भाजपा के कुशासन से देश को मुक्त करने के लिए विपक्षी एकता की सबसे बड़ी धुरी कांग्रेस है । कांग्रेस यदि अपने पारम्परिक रास्ते से भटकी तो रास्ते में ही अटक जाएगी। आम चुनाव से पहले विपक्षी गठबंधन के साथी आम आदमी पार्टी के साथ उसका व्यवहार और मध्यप्रदेश में ' कांटे से कांटा निकालने की नीति पर चलना कांग्रेस के लिए घातक हो सकता है। मध्यप्रदेश में कांग्रेस अचानक धर्मभीरु होती दिखाई दे रही है जबकि दिल्ली में कांग्रेस प्रवक्ता अलका लाम्बा ने 'आप 'के खिलाफ सभी 7 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े करने की बात कही है।
हालाँकि कांग्रेस हाईकमान ने लाम्बा के ब्यान को खारिज कर दिया।
इस समय देश में पांच विधानसभाओं के चुनावों के साथ ही आम चुनावों की तैयारियां भी सभी राजनीतिक दल कर रहे है । सबसे ज्यादा तैयारी भाजपा को करनी पड़ रही है क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी ने अपने आप खुद को तीसरे टर्म का प्रधानमंत्री घोषित कर दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तीसरे टर्म की घोषणा यदि भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्ढा या आरएसएस प्रमुख डॉ मोहन भागवत करते तो और बात होती। लेकिन लगता है की मोदी अब पार्टी और संघ दोनों से ऊपर उठ चुके हैं। वे जो कहेंगे पार्टी और संघ के लिए अकाट्य होगा।
कांग्रेस ने मध्यप्रदेश में सत्ता में वापसी के लिए कर्नाटक का पैटर्न छोड़कर अपने आपको भगवा रंग में रंगने की कोशिश शुरू कर दी है । प्रदेश के किशोर बाबा धीरेन्द्र शास्त्री को छिंदवाड़ा बुलाकर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने एक तरह से अपने और कांग्रेस के पांवों पर कुल्हाड़ी मार ली है। धीरेन्द्र शास्त्री उर्फ़ बागेश्वर धाम के सुप्रीमो घोषित तौर पर भाजपा के एजेंडे पर काम कर रहे हैं। वे भाजपा के प्रिय बाबा हैं क्योंकि आजकल सबसे ज्यादा भीड़ उन्हीं की और आकर्षित हो रही है। भीड़ को आकर्षित करने के लिए ही कमलनाथ धीरेन्द्र को आपने यहां ले गए । उनकी आरती उतारी ,पांव पखारे। यही काम भाजपा कर रही है । भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह से लेकर उनके मंत्रिमंडल के तमाम सदस्य धीरेन्द्र की चुंबक से भीड़ को खींचने का काम कर रहे हैं।
कमलनाथ हालाँकि अघोषित रूप से धार्मिक आदमी हैं। उन्होंने अपने यहां हनुमान जी का विशाल मंदिर बनवा रखा है। लेकिन वे बजरंगी नहीं हैं। उनकी तरह ही पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह भगवाधारयों का सम्मान करने वालों में अग्रणीय रहे हैं किन्तु वे भी बजरंगी नहीं है। बजरंग दल के हुड़दंग के वे सदैव खिलाफ रहे हैं ,कमलनाथ के भक्तिभाव की वजह से दिग्विजय सिंह को भी बजरंग दल के प्रति अपने स्वर नरम करने पड़ रहे है। उन्होंने ऐलान कर दिया है कि यदि मप्र में कांग्रेस की सरकार बनी तो बजरंग दल पर पाबंदी नहीं लगाई जाएगी जबकि पहले इसके उलट बात थी। कांग्रेस के नेता बजरंगदल पर प्रतिबंध की बात अक्सर किया करते थे।
कांग्रेस की पहचान एक धर्मनिरपेक्ष दल की है। कांग्रेस ने कभी हिंदुत्व का आसरा नहीं लिया। कांग्रेस चाहती तो अयोध्या में रामलला का ताला खुलवाने का श्रेय ले सकती थी किन्तु कांग्रेस ने अपने धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को बनाये रखने के लिए ये सब नहीं किया। कांग्रेस के नेता व्यक्तिगत रूप से भगवाधारियों का इस्तेमाल अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में करते रहें हैं किन्तु पार्टी स्तर पर इनका इस्तेमाल कभी नहीं किया गया।
ये अंतर्विरोध मध्यपप्रदेश में कांग्रेस को भारी पड़ सकता है। कांग्रेस यदि धर्मनिरपेक्षता का रास्ता छोड़ेगी तो भटक जायेगी । इसका भान अभी शायद कांग्रेस को नहीं है आपको याद होगा की कांग्रस ने हाल ही में कर्नाटक विधानसभा का चुनाव बजरंगदल के हंगामे के कारण भी जीता हालांकि कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस ने जनता को जो पांच गारंटियां दी थी वे ही जीत का असल आधार बनीं थीं। मध्यप्रदेश में भी कांग्रेस इसी रास्ते पर चली ह। कांग्रेस की प्रमुख नेता प्रियंका गांधी ने मध्यप्रदेश की दो आम सभाओं में अपनी इन्हीं पांच गारंटियों को ही जनता के सामने रखा है। बावजूद इसके कमलनाथ धर्म का सहारा ले रहे हैं।
दरअसल कमलनाथ को लगता है की भाजपा की धर्म की तुरुप कहीं चल न निकले। ये उनका डर है ,जबकि हाल के अनेक विधानसभा चुनावों के नतीजे बता चुके हैं की भाजपा का धर्म का पत्ता अब चल नहीं रहा है। मध्यप्रदेश के इतर राजस्थान, छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के नेताओं ने अभी तक धर्म का सहारा नहीं लिया है और ये अच्छी बात है। ये सही है की विष को विष से मारा जा सकता ह। कांटे से काँटा निकाला जा सकता है किन्तु जब सियासत के पास दूसरे रास्ते हों तो धर्म का सहारा लेने की आवश्यकता क्या है ?
कांग्रेस देश की सत्ता तक जन-आंदोलनों के जरिये पहुंची है। केंद्र में भी और राज्यों में भी। कांग्रेस पर भले ही तुष्टिकरण का संगीन आरोप लगता हो किन्तु जब तक उसने अल्पसंख्यकों के हितों की सुरक्षा की गारंटी दी तब तक उसे कोई नुक्सान नहीं हुआ । अल्पसंख्यकों के अलावा दलित, आदिवासी भी कांग्रेस के साथ उसके धर्मनिरपेक्ष व्यवहार की वजह से रहे। कांग्रेस ने जैसे ही अपना रास्ता बदलने की कोशिश की उसकी तमाम पूँजी छिटककर दूसरे राजनीति दलों की झोली में चली गयी। आज कांग्रेस की झोली में पहले जैसा वजन नहीं है।
दो आम चुनावों में पराजय का स्वाद चख चुके विपक्ष को संगठित कर सत्ता में लौटने के लिए कांग्रेस के पास ये स्वर्ण अवसर हैं। भाजपा यदि बहुसंख्यकों के ध्रुवीकरण के जरिये अपनी राजनीतिक ताकत बढ़ाने में लगी है तो कांग्रेस को नवगठित विपक्षी मोर्चे के साथ तुष्टिकरण के आरोपों से भयभीत हुए बिना अल्पसंख्यकों, दलितों ,आदिवासियों को साथ लेकर काम करना चाहिए। कांग्रेस ने यदि अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि से रत्ती भर समझौता किया तो तय मानिये कि कांग्रेस घाटे में चली जाएगी।
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