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समझौता ब्लास्ट, किस्त 1:  इंसाफ़ से ‘समझौता’ है असीमानंद का बरी होना

समझौता धमाका मामले में स्वामी असीमानन्द को 'क्लीट चिट' मिल गई है। सरकार अदालत के फ़ैसले को चुनौती नहीं देगी। ऐसा क्यों है कि मोदी सरकार आने के बाद से आतंकवाद से जुड़े कुछ ख़ास मामलों में, जिनमें आरएसएस से जुड़े लोगों के नाम हैं, प्रमुख अभियुक्त बरी हो रहे हैं। 'सत्य हिन्दी' ने इस मामले की गहरी पड़ताल की और लंबी रिपोर्ट तैयार की है। पेश है इसकी पहली किस्त। 
नीरेंद्र नागर

समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट मामले में असीमानंद और बाक़ी अभियुक्तों को एनआईए की अदालत सभी आरोपों से बरी कर देगी, ऐसी संभावना बहुत दिनों से लग रही थी। इसके पीछे कई कारण थे। पहला और सबसे बड़ा कारण तो यही था कि 2014 में देश में नरेंद्र मोदी की सरकार के आने के बाद उन सभी जाँचों को धीमा और कमज़ोर करने की कोशिशें शुरू हो गई थीं जिनमें हिंदूवादी संगठनों से जुड़े लोग अभियुक्त थे।

मोदी सरकार शुरू से उन सबको बचाने में लगी हुई थी और आज गृह मंत्री राजनाथ सिंह के इस बयान से (कि सरकार इस फ़ैसले को चुनौती नहीं देगी), यह और स्पष्ट हो गया है कि किसी मामले की जाँच कैसे की जाए, यह अब अधिकारी नहीं, नेता और मंत्री तय करते हैं। एनआईए की वकील रोहिणी सालियान कुछ साल पहले ही इस ओर इशारा कर चुकी हैं। लेकिन असीमानंद और बाक़ी अभियुक्तों के समझौता मामले में बरी हो जाने के पीछे यही एकमात्र कारण नहीं था।

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समझौता ब्लास्ट में असीमानंद और दूसरे अभियुक्तों के बरी होने का एक बड़ा कारण यह भी है कि वारदात होने और अभियुक्तों की गिरफ़्तारियों के बीच साढ़े तीन साल से ज़्यादा की देरी हो गई थी। समझौता एक्सप्रेस में मिले एक लाइव सूटकेस बम के सहारे स्पेशल जाँच टीम (SIT) इंदौर पहुँच गई और वहाँ की गई पूछताछ से उसे आभास हुआ कि इसमें हिंदूवादी ताक़तों का हाथ हो सकता है। 

लेकिन जाँच आगे बढ़ती, इससे पहले ही मुख्य संदिग्ध सुनील जोशी की दिसंबर 2007 में हत्या कर दी गई और उसके दो साथी रामचंद्र कलसांगरा और संदीप डांगे कभी पुलिस के हाथ नहीं आए। इन दोनों का नाम मालेगाँव कांड से भी जुड़ा है और वे आज तक फ़रार हैं। 

एसआईटी जाँच में यह भी पता चला कि समझौता ब्लास्ट में जिस तरह से बम लगाए गए, वही पैटर्न मालेगाँव (2006), मक्का मस्जिद (2007) और अजमेर शरीफ़ (2007) के धमाकों में भी था। मगर इस विषय में जाँच आगे नहीं बढ़ पाई क्योंकि मध्य प्रदेश की पुलिस ने जाँच टीम से सहयोग नहीं किया।
सितंबर 2008 में हुए मालेगाँव धमाके में ले. कर्नल प्रसाद श्रीकांत पुरोहित, प्रज्ञा सिंह ठाकुर और दूसरे लोगों से हुई पूछताछ और सबूतों के बाद यह संदेह पुख़्ता हो गया कि समझौता ब्लास्ट और दूसरे धमाकों से कौन-कौन लोग जुड़े हुए हैं।

जुलाई 2010 में समझौता ब्लास्ट की जाँच एनआईए को सौंप दी गई जिसने अपनी जाँच के बाद आठ लोगों के ख़िलाफ़ चार्जशीट दायर की

इनमें से केवल चार लोगों पर मुक़दमा चला - कमल चौहान, राजिंदर चौधरी, लोकेश शर्मा और असीमानंद। बाक़ी अभियुक्तों में से एक सुनील जोशी की दिसंबर 2007 में ही हत्या कर दी गई जबकि तीन अन्य रामचंद्र कलसांगरा, संदीप डांगे और अमित चौहान फ़रार चल रहे हैं। 

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  • एनआईए की चार्जशीट में आरोप लगाया गया था कि इन आठ लोगों ने हिंदू धर्मस्थलों पर हुए आतंकवादी हमलों का बदला लेने के लिए मसजिदों और मुसलिम आबादी वाले इलाक़ों में धमाके करने की योजना बनाई, हथियार चलाने और धमाके करने की ट्रेनिंग ली और साज़िश को अंजाम देते हुए समझौता एक्सप्रेस में सूटकेस बम रखे।
असीमानंद ने, जिनको एनआईए ने नवंबर 2010 में गिरफ़्तार किया था, दिसंबर 2010 में मजिस्ट्रेट के सामने इक़बालिया बयान दिया और मालेगाँव, मक्का मसजिद, अजमेर शरीफ़ और समझौता एक्सप्रेस, सभी में शामिल होने की बात क़बूल कर ली। 

किसी भी अभियुक्त का इस तरह इतनी जल्दी अपने गुनाहों को स्वीकार कर लेना आश्चर्यजनक था। लेकिन कहा गया कि असीमानंद जेल में मक्का ब्लास्ट में हाथ होने के आरोप में पकड़े गए कलीम नामक एक निर्दोष युवक से मिलने के बाद ग्लानि से भर गए और उन्होंने सारा अपराध स्वीकार करने का निर्णय ले लिया। 

42 पृष्ठों के इस बयान में असीमानंद ने कहा कि बम का जवाब बम से देने की नीति के तहत ये धमाके किए गए थे। असीमानंद ने इस योजना में मुख्य रूप से आरएसएस के वरिष्ठ नेता इंद्रेश कुमार, सुनील जोशी, प्रज्ञा सिंह ठाकुर और दो अन्य संघ प्रचारक संदीप डांगे और रामचंद्र कलसांगरा के शामिल होने का दावा किया।
एक ही महीने के बाद असीमानंद के वकील ने कोर्ट में दावा किया कि एनआईए ने यह बयान दबाव डालकर दिलवाया है और कुछ समय बाद असीमानंद ने अपना बयान वापस ले लिया।
असीमानंद के बयान वापस लेने के बाद एनआईए का सारा केस गवाहों और सबूतों पर आ टिका था। एनआईए के पास केस से जुड़े कोई पुख़्ता सबूत जैसे कि टेलीफ़ोन बातचीत की रिकॉर्डिंग या पैसों के लेनदेन के काग़ज़ात तो थे नहीं क्योंकि, जैसा कि ऊपर बताया, धमाकों और गिरफ़्तारी में बहुत बड़ा गैप हो गया था। जहाँ तक गवाहों की बात थी तो पचास से ज़्यादा गवाह बाद की तारीख़ों में मुक़र गए। 
वैसे भी 2014 में केंद्र की सत्ता बदलने के बाद अभियुक्तों को सज़ा दिलाने में एनआईए की दिलचस्पी समाप्त हो गई थी। एनआईए की वकील रोहिणी सालियान जून 2016 में यह उजागर कर ही चुकी हैं कि कैसे एनआईए के एक अधिकारी ने उनसे आग्रह किया कि वे मालेगाँव मामलों के अभियुक्तों के प्रति नरम रवैया अपनाएँ

बातचीत में क़बूला था ग़ुनाह

मजिस्ट्रेट के अलावा असीमानंद ने एक और जगह अपने ग़ुनाहों को क़बूला था - एक पत्रकार के सामने। वह बातचीत रिकॉर्ड भी हुई थी। आश्चर्य है कि कोर्ट ने उस क़बूलनामे पर बिल्कुल ग़ौर नहीं किया। आपको याद होगा कि गुजरात दंगों में सज़ायाफ़्ता बाबू बजरंगी को एक स्टिंग विडियो में अपना जघन्य अपराध कबूल करने के कारण ही आमरण उम्रक़ैद की सज़ा हुई है। असीमानंद ने पत्रकार को दिए गए उस टेप रिकॉर्डेड इंटरव्यू में देश भर में हुए धमाकों में अपना हाथ स्वीकार करने के साथ-साथ आतंकी कार्रवाइयों में आरएसएस के बड़े नेताओं - मोहन भागवत और इंद्रेश कुमार की भूमिकाओं पर भी काफ़ी कुछ कहा है। उसके बारे में हम विस्तार से बात करेंगे कल और परसों।
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