कोरोना महामारी से बचने के लिए लगाए गए लॉकडाउन ने क्या मानव स्वभाव को भी प्रभावित किया है? क्या कोरोना की वजह से हमारे मनोविज्ञान, स्वभाव, व्यवहार व कामकाज के तौर तरीकों में कोई फ़र्क आया है? जो फ़र्क आया है वह तात्कालिक है या इसका कोई दूरगामी असर होगा? ये तमाम बातें उठती हैं, जिनका उत्तर मनोविज्ञान से जुड़े लोग लगातार ढूंढ रहे हैं।
अमेरिका के मेसाच्युसेट्स स्थित ब्रैंडीज यूनिवर्सिटी के लाइफ़स्पैन डेवलपमेंट साइकोलॉजी लैबोरेटरी के मिरयम स्टेगर का मानना है कि लॉकडाउन का असर मानव मनोविज्ञान पर पड़ा है।
उन्होंने 'बीबीसी फ़्यूचर' से कहा, “इस अभूतपूर्व समय की वजह से लोगों को अपनी रूटीन की ज़िंदगी और आरामदायक जीवन को छोड़ना पड़ा, इसका असर लोगों के स्वभाव पर पड़ा हो, यह संभव है।”
मनोवैज्ञानिक बदलाव
हमारे रूटीन में कई महीनों तक हुए बदलाव ने हमारे व्यवहार को बदला हो और यह बदलाव स्थायी हो जाए या लंबे समय तक रहे, यह संभव है।
केलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय के पर्सनैलिटी चेंज लैबोरेटरी के वेबके ब्लीडर्न ने कहा,
“
लॉकडाउन की वजह से जीवन में आए बदलाव हममें नई प्रवृत्तियों को जन्म दे सकता है और ये प्रवृत्तियाँ हमारे व्यक्तित्व को नया रूप दे सकती हैं।
वेबके ब्लीडर्न, केलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय
लेकिन ये बदलाव पूरे व्यक्तित्व को ही किस हद तक प्रभावित कर सकते हैं और क्या इससे बिल्कुल नए व्यक्तित्व का विकास हो सकता है, इस पर कोई पक्की राय नहीं बनी है। इसकी वजह यह है कि कोरोना और लॉकडाउन से जुड़े पूरे आँकड़े अभी नहीं मिले हैं।
लेकिन यह तो साफ है कि लॉकडाउन की वजह से लोगों का स्वभाव-व्यवहार बदले हैं और कुछ बदलाव स्थायी रह जाएंगे।
इससे मनुष्यों में उस प्रवृत्ति का विकास हुआ है, जिसे मनोविज्ञान की भाषा में 'माइकलएंजेलो इफेक्ट' कहते हैं।
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क्या होता है 'माइकलएंजेलो इफेक्ट' ?
इसके तहत हमे जिस व्यक्ति से सहयोग या समर्थन मिलता है या जो हमारे अधिक नजदीक होता है या हम जिस पर निर्भर रहते हैं, उसके तरह ही हो जाना चाहते हैं। तो लॉकडाउन का एक नतीजा तो यह है कि इस संकट में जो हमारे नजदीक रहता है या जो हमारी मदद करता है, हम उसकी तरह ही होना चाहते हैं।
लॉकडाउन के दौरान बाहर नहीं निकलने, बाहर के लोगों से संपर्क कम होने और बहुत थोड़े लोगों के साथ ही दिन भर और लंबे समय तक रहने की वजह से लोगों का कम्युनिकेशन स्किल प्रभावित होता है और लोग अपने में ही सिमटने लगते हैं।
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डिप्रेशन
यूनिवर्सिटी ऑफ़ रीडिंग के शोध से पता चला है कि लॉकडाउन की वजह से लोगों में एकाकीपन और डिप्रेशन पहले से बहुत अधिक बढ़ा है। हालांकि लॉकडाउन के पहले हफ़्त में कुछ ख़ास असर नहीं है, लेकिन जैसे जैसे समय बीतता गया, लोगों में अवसाद बढ़ता गया।
जिनकी नौकरी चली गई, उनमें आत्मविश्वास की कमी देखी गई और वे समाज में खुद को कम फिट या सही समझने लगे।
जो लोग अंतरमुखी थे, उन्हें इन मामलों में लॉकडाउन में कम दिक्क़तों का सामना करना पड़ा। वे सोशल डिस्टैंसिंग में आसानी से ढल गए, उन्हें अपने आप में सिमट जाने या कम से कम लोगों से मिलने जुलने की स्थिति में जाने पर कोई ख़ास समस्या नहीं हुई।
बेहतर इंसान?
'बीबीसी फ़्यूचर' का कहना है कि कई शोधों से यह भी पता चलता है कि लोगों में सकारात्मक परिवर्तन भी हुए हैं। लोग चुनौतियाँ स्वीकार करने, खुद में बदलाव करने और खुद को नई भूमिकाओं में जल्दी से ढालने लगे हैं।
कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्याल के वेबके ब्लीडर्न का कहना है कि लोग वर्चुअल कम्युनिकेशन में पहले से अधिक खुल गए हैं और वे दूर दराज के लोगों से अधिक खुल कर बात करने लगे हैं। वे कहते हैं, "सोशल मीडिया और प्रौद्योगिकी विकास के कारण यह मुमकिन हुआ है कि लोग वर्चुअल सोशलाइजिंग करने लगे हैं।"
रिश्ते बेहतर?
लॉकडाउन के मनोवैज्ञानिक असर का अध्ययन भारत में भी हुआ है। इंडियन जर्नल ऑफ़ साइकिएट्री ने एक ऑनलाइन सर्वे में पाया है कि ज़्यादातर लोगों ने कहा है कि लॉकडाउन की वजह से उनमें एंग्जायटी बढ़ी है, वे अवसाद के शिकार हुए और उनके मानसिक स्वास्थ्य पर असर पड़ा है।
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घर-परिवार को अधिक समय देने के कारण रिश्तों में इस तरह का सुधार देखने को मिला है।
नेशनल मेंटल हेल्थ सर्वे में पाया गया है कि पहले जहां साइकिएट्रिक कारणों से मनोवैज्ञानिक रोग की संभावना 10 प्रतिशत थी, लॉकडाउन की वजह से वह बढ़ कर 40.5 प्रतिशत हो गई। इस सर्वे में यह भी पाया गया है कि लॉकडाउन की वजह से एकाकीपन, अवसाद, कुंठा, एन्जाइटी और डर की भावनाएं बढ़ी हैं। डिस्ट्रेस, इनसोमनिया यानी नींद में कमी बढी है।
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