आम आदमी पार्टी क्या दिल्ली में फिर कमाल करेगी? क्या वो चौथी बार सरकार बना कर नया इतिहास रचेगी? क्या केजरीवाल फिर दिल्ली के मुख्यमंत्री बनेंगे? ये सवाल मौजूदा चुनाव के दौरान दिल्ली के लोगों को मथ रहे हैं। ऐसे में जब कि दिल्ली में मतदान में कुछ ही दिन बाक़ी हैं, ये सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या ये वही ‘आप’ है जो देश में राजनीतिक व्यवस्था को बदलने का वादा करके सत्ता में आयी थी? क्या केजरीवाल वही नेता हैं जो रोज राजनेताओं को जी भर भर के गालियाँ दिया करते थे?
आप दिल्ली और देश की राजनीति में एक धूमकेतु की तरह उभरी थी। वो एक उम्मीद थी कि देश की राजनीति बदलेगी। देश में बेईमान नेताओं की जगह ईमानदार लोगों के हाथ सत्ता की चाभी होगी। आम आदमी की सुनी जायेगी। उनके हितों की रक्षा की जायेगी। राजनीति नेताओं का पेट नहीं भरेगी, वो लोगों की तकलीफ़ों का इलाज करेगी। आप से उसे उम्मीद थी। लेकिन 2025 आते-आते वो उम्मीद जाती रही। केजरीवाल की पार्टी आज दूसरे दलों की तरह हो गई है। केजरीवाल अब कोई क्रांतिकारी नेता नहीं रहे। वो भी दूसरे नेताओं की जमात में शामिल हैं। ऐसे में 2025 विधानसभा का चुनाव एक सामान्य चुनाव है।
2013, 2015 और 2020 विधानसभा चुनाव में आप को एक नैतिक ताक़त के तौर पर देखा जाता था। लेकिन 2020 से 2025 में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ आ चुका है। ये चुनाव आप और बीजेपी के बीच एक सामान्य चुनाव है। दो दलों के बीच चुनाव है। जिसमें कोई भी दल नैतिकता का दावा नहीं कर सकता जैसा ‘आप’ अब तक करती रही थी। ऐसे में लड़ाई ज़बरदस्त है और ये देखना दिलचस्प होगा कि क्या बीजेपी दिल्ली में आप को टक्कर दे पायेगी?
इस चुनाव में ‘आप’ के ख़िलाफ़ तीन चीज़ें जा रही हैं।
1.
2013 के बाद ‘आप’ का लगातार सरकार में रहना। उसके ख़िलाफ़ सरकार विरोधी नाराज़गी दिख रही है जो किसी भी उस सरकार के ख़िलाफ़ होती है जो लंबे समय तक सत्ता में रहती है। मोदी को भी 2024 में इसी सत्ता विरोधी ग़ुस्से का सामना करना पड़ा था और वो बहुमत से दूर रह गये थे।
2.
‘आप’ के शीर्ष नेताओं पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे हैं। खुद केजरीवाल छह महीने जेल में रहे। मनीष सिसोदिया और संजय सिंह को भी जेल में रहना पड़ा। दूसरे नेता भी सलाख़ों के पीछे रहे। शराब घोटाले का पूरा सच आना बाक़ी है लेकिन ‘शीशमहल’ दिल्ली वालों की आँखों के सामने है, जो इस बात का सबूत है कि ‘आप’ पिछले दस सालों में कितनी बदल गई है। केजरीवाल वही नेता हैं जो कहा करते थे कि मुख्यमंत्री और कैबिनेट मंत्रियों को दो कमरे के फ़्लैट में रहना चाहिये। क्यों उन्होंने करोड़ों रुपये अपने बंगले में पानी की तरह बहाये? इसकी क्या ज़रूरत थी? दो कमरे में रहने का ख़्वाब क्यों हवा हवाई हो गया? क्या वो चुनाव जीतने का एक पाखंड था?
3.
विधानसभा चुनाव में दिल्ली के लोग केजरीवाल के नाम पर वोट करते थे। लोकसभा में वो मोदी को चुनते हैं। विधानसभा चुनाव में ‘आप’ को 2015 और 2020 में तक़रीबन 54% वोट पड़ा। लेकिन लोकसभा में उसके वोट में भारी कमी हो जाती है।
लोकसभा में बीजेपी को 54% से ज़्यादा वोट 2020 और 2024 में मिले। लेकिन विधानसभा चुनाव में बीजेपी पिट जाती है। लेकिन इस बार लगता है कि ‘आप’ के वोट में कमी आयेगी और बीजेपी का वोट शेयर 2020 की तुलना में बढ़ सकता है। ऐसे में हार-जीत इस बात पर निर्भर करेगी कि कांग्रेस किसका और कितना वोट काटेगी। अगर कांग्रेस मज़बूती से चुनाव लड़ी और वो 10% से अधिक वोट लेकर आयी तो बीजेपी को नुक़सान होगा क्योंकि इससे ‘आप’ विरोधी वोट में सेंध लगेगी और ‘आप’ फ़ायदे में रहेगी। और अगर चुनाव बीजेपी और ‘आप’ में बंट गया तो फिर ‘आप’ को नुक़सान हो सकता है और वो चुनाव में घाटे में रह सकती है।
‘आप’ से दिल्ली में ऊपरी मध्यवर्ग काफ़ी नाराज़ है। ये वही वर्ग है जिसने ‘आप’ को सत्ता में प्रतिष्ठित किया था। उसे लगा था कि ‘आप’ एक क्रांति कर सकती है। लेकिन अब उसका भ्रम टूट गया है। वो ‘आप’ को सबक़ सिखाना चाहता है। ऐसे में ‘आप’ को दिल्ली चुनाव में तीन तबक़ा बचा सकते हैं- मुस्लिम, दलित और महिला।
1. मुस्लिम वोटर
2. दलित वोटर
2020 में 69% दलितों ने ‘आप’ को वोट दिया था। ऐसा सीएसडीएस का सर्वे कहता है। ‘आप’ पहले गांधी की बात करती थी अब वो बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की तस्वीर अपने दफ़्तरों में लगाती है। ‘आप’ को दलित आंदोलन की कितनी समझ है, ये अलग तरह का सवाल है लेकिन दलित ‘आप’ को छोड़ कर बीजेपी के पास जायेंगे कहना मुश्किल है।
'संविधान बचाओ अभियान' की वजह से कांग्रेस दलितों की पसंद हो सकती थी लेकिन चूँकि वो बीजेपी को हराने की स्थिति में नहीं लिहाज़ा वो ‘आप’ पर ही भरोसा करेगी।
3. महिला वोटर
ये तीन तबक़े इस चुनाव में केजरीवाल के संकट मोचक साबित होंगे। ख़ासतौर पर महिला वोटर केजरीवाल को जिता सकता है। लेकिन इसका ये अर्थ नहीं है कि 2020 की तरह ही महिलाएँ छप्पर फाड़ कर वोट देंगी। कमी आयेगी लेकिन इतनी नहीं कि ‘आप’ की नैया डुबो दे।
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