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बच्चे के नारे से क्या देश खतरे में चला गया?

हाल की दो घटनाओं पर गौर करें. यूपी के मुस्लिम-बहुल संभल में जामा मस्जिद के सर्वे के कोर्ट आर्डर (मुद्दा था मस्जिद के नीचे मंदिर के होने की जांच) पर भड़के आक्रोश में पुलिस ने घरों की छत से पत्थरबाजी के आरोप में दर्जनों मुसलमानों को गिरफ्तार किया. 
उनमें एक अधेड़ महिला भी थी. करीब आधा दर्जन दफाओं में, जिसमें हत्या का प्रयास भी था,  87 दिन जेल में रखने के बाद पुलिस ने अब उसे छोड़ दिया.पता चला कि वह महिला 120 किलो की है और वह छत पर चढ़ हीं नहीं सकती. भला हो पुलिस का कि उसने  गलती का अहसास सार्वजनिक रूप से किया वर्ना वह यह भी कह सकती थी कि विदेशी ताकतों और आईएसआई ने उसे क्रेन के जरिए छत पर पहुंचाया। 

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दूसरी घटना में महाराष्ट्र के सिंधुदुर्ग जिले के मोहल्ले में एक “राहगीर” ने एक मुसलमान घर से किसी किशोर के “पाकिस्तान जिंदाबाद” का नारा लगाने की आवाज सुनी. समय था रात 9.30 का, अवसर था भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच और क्षण था भारतीय कप्तान रोहित का “पाकिस्तान के गेंदबाज” के हाथों आउट होना.  

राहगीर की देश-भक्ति उफनने लगी और उसने आसपास के लोगों को बताया. सारे “देश-भक्त” एकत्र होकर उसके घर पहुंचे और झगड़ा शुरू हुआ. स्थानीय विधायक की शिकायत पर उतनी ही सतर्क पुलिस और प्रशासन ने बाप और किशोर को गिरफ्तार कर लिया.

फिर शुरू हुई सरकारी नियामक विभागों के बीच देश बचाने की होड़. लोकल निकाय ने दूनी तत्परता दिखाते हुए उस मुसलमान की दुकान पर बुलडोजर चलवा दिया क्योंकि वह “निर्माण” गलत था.
  • फिर प्रशासन ने अमेरिकी एफ़बीआई से तेज जांच में पता कर लिया कि वह भारत का नागरिक ही नहीं है और घुसपैठिया है.

उसी मैच में एक और घटना हुई जब बल्लेबाजी कर रहे पाकिस्तानी खिलाड़ी नसीम शाह के जूते का फीता बांधने के लिए भारत के पूर्व कप्तान दुनिया के मशहूर खिलाड़ी विराट कोहली झुककर पाकिस्तानी बल्लेबाज के जूते का फीता बांधने लगे. 

यह विडियो दुनिया भर में वायरल हुआ. लेकिन राहगीर ने यह नहीं देखा. देश-भक्त मोहल्ले वालों ने भी नहीं गौर किया. 

बच्चे के तथाकथित नारों के शोर में यह विडियो खो गया और भारत की हिफाजत का जज्बा हिलोरें मारने लगा.

प्रशासन देश बचाने में भूल गया कि सुप्रीम कोर्ट ने सख्त आदेश दिया था कि “त्वरित प्रशासनिक बुलडोजर न्याय” के तहत मकान-दुकान गिराना बंद हो. 
सच भी है, कोई भी संविधान, कानून, कोर्ट देश-भक्ति के जज्बे से बड़ा कैसे हो सकता है और वह भी जब सरकार, मंत्री, विधायक, पुलिस और प्रशासन और बहुसंख्यक समाज का बड़ा वर्ग देश बचाने के लिये कमर कस चुका हो.
जिले के एसपी ने मीडिया को बताया कि कैसे केवल एक राहगीर के बयान से मामला आगे बढ़ा। हिन्दू वोटों से जीते विवादों के लिए जाने जाने वाले विधायक की शिकायत और राष्ट्र-भक्त सत्ताधारी गठबंधन ने अपुष्ट नारे के जरिये देश को आने वाले खतरे से बचा लिया.

तर्क शास्त्र में एक दोष का जिक्र है. सेलेक्टिव अप्प्रोप्रिएशन ऑफ़ फैक्ट्स—अपने मतलब के तथ्यों को चुन कर तार्किक ब्लाक तैयार करना. सिस्टम और भीड़ न्याय इसका खुलकर प्रयोग करता है.
उन्मत्त समाज यह नहीं देखता कि राहगीर गलत हो सकता है या किशोर के तथाकथित अपराध का बाप, परिवार और व्यापार से कैसे रिश्ता बन जाता है और कैसे किशोर का कथित नारा देश के लिए ख़तरा बन जाता है. अख़लाक़ के घर गौमांस तलाशने के उन्माद में हत्या, पहलू खान, तबरेज, जुनैद को भीड़ न्याय का शिकार बनाना और इन सब के जरिये देश में राष्ट्रभक्तों का राजनीतिक लाभ लेना एक पैटर्न है. इसमें तर्क नहीं भावना से सत्य तय किया जा रहा है.

इसका नतीजा यह है कि सत्ताधारी वर्ग को महा-कुम्भ पर स्नान को “आज या कभी नहीं” के सामूहिक भाव में बदलना और उसके जरिये स्टेशन पर या मेला स्थान में भगदड़ में लोगों का मरना सहज लगने लगता है और तब एक युवा “हिन्दू धर्माचार्य” ऐसे मृतात्माओं को यह कह कर बधाई देता है कि मरने वाले स्वर्ग के अधिकारी बने.

कुछ दिनों में ही वह प्रधानमंत्री के बगल में खड़ा हो कर समाज को नयी राह दिखाता पाया जाता है.
किसी ने नहीं देखा कि बेरोजगारी इस बीच बढ़ गयी और सरकार ने बजट में स्वास्थ्य, शिक्षा, समाज कल्याण, कृषि, ग्रामीण विकास और रोजगार सृजन पर पूंजीगत और राजस्व निवेश घटा दिया है. किसी ने नहीं सोचा कि स्वास्थ्य पर कम खर्च का नतीजा है देश में कुपोषण के कारण बच्चों में नाटापन. 

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ये ही कुपोषित बच्चे बड़े हो कर कोगनिटिव ज्ञान की दौड़ में कमजोर पड़ते हैं. और तब 142 करोड़ की आबादी में दस करोड़ो आबादी वाले देशों से भी कम मेडल मिलते हैं.  खेल में विरोधी टीम के प्लेयर के जूते का फीता बांधना भूल कर बच्चे का नारा देश रक्षा का मानदंड बन जाता है. रोम की रानी ने कहा था “इन्हें (प्रजा को) रोटी और थियेटर दे दो, ये इतने से हीं खुश रहते हैं”. भारत में भी ख़ुशी और रोष के कारक बदल दिए गए हैं. 

(लेखक एन के सिंह ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन (बीईए) के पूर्व महासचिव हैं)

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