नागपुर में 2 जून 2022 को आरएसएस अधिकारी प्रशिक्षण शिविर के समापन सत्र को संबोधित करते हुए आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने एक अहम बात कही थी। वाराणसी के ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर शुरू हुए अदालती विवाद का संदर्भ लेते हुए उन्होंने कहा था, “इतिहास एक ऐसी चीज़ है जिसे हम बदल नहीं सकते। न आज के हिंदुओं ने और न ही आज के मुसलमानों ने इसे बनाया…यह उस समय हुआ…हर मस्जिद में शिवलिंग क्यों देखते हैं? अब हमें कोई आंदोलन नहीं करना है।”
लेकिन दो साल बाद स्थिति पूरी तरह बदली हुई है। 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी केंद्र में बहुमत पाने में नाकाम रही ही, उत्तर प्रदेश जैसे सुरक्षित समझे जाने वाले गढ़ में भी पिट गयी। ऐसे में आरएसएस और उससे जुड़े तमाम संगठनों ने मोहन भागवत का दो साल पहले दिया गया प्रवचन (जिसकी गंभीरता पर पहले भी शक़ था) पूरी तरह भुला दिया। मस्जिदों के नीचे शिवलिंग खोजने का सिलसिला दिनों दिन बढ़ता गया। संभल की पाँच सौ साल पुरानी मस्जिद के नीचे अचानक मंदिर होने के दावा किया जाने लगा जिसकी ख़ूनी परिणति 24 नवंबर को देखने को मिली। पाँच मुस्लिम नौजवान जान सत्ता के ख़तरनाक इरादों की भेंट चढ़ गये।
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यह घटना पूरी तरह एक सुनियोजित साज़िश का परिणाम है। सर्वे के नाम पर जिस तरह 24 जून को ‘जय-श्रीराम’ का नारा लगाती भीड़ सर्वे करने वालों के साथ जामा मस्जिद की ओर कूच कर रही थी (जिसके वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हैं) उसके ख़िलाफ़ लोगों का ग़ुस्सा भड़कना स्वाभाविक था। हैरानी की बात है कि एक बार 19 नवंबर को भी मस्जिद का सर्वे हो चुका था। तब कोई हिंसा नहीं हुई थी।
इस घटना को ‘क़ानून को न मानने वाली भीड़’ के नैरिटिव के तहत प्रचारित-प्रसारित करने में आरएसएस/बीजेपी और कॉरपोरेट मीडिया पूरी तरह जुट गया है लेकिन इसके मूल में जिस संवैधानिक संकल्प पर मिट्टी डालने की कोशिश है, उस पर बात नहीं का जा रही है। संसद ने 1991 में उपासना स्थल अधिनियम (विशेष प्रावधान) पारित किया था जिसमें कहा गया था कि धार्मिक स्थलों की स्थिति वैसी ही बनाये रखी जाएगी जैसे कि वह 15 अगस्त 1947 को थी। इस क़ानून के तहत सभी पूजा स्थलों के संरक्षण की गारंटी दी गयी थी। इससे अयोध्या के राममंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद को बाहर रखा गया था जिसमें अदालती प्रक्रिया काफ़ी आगे बढ़ गयी थी।
भविष्य बनाने की इच्छा रखने वाले किसी भी समाज के लिए यह ज़रूरी है कि वह अतीत के झगड़ों से ख़ुद को निकाले। उपासना स्थल अधिनियम, 1991 उसका एक क़ानूनी उपाय है। लेकिन ‘बँटोंगे-कटोगे’ जैसे हिंसक नारे को राजनीतिक विमर्श के केंद्र में लाने वालों ने अतीत की खुदाई और भविष्य को मलबा करने का इंतज़ाम कर दिया है। हैरानी की बात है कि इस मसले की गंभीरता को न्यायपालिका भी समझने को तैयार नहीं है। निचली अदालतें वाराणसी से लेकर संभल तक इस तरह के सर्वेक्षणों का आदेश जारी कर रही हैं और सर्वोच्च न्यायालय मूक दर्शक बना हुआ है। प्रधानमंत्री मोदी के साथ आरती करते नज़र आये निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाले सुप्रीम कोर्ट के पीठ ने वाराणसी के ज्ञानवापी मस्जिद मामले में वाराणसी के जिला न्यायधीश के आदेश को बरक़रार रखते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस फ़ैसले पर मुहर लगायी थी जिसमें भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को मस्जिद परिसर के सर्वेक्षण की अनुमति दी गयी थी। जबकि वह उपासना स्थल अधिनियम का हवाला देते हुए ऐसे हर विवाद पर रोक लगा सकते थे।
यह कहने में संकोच नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय ने अपने रवैये से हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग की तलाश करने वाली उपद्रवी जमात के लिए रास्ता साफ़ किया है। इसका जवाब किसी के पास नहीं है कि अगर 15 अगस्त 1947 की स्थिति बरक़रार रखनी है तो फिर ऐसे सर्वेक्षणों का क्या लाभ है? मान लीजिए कि किसी मस्जिद के नीचे मंदिर होने की पुष्टि हो जाये तो क्या उसकी स्थिति बदल दी जाएगी। या उपासना स्थल विधेयक का सम्मान करते हुए यथास्थिति बनाये रखी जाएगी। दोनों ही स्थिति में देश एक नये विवाद की आग में जलने लगेगा।
वैसे बात निकलेगी तो दूर तलक़ जाएगी। इस्लाम के आगमन से पहले भी इस देश में बहुत तोड़फोड़ हुई है। न जाने कितने बौद्धस्थलों को हिंदूधर्म-स्थल में बदला गया है जिसके स्पष्ट सबूत हैं। क्या वहाँ भी सर्वे होगा? सातवीं सदी में भारत आये चीनी यात्री ह्वेनसांग ने मथुरा में बीस और अयोध्या में सौ बौद्ध संघारामों और दर्जनों स्तूपों का ज़िक्र किया था। कहते हैं कि सम्राट अशोक के समय हज़ारों बौद्ध विहार बनाए जाने के कारण ही प्रदेश का नाम विहार पड़ा। इन सबका नाश तो भारत में इस्लाम के आगमन के पहले ही हो गया था। क्या इन्हें भी पुनर्जीवित किया जाएगा?
बौद्ध दर्शन के क्षेत्र में गहरा अनुसंधान करने वाले राहुल सांकृत्यायन जैसे लेखक साफ़ कहते हैं कि हिमालयी तीर्थ बद्रीनाथ दरअसल एक बौद्ध मठ है। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘हिमालय परिचय’ में बद्रीनाथ स्थित मूर्ति को बुद्ध की मूर्ति के रूप में चिन्हित किया है। गज़ेटियर ऑफ हिमालनय डिस्ट्रिक्ट, भाग-दो में बद्रीनाथ के प्राचीन बौद्ध स्वरूप को बदले जाने का विस्तृत विवरण है।देश का भला चाहने वाला कोई भी व्यक्ति नहीं चाहेगा कि इन विवादों में देश का वक़्त ज़ाया किया जाए। लेकिन बीजेपी के लिए ऐसे विवाद सत्ता पाने की चाबी है जिसे वह किसी हालत में फेंकने को तैयार नहीं है।
झारखंड में हेमंत बिस्व सरमा और योगी आदित्यनाथ के ‘बँटेंगे-कटेंगे’ जैसे हिंसक और विषैले अभियान को जनता ने गहरे दफ़ना दिया और बीजेपी जानती है कि महाराष्ट्र में मिली जीत के दूसरे कारण हैं। इस विभाजनकारी नारे की असल परीक्षा झारखंड में थी जहाँ भारत का प्रधानमंत्री ‘घुसपैठिए बेटी उठा ले जायेंगे’ जैसे घटिया प्रचार को आवाज़ दे रहे थे। लेकिन झारखंड की जनता (वहाँ भी हिंदू ही बहुसंख्यक हैं) ने इस छल-प्रपंच को नकार दिया।ऐसे में बीजेपी किसी चोट खाये साँप की तरह व्यवहार कर रही है। योगी आदित्यनाथ लोकसभा चुनाव में अपनी खोई ज़मीन वापस पाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं।
‘मथुरा-काशी बाक़ी है’ के नारे को गरमाने के साथ-साथ सैकड़ों मस्जिदों के नीचे शिवलिंग की खोज शुरू कर दी गयी है। उपचुनाव में जिस तरह पिस्तौल लहराकर पुलिसवालों ने ख़ासतौर पर मुस्लिम जनता को वोट देने से रोका है, वह इसी अभियान का हिस्सा है। मुस्लिम समाज के धैर्य को तोड़ने की हद तक उकसाने की कोशिश हो रही ताकि वे भारत के नागरिक बतौर अपने हक़ और गरिमा को भूल जायें। उनकी किसी भी प्रतिक्रिया को 'हिंसक जमात का हमला बताने’ के लिए मीडिया मुस्तैद खड़ा है।
संभल में जो हुआ वह मुसलमानों का खून बहाने पर आमादा सत्ता के नीयत की एक बानगी है। किसी भी सभ्य समाज में पुलिस को रबर की गोलियों से भीड़ को रोकने का प्रशिक्षण दिया जाता है। यूपी पुलिस के अफ़सर भी बता रहे हैं कि उन्होंने रबर की गोलियाँ चलाईं लेकिन लगता है कि उनमें घृणा का बारूद भरा हुआ था।
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संभल का घटनाक्रम बताता है कि घृणा की राजनीति के ख़िलाफ़ व्यापक हिंदू जनता सचेत नहीं होगी तो देश को सँभालना मुश्किल हो जाएगा। यह सारा खेल हिंदुओं को नासमझ मानकर ही खेला जा रहा है। मुस्लिम नौजवानों को मारी गयी हर गोली का असल निशाना हिंदू समाज है। वह नहीं चेता तो यह खूनी खेल देश को मलबा बना देगा जिसमें सबसे ज़्यादा हिंदुओं के बच्चों का भविष्य ही कराहता मिलेगा।
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