राष्ट्रपति चुनाव के उम्मीदवार तय हो चुके हैं। सत्ता पक्ष से द्रौपदी मुर्मू और विपक्ष की ओर से यशवंत सिन्हा। एक उम्मीदवार आदिवासी हैं, महिला हैं और पूर्व राज्यपाल हैं। तो, दूसरे उम्मीदवार पूर्व नौकरशाह हैं, पूर्व वित्त मंत्री हैं और उम्मीदवार बनने से पहले तक टीएमसी के उपाध्यक्ष रहे हैं।
मगर, एक बड़ा फर्क ऐसा है जो यशवंत सिन्हा का वजन द्रौपदी मुर्मू के सामने हल्का कर देता है। यह फर्क है कि यशवंत सिन्हा न तो समूचे विपक्ष की साझा पसंद हैं और न ही वे जिनकी पसंद बने हैं, उनकी पहली पसंद हैं।
विपक्ष की ओर से राष्ट्रपति उम्मीदवार बनने से पहले शरद पवार ने मना किया, फिर गोपाल कृष्ण गांधी और फारूक अब्दुल्ला ने। इस तरह यशवंत सिन्हा के नाम के सेलेक्शन का वास्तविक आधार रिजेक्शन है। कई नेताओं ने प्रस्ताव ठुकराए और तब यशवंत सिन्हा का नाम सामने आया।
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रणनीतिक है द्रौपदी मुर्मू की उम्मीदवारी
चूंकि एनडीए ने राष्ट्रपति पद के लिए अपने उम्मीदवार के नाम का एलान विपक्ष के उम्मीदवार के सामने आने के बाद किया, इसलिए इस चयन में रणनीति नज़र आती है। बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने साफ किया कि 20 उम्मीदवारों के नामों पर विचार करने के बाद द्रौपदी मुर्मू के नाम पर सहमति बनी।
जेपी नड्डा ने सर्वसम्मत राष्ट्रपति की कोशिशों का भी जिक्र किया और बताया कि इसमें विपक्ष की रुचि नहीं दिखी। इस तरह उन्होंने सर्वसम्मति नहीं हो पाने का ठीकरा विपक्ष के माथे मढ़ दिया।
राष्ट्रपति चुनाव में मजबूत उम्मीदवार वही होता है जो वोटरों के बीच अपने दम पर कोई असर डाल सके। या तो उम्मीदवार के कारण किसी पार्टी का समर्थन मिल जाए, क्षेत्र से समर्थन की आवाज़ उठने लगे या फिर विचारधारा के आधार पर वोट बैंक में सेंधमारी की जा सके। इस आधार पर यह परखा जाना चाहिए कि द्रौपदी मुर्मू और यशवंत सिन्हा में कौन मजबूत उम्मीदवार है?
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यूपीए ने समझौता किया, एनडीए डटा
विचारधारा के तौर पर देखें तो यशवंत सिन्हा को राष्ट्रपति के उम्मीदवार के तौर पर स्वीकार कर यूपीए ने खुद अपनी ही विचारधारा से समझौता किया है। सिर्फ इतना भर नहीं है कि यशवंत सिन्हा गैर कांग्रेसी हैं। बल्कि, वे विचारों से भी दक्षिणपंथी रहे हैं। ऐसे में राष्ट्रपति चुनाव में यूपीए और कम से कम कांग्रेस तो विचारधारा की लड़ाई लड़ती नहीं दिख रही है।
बीजेपी ने ओडिशा से अपनी ही पार्टी की विधायक और मंत्री रहीं झारखण्ड की पहली महिला राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू का जब चयन किया तो वह विचारधारा पर बिल्कुल डटी दिखी। चुनाव में जीत के बाद राष्ट्रपति के रूप में बीजेपी अपनी ही पार्टी की एक पूर्व कार्यकर्ता, शिक्षाविद व पूर्व राज्यपाल को पदस्थापित करेगी।
बेटे का वोट जोड़ पाएंगे यशवंत?
यूपीए और विपक्ष के एक हिस्से की ओर से यशवंत सिन्हा का नाम तय करने में कोई रणनीति नज़र नहीं आती। यशवंत सिन्हा अपने दम पर अपने बेटे का भी वोट हासिल कर लें तो यह विपक्ष के लिए और खुद उनके लिए उपलब्धि होगी। यशवंत सिन्हा के बेटे जयंत सिन्हा मोदी सरकार में केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री रहे हैं। ये वही व्यक्ति हैं जिन्होंने मॉब लिचिंग के आरोपियों का स्वागत फूल-माला चढ़ाकर किया था।
वाजपेयी सरकार में वित्त मंत्री रहे यशवंत सिन्हा ने लंबे समय तक बीजेपी विरोध की राजनीति चलाने की कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हो सके। अपने गृह प्रदेश में भी बीजेपी को मामूली नुकसान पहुंचाने की क्षमता का प्रदर्शन भी वे नहीं कर सके। ऐसे में बीजेपी के वोट बैंक में वे सेंधमारी कर सकेंगे, इसकी संभावना भी नहीं के बराबर है।
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बीजेडी करेगा लामबंदी, संशय में हेमंत
बीजेपी और एनडीए की ओर से द्रौपदी मुर्मू की उम्मीदवारी में यह ताकत है कि वे ओडिशा से बीजेडी का समर्थन हासिल कर सकते हैं। और, आदिवासी होने के नाते आदिवासी विधायकों, सांसदों पर भी अपने लिए समर्थन का माहौल बना सकते हैं। यूपीए के खेमे में भी दरार डालने की क्षमता द्रौपदी मुर्मू की उम्मीदवारी में है। झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के लिए द्रौपदी मुर्मू के खिलाफ मतदान करना आसान नहीं होगा।
राष्ट्रपति चुनाव के आदिवासी वोटर देश के अलग-अलग हिस्सों में हैं। पूर्वोत्तर में भी इसका असर देखने को मिल सकता है।
देश में यूपीए से दूरी रखने वाले जो विपक्षी दल हैं जैसे अकाली दल, बीजेडी, टीआरएस, वाईएसआर कांग्रेस, टीडीपी- वे द्रौपदी मुर्मू के नाम पर एकजुट होंगे तो इसकी एक वजह ओडिशा से होने की वजह से बीजेडी का निश्चित समर्थन है।
बीएसपी करेगी मुर्मू का समर्थन?
अब बीजेडी भी राष्ट्रपति चुनाव में द्रौपदी मुर्मू के लिए वोट मांगती नज़र आएगी और इसका असर विपक्ष के इस धड़े पर पड़ेगा। यहां तक कि महिला और आदिवासी उम्मीदवार होने की वजह से बीएसपी का वोट भी द्रौपदी मुर्मू को मिलना तय मानिए। आम आदमी पार्टी के रुख की प्रतीक्षा जरूर रहेगी जिसका यशवंत सिन्हा और तृणमूल कांग्रेस से अच्छा संबंध रहा है लेकिन पार्टी ने ममता बनर्जी की बुलाई बैठक से बाहर रहने का फैसला किया था। इस वजह से आम आदमी पार्टी के रुख पर सबकी नज़र है।
यशवंत सिन्हा के नाम पर यूपीए में शामिल दलों के अलावा तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, शिवसेना और वामपंथी दल ही इकट्ठे होते नज़र आते हैं। इनमें भी यशवंत सिन्हा का कोई योगदान नहीं दिखता। किसी भी उम्मीदवार के नाम पर यह गोलबंदी निश्चित प्राय थी।
एकतरफा हुआ राष्ट्रपति चुनाव
वर्तमान राष्ट्रपति चुनाव अब एकतरफा हो गया लगता है। बीजेपी के पास लगभग 49 फीसदी वोट हैं। जबकि, यूपीए और उसे समर्थन देती दिख रही विपक्षी पार्टियों के पास बमुश्किल 36 प्रतिशत वोट नज़र आते हैं। विपक्ष में शेष क्षेत्रीय पार्टियों के पास भी करीब 15 प्रतिशत वोट हैं। ऐसा लगता नहीं है कि ये वोट यशवंत सिन्हा की ओर रुख करेंगे। ऐसे में वर्तमान राष्ट्रपति का चुनाव भी लगभग वैसा ही होता दिख रहा है जैसा पिछली दफा हुआ था। तब रामनाथ कोविंद और मीरा कुमार के बीच लगभग 65-35 फीसदी वाला मुकाबला हुआ था।
महाराष्ट्र की सियासत में आया भूचाल राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए उम्मीदवार के लिए मददगार साबित हो सकता है। यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गांधी का बीमार होना और राहुल गांधी से ईडी की जारी पूछताछ का असर भी राष्ट्रपति उम्मीदवार के चयन में दिखा है। अगर यूपीए की चलती तो यशवंत सिन्हा तो कतई उनकी पसंद बनकर नहीं उभरते।
उम्मीदवार के चयन में एनडीए निश्चित रूप से विपक्ष पर भारी पड़ गया है। राष्ट्रपति चुनाव तो विपक्ष हार ही रहा है, उसकी वैचारिक हार भी होती दिख रही है।
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