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जेएनयू ने क्यों फिर हिंदुत्व को नकार दिया? 

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनाव के इस बार के नतीजे कई मायने में बेहद खास हैं। इस बार चुनाव 4 साल बाद हुए। एक बार  फिर से वामपंथी छात्र संगठनों का दबदबा कायम रहा। केंद्रीय पैनल के 4 में से 3 पदों पर वामपंथी संयुक्त मोर्चा चुनाव जीता। यह भी गौरतलब है कि जेएनयू को तीन दशक बाद पहला दलित प्रेसिडेंट मिला। बिहार के गया से आने वाले धनंजय बत्तीलाल बैरवा के बाद दूसरे दलित प्रेसिडेंट हैं। इससे भी ज्यादा खास बात ये है कि पिछले 10 साल से जेएनयू में बहुजनों वंचितों की मुखर आवाज बनी बापसा को केंद्रीय पैनल में पहली बार जीत मिली।
बापसा की प्रियांशी आर्य को महासचिव जैसे महत्वपूर्ण पद पर कामयाबी मिली है। हालांकि उनकी जीत के पीछे एक बड़ा कारण है कि लेफ्ट की जनरल सेक्रेटरी प्रत्याशी स्वाति सिंह का नामांकन मतदान से ठीक 6 घंटे पहले भोर में 4 बजे प्रशासन द्वारा रद्द कर दिया गया। स्वाति सिंह ने नामांकन रद्द होने के खिलाफ अनशन भी किया। लेकिन कामयाबी नहीं मिलते देख लेफ्ट ने एबीवीपी को हराने के लिए बापसा की प्रत्याशी प्रियांशी आर्य को समर्थन दे दिया। नतीजा यह रहा कि केंद्रीय पैनल में भगवा पूरी तरह से साफ हो गया। 
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इस साल के फरवरी माह में 'अम्बेडकरवाद और दलित राजनीति' पर भाषण देने के लिए जेएनयू जाना हुआ। समाज विज्ञान स्कूल में होने वाली यह गोष्ठी महज एक छोटे कमरे में सिमट गई थी। दलित और आदिवासी मुद्दों पर होने वाली इस गोष्ठी को किसी ऑडिटोरियम में करने की अनुमति नहीं प्राप्त हुई। यह सब कुछ उस जेएनयू में घटित हो रहा है जो लोकतंत्र का धड़कता दिल माना जाता है। जेएनयू परिसर अपनी संवादधर्मिता और लोकतांत्रिक मिजाज के लिए पूरे देश में विख्यात है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि दूरदराज के पिछड़े क्षेत्रों और हाशिए के समाजों से निकलकर आने वाले नौजवानों के लिए जेएनयू किसी सपने से कम नहीं होता। 
महत्वपूर्ण यह है कि इन आवाजों और प्रतिभाओं को पूरा अवसर यहां मिलता है। यह भी कहना जरूरी है कि जेएनयू की छात्र राजनीति केवल जेएनयू और छात्र हितों तक महदूद नहीं रहती बल्कि विदर्भ से लेकर बुंदेलखंड के किसानों के प्रश्नों पर भी चर्चा करती है। दलितों, आदिवासियों के उत्पीड़न से लेकर संवैधानिक अधिकारों तक की बात जेएनयू की दीवारों और नारों में दिखाई सुनाई पड़ती है। महिलाओं से लेकर एलजीबीटी के सवालों पर बड़ी मुखरता और संवेदनशीलता से जेएनयू में चर्चा होती है। अल्पसंख्यकों के मुद्दे हों या साम्प्रदायिकता और आतंकवाद की समस्या, सभी मुद्दों पर खुले दिमाग से चर्चा होना जेएनयू में आम बात है। इन तमाम मुद्दों पर जेएनयू में बड़े पैमाने पर संवाद होता रहा है।
वक्ता कोई भी हो, जेएनयू के छात्रों के सवालों के जवाब देना अनिवार्य होता है। यह जेएनयू की संस्कृति ही नहीं रवायत भी है। यह संस्कृति आज भी जेएनयू में मौजूद है। लेकिन संवाद के दायरे काफी सिकुड़ गए हैं। जो बहस मुबाहिसे बड़े हालों, हॉस्टल के मेसों और खुले मंचों पर हुआ करती थीं, अब कमरे की दीवारों और सत्ता प्रतिष्ठानों के प्रतिबंधों के दायरे में सिमटने लगी हैं। इसलिए भी यह चुनाव और उसके नतीजे महत्वपूर्ण हैं कि वामपंथी राजनीति पर अनवरत होते  आक्रमणों के बावजूद एबीवीपी चुनाव जीतने में नाकामयाब रही।
पिछले दिनों यह भी देखा गया कि मुख्य गेट से लेकर परिसर में जगह-जगह जेएनयू भगवा झंडों से पटा हुआ था। यह सही है कि जेएनयू भी उसी भारत का हिस्सा है जिसे 22 जनवरी को भगवा झंडों से पाट दिया गया था। लेकिन यह बात भी उतनी ही सही है कि जेएनयू कभी भेड़चाल नहीं चलता। यह परिदृश्य इसलिए भी आश्चर्यजनक था कि जो परिसर दक्षिणपंथी सांप्रदायिक राजनीति का दशकों से सबसे बड़ा वैचारिक और अकादमिक रूप से प्रतिरोध करता रहा है, उसमें भगवा झंडों का साम्राज्य सामान बात नहीं थी! लेकिन चुनाव में जेएनयू के छात्रों ने एबीवीपी को हराकर यह ऐलान कर दिया है कि परिसर को हिंदुत्व की आक्रामक राजनीति और उसके मूल्य नापसंद हैं।
इन 10 सालों में जेएनयू में भी बहुत कुछ बदला है। अकादमिक स्तर से लेकर के छात्र राजनीति तक दक्षिणपंथी हिंदुत्व का प्रभाव बढ़ा है। हिंदुत्व का प्रभुत्व स्थापित करने के लिए वामपंथी धड़ों पर एकेडमिक हमलों से लेकर शारीरिक हमले तक किए गए। नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद पहली बार जेएनयू में 2016 की फरवरी में विवाद में आया। इसके पहले जेएनयू एक ख्वाबगाह हुआ करता था। दूरदराज के गांव-कस्बों से लेकर महानगरों के उच्च मध्यवर्गीय नौजवान अपने सपने को पूरा करने के लिए जेएनयू आते थे लेकिन जाते थे एक वैचारिक ऊर्जा लेकर। फिर चाहे वह प्रोफेसर बने या पत्रकार,  आईएएस बने या वैज्ञानिक; उसका दिल हमेशा लोगों के लिए धड़कता था। असमानता और न्याय को देखकर उसके भीतर का लावा फूट पड़ता था।
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जेएनयू में पढ़ते-गढ़ते हुए  नौजवान एक ऐसे भारत और दुनिया का सपना बुनते हैं जिसमें न्याय और गरिमापूर्ण जीवन हो। इसीलिए चाहे गोहाना कांड हो या निर्भया केस, आदिवासियों की हत्या हो या किसानों की आत्महत्या; जेएनयू के छात्र- नौजवान दिल्ली की सड़कों पर क्रांति के गीत गाते हुए निकल पड़ते थे। प्रेम में पड़ा हुआ और किताबों में डूबा हुआ जेएनयू का नौजवान हमेशा मनुष्यता के ताप को महसूस करता रहा है। एक बार फिर जेएनयू के नौजवानों ने अपने चुनावी नतीजों में दिखा दिया है कि सत्ता प्रतिष्ठान और हिंदुत्व के आक्रमण के बावजूद वैचारिक मजबूती के साथ खड़ा हुआ है।
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क़मर वहीद नक़वी
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