हुकूमत अगर बहुसंख्यक वर्ग के कट्टरपंथी दंगाइयों के साथ खड़ी नज़र आती हो तो लोकतंत्र और अल्पसंख्यकों की रक्षा की ज़िम्मेदारी किसे निभानी चाहिए? असग़र वजाहत एक जाने-माने उपन्यासकार, नाटककार और कहानीकार हैं। उनके प्रसिद्ध नाटक ‘’जिन लाहौर नई वेख्या, ओ जन्मयाई नई’ (1990) का दुनिया के कई देशों में मंचन हो चुका है। हाल में घटी साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं के सिलसिले में असग़र ने ‘’हिंदू-मुसलिम सद्भावना और एकता के लिए कुछ विचारणीय बिंदु’ शीर्षक से बहस के लिए एक महत्वपूर्ण नोट अपने फ़ेस बुक पेज पर शेयर किया है। नोट में उल्लेखित दस बिंदुओं में बहस के लिहाज़ से दो बिंदु ज़्यादा महत्व के हैं: पहला और अंतिम।
अपने पहले बिंदु में असग़र कहते हैं : “मुसलिम समुदाय के लिए यह मानना और उसके अनुसार काम करना बहुत आवश्यक है कि देश में लोकतंत्र मुसलमानों के कारण नहीं बल्कि हिंदू बहुमत के कारण स्थापित है और हिंदू बहुमत ही उसे मज़बूत बनाएगा। इसलिए अल्पसंख्यकों के अधिकारों की कोई लोकतांत्रिक लड़ाई सेकुलर और डेमोक्रेटिक हिंदुओं का साथ लिए बिना नहीं लड़ी जा सकती।’’
असग़र अपने दसवें और अंतिम बिंदु में कहते हैं : “सम्भ्रांत मुसलिम समुदाय और साधारण गरीब मुसलमानों के बीच एक बहुत बड़ी दीवार है जिसे तोड़ना और ज़रूरी है।”
पिछले सात-आठ साल या उसके भी पीछे जाना हो तो गुजरात में हुए साम्प्रदायिक दंगों की घटनाओं ने इस भ्रम को तोड़ दिया या कमजोर कर दिया है कि देश में आज़ादी के जमाने जैसी कोई सेकुलर और डेमोक्रेटिक हिंदुओं की ऐसी जमात बची हुई है जो हर तरह के अल्पसंख्यकों (जिनमें दलितों को भी शामिल किया जा सकता है )के मानवीय अधिकारों की रक्षा के लिए किसी लोकतांत्रिक लड़ाई के लिए तैयार है!
असग़र जिन सेकुलर और डेमोक्रेटिक हिंदुओं की बात कर रहे हैं उनमें अधिकांश मुसलमानों के नुमाइंदों के तौर पर सम्भ्रांत मुसलिमों की ओर से और दलितों के प्रतिनिधियों के रूप में दलितों की तरफ़ से मंत्रिमंडलों में शामिल सुविधाभोगी पिछड़े नेताओं की तरह हो गए हैं।
दिल्ली में जहांगीरपुरी (लगभग एक लाख आबादी ) के छोटे से इलाक़े में जब गरीब मुसलमानों की बस्तियाँ उजाड़ी जातीं हैं तो राजधानी के कोई बाईस लाख मुसलमानों को बुलडोज़रों की आवाज़ सुनाई नहीं पड़ती। डेमोक्रेटिक हिंदुओं का वहाँ इसलिए पता नहीं पड़ता कि सम्भ्रांत मुसलिमों की तरह ही वे भी अपनी जान जोखिम में डालने से बचना चाहते।
इस तरह के प्रसंगों में यह सच्चाई बार-बार दोहराई जाती है कि दूसरे विश्वयुद्ध (1941-45) के दौरान जब हिटलर के नेतृत्व में कोई साठ लाख निर्दोष यहूदियों की जानें लीं जा रहीं थीं आठ करोड़ जर्मन नागरिक मौन दर्शक बने नरसंहार को देख रहे थे। ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ अख़बार ने हाल ही में एक समाचार में बताया है कि जर्मनी की अर्थव्यवस्था अंतर्राष्ट्रीय ब्रांड वाली जिन बड़ी-बड़ी कार कम्पनियों पर टिकी हुई है उनकी बागडोर हिटलर के जमाने में हुए यहूदियों के नरसंहार के गुनहगार पूँजीपतियों की पीढ़ियों के हाथों में ही है और वह किसी तरह के अपराध बोध से ग्रसित नहीं है।
सितम्बर 2015 में यूपी के दादरी में मोहम्मद अख़लाक़ की मॉब लिंचिंग और उसके बेटे दानिश की पिटाई से मौत के दौरान जो सेकुलर और डेमोक्रेटिक हिंदू-मुसलमान मूक दर्शक बने रहते हैं वे ही खरगोन और जहांगीरपुरी में भी आँखें चुराते रहते हैं।
जहाँगीरपुरी में काफ़ी कुछ तबाह हो जाने के बाद भी जब कोई वामपंथी महिला नेत्री वृंदा करात बुलडोज़र के सामने अकेली खड़े होने का साहस दिखाती है तो पीड़ितों को कुछ उम्मीद बंधने लगती है।
असग़र जब कहते हैं कि सम्भ्रांत और साधारण गरीब मुसलमानों के बीच एक बहुत बड़ी दीवार है तो वे यह कहने में संकोच करते हैं कि हालत बहुसंख्यक समाज में भी लगभग ऐसी ही है। साधारण गरीब मुसलमान का नेतृत्व भी कट्टरपंथी कर रहे हैं और असग़र जिसे ‘हिंदू बहुमत’ कहते हैं उसकी कमान भी कट्टरपंथियों की पकड़ में ही है।
सेकुलर और डेमोक्रेटिक हिंदू तथा मुसलमान दोनों ही अपनी-अपनी जमातों में अल्पसंख्यक हैं। गिनने जितने बचे मैदानी सेकुलर और डेमोक्रेटिक हिंदुओं (और मुसलमानों ) में समाजवादियों और वामपंथियों को माना जा सकता है। वामपंथियों के बारे में यह याद रखते हुए कि इंदिरा गांधी के लोकतंत्र-विरोधी आपातकाल का उन्होंने खुला समर्थन किया था।
यह अवधारणा कि देश में लोकतंत्र हिंदू बहुमत के कारण स्थापित है और वही (हिंदू बहुमत) उसे मज़बूत बनाएगा उस सच्चाई के सर्वथा विपरीत है जिसके कि हम एक नागरिक के तौर पर प्रत्यक्षदर्शी और एक सेकुलर तथा डेमोक्रेटिक हिंदू के रूप में अपराधी हैं।
हम चुपचाप खड़े देख रहे हैं कि हिंदू बहुमत का उपयोग देश में लोकतंत्र को मज़बूत करने के बजाय भारत को एक हिंदू राष्ट्र घोषित बनाने के लिए किया जा रहा है। भाजपा की समझ में आ गया है कि मुसलमान और दलित जिन ताक़तों को सेकुलर और डेमोक्रेटिक मानकर अपना वोट बेकार करते रहे हैं वे हक़ीक़त में कभी मौजूद ही नहीं थीं। बालों की सफ़ेदी को ढाँकने की तरह ही पार्टियाँ सेकुलरिज़्म की डाई का इस्तेमाल कर रहीं थीं।
चुनाव-दर-चुनाव प्राप्त होने वाले नतीजों में इस नक़ली सेकुलरिज़्म का कलर उतरता गया। इसीलिए जब केसरिया बुलडोज़र चलते हैं तो केवल वर्दीधारी पुलिस ही नज़र आती है सेकुलरिस्ट या गांधीवादी नहीं।
अटल जी सहित भाजपा के दूसरे नेताओं की कथित छद्म धर्मनिरपेक्षता इस तरह की जोखिम उठाने से डरती थी। मोदी ने करके दिखा दिया। इस विरोधाभास को संयोग भी माना जा सकता है कि ‘सर्व धर्म समभाव’ को लेकर सत्य के प्रथम प्रयोग भी गुजरात में हुए थे और बाद में कट्टर हिंदुत्व की प्रयोगशाला भी गुजरात ही बना। एक के नायक मोहनदास करमचंद गांधी बने और दूसरे के नरेंद्र दामोदरदास मोदी।
लोकतंत्र की लड़ाई अब उतनी सहज नहीं रही है जितनी कि असग़र अपने सुझावों के ज़रिए बताना या बनाना चाह रहे हैं (मसलन : “देश में एकता और शांति के महत्व और आवश्यकता पर एक बड़ा राष्ट्रीय सम्मेलन किया जाना चाहिए जिसमें अंतिम दिन दंगा-प्रभावित क्षेत्र में कैंडल मार्च निकाला जा सकता है।”)। लड़ाई लम्बी चलने वाली है क्योंकि ये किन्ही विदेशी ताक़तों के ख़िलाफ़ नहीं है। चूँकि हमारे बीच कोई महात्मा गांधी उपस्थित नहीं हैं लिहाज़ा उसके अहिंसक परिणामों को लेकर कोई गारंटी भी सुनिश्चित नहीं समझी जा सकती है।
मैंने अपने पूर्व के एक आलेख में उद्धृत किया था कि जैसे-जैसे लोगों के पेट तंग होते जाते हैं, हुकूमत के पास उन्हें देने के लिए ‘हिंदुत्व’ और ‘राष्ट्रवाद’ के अलावा कुछ और नहीं बचता।
अतः सभी तरह के साधारण और गरीब अल्पसंख्यकों को प्रतीक्षा करना होगी कि उनके अधिकारों की लड़ाई में सेकुलर हिंदू और सम्भ्रांत अल्पसंख्यक नहीं बल्कि वे धर्मप्राण हिंदू ही साथ देंगे जो मुफ़्त के सरकारी अनाज के दम पर राष्ट्रवाद के नारे लगाते-लगाते एक दिन पूरी तरह से थक जाएँगे और अपने लिए ज़्यादा आज़ादी की माँग करेंगे।
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