो छन-छन कर ऐसी ख़बरें आ रही हैं कि संघ परिवार के लोगों ने छत्तीसगढ़ में चुनावी अभियान से अपने हाथ पूरी तरह खींच लिए थे? क्यों? रमन सिंह से उनकी क्या नाराज़गी थी?
हालाँकि चुनाव के बाद हुए तमाम एग्ज़िट पोल में से केवल एक 'आज तक-एक्सिस' ने रमन सिंह की भारी हार की भविष्यवाणी की थी। लेकिन बहुत-से लोगों को इस पर यक़ीन नहीं हो रहा था कि रमन सिंह इतनी बुरी तरह हारेंगे। चुनाव के पहले ज़मीनी रिपोर्टें भी यह संकेत तो दे रही थीं कि दूसरे राज्यों की तरह छत्तीसगढ़ में भी बीजेपी का क़िला मुसीबत में तो है, शायद हार भी हो जाए, लेकिन हार इतनी बुरी होगी, इसका कोई अनुमान किसी को नहीं था।
रमन सिंह से उखड़ा रहा संघ
लेकिन अब ख़बरें आ रही हैं कि संघ ने वसुन्धरा राजे से भारी नाराज़गी के बावजूद अन्तिम क्षणों में राजस्थान में तो अपनी ताक़त लगा दी, लेकिन छत्तीसगढ़ में उसके लोग पूरी तरह उखड़े रहे। क्या कारण था? कहा जा रहा है कि संघ का स्थानीय नेतृत्व रमन सिंह से इस बात के लिए बहुत नाराज़ था कि ईसाई मिशनरियों को धर्मान्तरण कराने से रोकने के लिए रमन सिंह सरकार ने कोई ठोस क़दम नहीं उठाए।छत्तीसगढ़ में चुनावी नतीजे आने के बाद कई ऐसे ट्वीट आए थे जिसमें यही बात कह कर बीजेपी की हार पर 'ख़ुशी' ज़ाहिर की गई थी कि ईसाई मिशनरियों को धर्मान्तरण से नहीं रोका, इसीलिए ऐसी हार हुई।
यह बात तो ठीक है, लेकिन तब भी समझ में नहीं आता कि संघ के लोगों की ओर से ऐसा 'आत्मघाती' क़दम क्यों उठाया गया? रमन सिंह ने ईसाई मिशनरियों को नहीं रोका, इसलिए वे लोग नाराज़ थे, मान लिया। लेकिन रमन सिंह के हारने पर आने वाली कांग्रेसी सरकार से क्या वे उम्मीद कर सकते हैं कि वह ईसाई मिशनरियों पर लगाम लगाएगी?
कांग्रेस को तो संघ परिवार के लोग हमेशा से 'मुसलमानों और ईसाइयों की पार्टी' कह कर बदनाम करते रहे हैं। फिर रमन सिंह को हरा कर संघ के लोग कांग्रेस से ऐसी अपेक्षा क्यों करेंगे, समझ में नहीं आता! वैसे संघ को समझना इतना ही आसान होता, तब क्या बात थी! फ़िलहाल, जो कारण बताया जा रहा है, उसे ही मानना पड़ेगा।
अनुमान के मुताबिक़ नहीं हुई हार
राजस्थान से भी यह ख़बरें लगातार आती रही थीं कि वसुन्धरा राजे के रवैये से संघ के लोगों में गहरा ग़ुस्सा और नाराज़गी है। वसुन्धरा से नाराज़गी बीजेपी के कुछ लोगों में भी बहुत ज़्यादा थी और यही वजह थी कि घनश्याम तिवाड़ी और हनुमान बेनीवाल जैसे कुछ लोग पार्टी से अलग हो गए थे और वह अपनी नयी पार्टी बना कर चुनाव में उतरे थे।राजस्थान में इसी वसुन्धरा फ़ैक्टर की वजह से भी और वहाँ से कुछ महीनों पहले से आ रही ज़मीनी रिपोर्टों से भी यह अन्दाज़ा लग रहा था कि बीजेपी वहाँ बुरी तरह हारेगी और कांग्रेस को भारी बहुमत मिलेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और जब नतीजे आए तो कांग्रेस बमुश्किल बहुमत के आँकड़े के पास पहुँच पाई।
अंतिम दिनों में लगाई ताकत
अब सब लोग माथा खुजा रहे हैं कि ऐसा क्यों हुआ? ख़बरें थीं कि वसुन्धरा के रवैये की वजह से संघ के लोगों ने पहले सोच रखा था कि फ़िलहाल वे चुनाव अभियान से दूर रहेंगे, लेकिन चुनाव के मुद्दे पर बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और संघ सरकार्यवाह सुरेश भैयाजी जोशी के बीच हुई बैठक के बाद संघ कार्यकर्ताओं को मैदान में उतारने का फ़ैसला हुआ और इसीलिए 'वसुन्धरा फ़ैक्टर' को भूल कर संघ ने आख़िरी बीस दिनों में राजस्थान में अपनी पूरी ताक़त झोंक दी। नतीजा सामने है।दरअसल, राजस्थान और मध्य प्रदेश दोनों ही संघ के बहुत मज़बूत गढ़ बन चुके हैं और संघ इन दोनों ही राज्यों में अपनी ताक़त क़तई खोना नहीं चाहता। कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणापत्र में यह कह कर संघ में बेचैनी फैला दी थी कि अगर वह सत्ता में आई तो सरकारी स्थलों पर संघ की शाखा नहीं लगने देगी।
संघ की शाखाएँ आम तौर पर सरकारी ज़मीनों पर ही लगती हैं, इसलिए कांग्रेस के चुनावी घोषणापत्र में यह बात आने के बाद संघ को लगा कि चाहे वसुन्धरा को दुबारा बर्दाश्त करना पड़े, लेकिन कांग्रेस को तो सत्ता में आने से किसी भी क़ीमत पर रोका जाना चाहिए। दरअसल, इस मुद्दे को अपने चुनावी घोषणापत्र में शामिल करना कांग्रेस की एक बड़ी रणनीतिक ग़लती थी, जिसका ख़ामियाज़ा उसे भुगतना पड़ा।
संघ ने दिया था हार का फ़ीडबैक
जहाँ तक मध्य प्रदेश की बात है, शिवराज सिंह चौहान के संघ से हमेशा से मधुर सम्बन्ध रहे हैं। इसलिए संघ के लोग शुरू से ही वहाँ चुनाव को लेकर सक्रिय और चिन्तित थे। बताया जाता है कि कुछ दिनों पहले शिवराज सिंह चौहान जब भोपाल में चुनाव प्रचार के दौरान आधी रात में संघ के कुछ वरिष्ठ लोगों से मिले, तो उन्हें संघ के लोगों ने अपना आकलन बता दिया था कि सम्भवत: उनकी सरकार नहीं बच पाएगी।शिवराज के लिए जुटा संघ
संघ के लोगों का कहना था कि जनता में चौहान की अपनी छवि तो अच्छी है, लेकिन बहुत-से बीजेपी विधायकों के कामकाज और रवैये को लेकर लोग काफ़ी क्षुब्ध हैं और यह बीजेपी की हार का एक बड़ा कारण हो सकता है। बहरहाल, संघ ने मध्य प्रदेश में कड़ी मेहनत की, किसानों की नाराज़गी दूर करने के लिए सघन प्रयास किए, लोगों से अपीलें कीं कि वे 'नोटा' का बटन न दबाएँ, विधायकों के पिछले रवैये को भूल कर यह देखें कि शिवराज सिंह चौहान की इज़्ज़त दाँव पर लगी है।बीजेपी को कांग्रेस से ज़्यादा वोट मिले
संघ की इसी मेहनत का नतीजा था कि कांग्रेस को यहाँ भी बीजेपी को हराने में नाकों चने चबाने पड़े और सच कहें तो शायद क़िस्मत कांग्रेस के साथ थी क्योंकि आख़िरी समय में जब 10 सीटें हार-जीत के हज़ार वोटों से भी कम के अन्तर में फँसी थीं, उनमें से 7 सीटें कांग्रेस जीत गई और बीजेपी सिर्फ़ 3 सीट निकाल पाई। अगर यही आँकड़ा उलट गया होता तो आज मध्य प्रदेश में चौहान चौथी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रहे होते। रोचक तथ्य यह है कि राज्य में बीजेपी को कांग्रेस से 0.1% ही सही लेकिन ज़्यादा वोट मिले हैं। संख्या में यह अंतर 47,827 वोटों का है।
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