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कितनी हिंदुत्ववादी रही है शिवसेना?

बड़े जोर-शोर से यह बात उठायी जा रही है कि हिन्दुत्व के मार्ग से हटने की वजह से शिवसेना में बगावत हुई है और बागी चाहते हैं कि शिवसेना को वापस हिन्दुत्व की राह पर लौटाया जाए। बागियों का नेतृत्व कर रहे शिवसैनिक एकनाथ शिंदे के बयानों और उनके पक्ष में बीजेपी नेताओं की ओर से आ रहे इसी आशय की प्रतिक्रियाओं ने ऐसा वातावरण बनाने की कोशिश की।

लेकिन सच्चाई क्या है? सच यह है कि कांग्रेस की सहयोगी बनकर भी शिवसेना हिन्दुत्व की झंडाबरदार रही है और बीजेपी के साथ रहकर भी वह ऐसा करने का दावा करती रही है।

सवाल यह है कि क्या बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बना लेने से शिवसेना को हिन्दुत्व के मार्ग पर लौटा हुआ मान लिया जाएगा? ये कौन लोग हैं जो बीजेपी की छाया से दूर हिन्दुत्व का अस्तित्व ही नहीं मानते? ऐसे लोगों को शायद यह पता नहीं कि शिवसेना पहले बनी या बीजेपी?

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आपातकाल में शिवसेना ने कांग्रेस का साथ दिया

हालांकि गैर बीजेपी दलों- कांग्रेस और एनसीपी- से गठजोड़ को भी हिन्दुत्व के मार्ग से विचलन के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है। लेकिन, यह भी दुष्प्रचार इसलिए है क्योंकि ऐसा नहीं है कि शिवसेना इससे पहले कभी कांग्रेस के करीब नहीं गयी हो। शिवसेना ने आपातकाल का समर्थन किया था और कांग्रेस का साथ दिया था। खुद बाला साहेब ठाकरे ने बंबई के राजभवन में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मुलाकात की थी और न सिर्फ आपातकाल का समर्थन किया था बल्कि इसे साहसिक कदम बताते हुए उन्हें बधाई भी दी थी। कांग्रेस से नजदीकी के अन्य उदाहरणों पर भी गौर करें-

  • 1977 के लोकसभा चुनाव में भी शिवसेना ने कांग्रेस का समर्थन किया था। 
  • 1977 में कांग्रेस नेता मुरली देवड़ा को मुंबई का मेयर बनाने में बाला साहेब ठाकरे की भूमिका थी।
  • 1980 में हुए लोकसभा चुनाव में शिवसेना ने महाराष्ट्र में कांग्रेस के विरुद्ध उम्मीदवार नहीं उतारे थे।
  • 2007 के राष्ट्रपति चुनाव में शिवसेना ने एनडीए के उम्मीदवार भैरों सिंह शेखावत का समर्थन न कर यूपीए की उम्मीदवार प्रतिभा सिंह पाटिल का समर्थन किया था।
  • 2012 में भी विपक्ष के राष्ट्रपति उम्मीदवार पूर्णेन्दु संगमा के साथ खड़े न होकर बाला साहेब ठाकरे की शिवसेना यूपीए उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी के साथ खड़े दिखे। 
Shiv Sena and Hindutva politics - Satya Hindi

...‘अछूत’ समझी जाती थी बीजेपी

सच यह है कि बीजेपी भारतीय राजनीति में अछूत की तरह हुआ करती थी। कोई भी दल बीजेपी के साथ राजनीतिक गठबंधन नहीं करना चाहता था क्योंकि इससे उसके भी राजनीतिक रूप से अछूत हो जाने का खतरा रहता था। ऐसे में बाला साहेब ठाकरे ने बीजेपी से गठजोड़ करने की हिम्मत दिखलायी और 80 के दशक में शिवसेना और बीजेपी एक-दूसरे के करीब आ गये। यहां तक कि बाबरी विध्वंस के बाद आडवाणी और वाजपेयी जैसे नेता इसे काला दिन बता रहे थे, लेकिन बाला साहेब ठाकरे ने इसे गर्व का दिन बताया था। उन्होंने कहा था कि अगर उन्हें पता चलता है कि इसमें शिवसैनिकों का हाथ है तो यह उनके लिए गर्व की बात होगी। 

मतलब यह कि यहां भी हिन्दुत्व के मामले में बीजेपी पर शिवसेना उन्नीस नहीं बीस पड़ती दिख रही थी।

बागी शिवसैनिक और उनका साथ दे रहे बीजेपी नेता कह रहे हैं कि उद्धव सरकार ने हिन्दुत्व से समझौता किया। इसके लिए उदाहरण के तौर पर अनुच्छेद 370 हटाते वक्त की प्रतिक्रिया, पालघर मॉब लिंचिंग, हिजाब विवाद, ल़ाउडस्पीकर विवाद, हनुमान चालीसा विवाद जैसी घटनाएं बतायी जाती हैं। 

लेकिन, सवाल यह है कि इन सवालों के बीच भी शिवसेना अगर बीजेपी से मिलकर सरकार बना ले तो सारे ‘पाप’ धुल जाएंगे? बागी शिवसैनिक और बीजेपी नेताओं की प्रतिक्रियाएं यही कहती हैं। ऐसे में विपक्ष की वह बात सही साबित होती नज़र आती है कि बीजेपी की लाउन्ड्री में सारे दाग धुल जाते हैं।

‘हिन्दुत्व’ से मतलब न एकनाथ को है न बीजेपी को

हिन्दुत्व से मतलब न एकनाथ शिंदे को है और न ही उन्हें मदद कर रही बीजेपी को। लंबे समय से बीजेपी को महाराष्ट्र में सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद सत्ता से दूर रहने का मलाल रहा है। शिवसेना में असंतुष्ट दिख रहे एकनाथ शिंदे की महत्वाकांक्षा को पंख लगाकर बीजेपी ने उन्हें उड़ने के लिए तैयार बनाया। इस बाबत गुजरात से लेकर असम तक सारी सुविधाएं उपलब्ध करायीं। रणनीति बनी कि जब तक दो तिहाई शिवसैनिकों को इकट्ठा नहीं कर लिया जाता है तब तक महाराष्ट्र से दूर उद्धव और महाराष्ट्र विकास आघाडी सरकार को एक पैर पर खड़ा रखा जाए। मौका मिलते ही नयी सरकार बनाने की पहल कर दी जाए। 

इस पूरी योजना को अंजाम देने के लिए हिन्दुत्व के नारे का इस्तेमाल जरूर किया गया है।

Shiv Sena and Hindutva politics - Satya Hindi
एकनाथ शिंदे ने डिप्टी स्पीकर और राज्यपाल के पास 37 विधायकों के समर्थन होने की चिट्ठी भेज दी गयी है। सबने एकनाथ शिंदे को अपना नेता चुना है इससे भी अवगत करा दिया है। मगर, डिप्टी स्पीकर ने इस चिट्ठी पर संदेह जताकर यह संकेत दे दिया है कि भौतिक सत्यापन किए बगैर वे एकनाथ शिंदे के दावे को मानने नहीं जा रहे हैं। यह बात महत्वपूर्ण है कि महाराष्ट्र से बाहर अलग-अलग राज्यों और होटलों में सत्ता गिराने और बनाने का उपक्रम लोकतांत्रिक नहीं हो सकता। 
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उद्धव सरकार रहे तो उसका आधार लोकतांत्रिक होना चाहिए और यह सरकार न रहे तो भी उसका आधार लोकतांत्रिक ही होना चाहिए। इसके लिए यह बात हमेशा महत्वपूर्ण रहेगी कि विधायकों की सारी गतिविधियों का केन्द्र प्रदेश और उसकी विधानसभा होनी चाहिए।

अगर ऐसा नहीं होता है तो विधायकों को जोड़ने-तोड़ने और किसी पार्टी को सत्ता से बाहर करने के सियासी खेल में थैलीशाह, तस्कर, माफियाओं की भूमिका बढ़ती चली जाएगी।  

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प्रेम कुमार
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