दुनिया साइबर-एआई क्रांति की नींव रख रही है, और भारत सोचने का ठेका विदेशी फर्मों को देकर मस्जिदों के नीचे मंदिर और औरंगज़ेब की कब्र में अपना गौरव तलाश रहा है। न AI से अमेरिका-भारत का नारा सफल हो पाया और न Artificial Intelligence को भारत "अपनी आई" यानी माई बना पाया। पढ़िये इनोवेशन में पिछड़ते भारत की दास्तान।
Google की पैरेंट कंपनी Alphabet ने हाल ही में जब $32 बिलियन में इसराइली साइबर सुरक्षा कंपनी Wiz को खरीदा, तो दुनिया भर की टेक इंडस्ट्री में हलचल मच गया। यह न सिर्फ इसराइल के लिए सबसे बड़ा टेक-एक्ज़िट है, बल्कि इससे साफ़ है कि अगली वैश्विक क्रांति—साइबर सिक्योरिटी, एआई और क्लाउड टेक्नोलॉजी में होने वाली है।
लेकिन भारत कहां खड़ा है?
अमेरिका में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के $52.7 बिलियन के CHIPS and Science Act पर बहस हो रही है, यूरोप में AI आचार संहिता के तीसरे मसौदे पर चर्चा हो रही है, चीन AI-निर्मित सामग्री पर अनिवार्य लेबलिंग लागू कर रहा है, जापान अपने AI नैतिक ढांचे को सुदृढ़ कर रहा है, और कज़ाखस्तान एआई में मानवीय पर्यवेक्षण को प्राथमिकता दे रहा है, तो भारत संभल में मस्जिदों पर तिरपाल डालने, महाराष्ट्र में औरंगजेब की कब्र खोदने और शिंदे की गद्दारी के बहस में उलझा है। भारत अपना वक्त ChatGPT की लैब बनाने में क्यों नहीं लगा रहा?
भारत में एलन मस्क के स्टारलिंक की चर्चा हो रही है। रिलायंस के जियो और मित्तल के एयरटेल ने उसे भारत लाने के लिए बाकायदा समझौता भी कर लिया है। उसको भारत का पूरा इंटरनेट सौंपने को लेकर जहां सुरक्षा व अन्य दृष्टिकोणों से बहस जारी है, वहीं यह भी जानना आवश्यक है कि भारत, जो अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में दुनिया से लोहा लेता रहा है, और प्रधानमंत्री मोदी के शब्दों में तो हमारे यहाँ सड़कें भी स्पेस टेक्नोलॉजी से बनती हैं (जो पिछली एक ही बारिश में उखड़ गये थे), आज इस क्षेत्र में क्यों पिछड़ ऱहा है?
इनोवेशन में ऊँची छलांग लगाने वाला भारत, चैट-जीपीटी, ओपनएआई, डीप-सीक और ग्रॉक जैसी तकनीकें नहीं बना पा रहा है। क्या इसके लिए हमारे पास धन-संसाधन नहीं है या बौद्धिक क्षमता नहीं है? या योजना, विचार, नीति, नीयत और इच्छा शक्ति नहीं।
नवाचार के वैश्विक लीग में खड़े होने के लिए कितना पैसा लगता है।
आइये देखें कि गूगल, फेसबुक, ट्विटर जैसे प्लेटफॉर्म्स को खड़ा करने में कितना पैसा लगा।
आप कहेंगे, कि दुनिया में गूगल है ही, तो हम क्यों बनाएं। जी नहीं। अनेक बड़े देशों के अपने-अपने सर्च इंजन और डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म हैं।
- रूस का अपना सर्च इंजन Yandex है।
- चीन का सर्च इंजन Baidu है। उसका सोशल मीडिया WeChat और Weibo भी है।
- जापान में Yahoo! का बड़ा मार्केट है।
- यूरोपीय संघ (EU) का Qwant और Ecosia है।
- अमेरिका के पास Google के साथ Bing और DuckDuckGo भी हैं।
- जर्मनी का सर्च इंजन Ecosia है।
और भारत के पास क्या है? फेक वाट्सएप्प यूनिवर्सिटी में टॉप?
आज चैट जीपीटी और OpenAI के बाद DeepSeek और Grok ने टेक्नोलॉजी की दुनिया के साथ राजनीतिक-सामाजिक और बौद्धिक जगत में हंगामा मचा दिया है। शोध और नवाचार में नई क्रांति आ गयी है। ग्रॉक ने तो भारत में फेक न्यूज़ फैलाने वालों का बेड़ा गर्क कर रखा है। इसने झूठ के सारे पहाड़ ढहा दिये हैं। नफरत फैलाने वालों के चेहरों से नकाब खींच उतारा है। और इससे डरी सरकार इस पर पहरा लगाने की तरकीब खोजने में लगी है।
पर सवाल ये है कि भारत के पास ऐसी अपनी तकनीक क्यों नहीं? जबकि दुनिया की अनेक बड़ी कंपनियों के सीईओ भारतीय हैं।
माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, एडोबी, IBM जैसी दुनिया की तमाम बड़ी टेक कंपनियों को आज भारतीय दिमागों ने संभाल रखा है। लेकिन वे भारत में क्यों नहीं कोई OppenAI, NVIDIA या Wiz बना पाए?
- सुंदर पिचाई – गूगल और अल्फाबेट
- सत्य नडेला – माइक्रोसॉफ्ट
- अर्जुन नारायणन – एडोबी
- शांतनु नारायण – एडोबी।
- निकेश अरोड़ा – Palo Alto Networks
- प्राग अग्रवाल – पूर्व ट्विटर
ये लिस्ट इतनी लंबी है...कि लगता है अमेरिका की सिलिकॉन वैली बिना भारतीयों के हो ही नहीं सकती थी! Fortune Global 500 कंपनियों में 30% से ज़्यादा टेक एक्सपर्ट्स भारतीय हैं। Silicon Valley की हर तीसरी टेक कंपनी की C-suite टीम में कम से कम एक भारतीय ज़रूर है। AI, Cloud, Cybersecurity, और Data सेक्टर में भारतीय इंजीनियरों की भरमार है।
पर भारत में क्यों नहीं दिखता असर?
क्योंकि जब दुनिया में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की क्रांति हो रही है, तो किसी आईआईटी का निदेशक गौमूत्र के ‘औषधीय गुणों’ के फायदे गिना रहा है। और भारत के युवाओं को धर्मांधता और सैकड़ों साल पीछे के नाहक विवादों में झोंका जा रहा है। उसमें न नौकरी है, न भविष्य। और भारतीय प्रतिभा का पलायन जारी है।
मोदी सरकार के डिजिटल इंडिया और स्वदेशी के वादे खोखले साबित हो रहे हैं। 145 करोड़ का देश गूगल जैसा एक 'भारतीय सर्च इंजन' नहीं बना पाया। एक प्लेटफार्म कू बनाने की कोशिश भी नाकाम हो गयी। BharatSearch जैसे छोटे सर्च इंजन सफल नहीं हो पाये हैं। Quikr और Justdial, जैसे प्रयास स्थानीय सर्च और सेवाओं तक सीमित हैं।
ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स में भारत का रैंक (2023) में 40वां था। सुधार हो रहा है, लेकिन टॉप 20 से दूर। भारत दक्षिण कोरिया (5वें स्थान), चीन (12वें स्थान), और जापान (13वें स्थान) जैसे देशों की तुलना में काफी पीछे है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बड़े जोर शोर से सन 2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का सपना दिखाते हैं। लेकिन उनकी सरकार के पास न कोई ठोस एजेंडा है, न नीति और न नीयत। एआई को प्रधानमंत्री मोदी ने माइक्रोसॉफ्ट के मालिक के सामने आई यानी मां बताया। राष्ट्रपति ट्रंप के सामने पीएम मोदी ने एआई का मतलब अमेरिका-इंडिया बताया। लेकिन उनकी पिछली अमेरिका यात्रा में ट्रंप ने उनका भ्रम तोड़ दिया।
R&D पर निवेश: भारत की धीमी रफ्तार
भारत अपने जीडीपी का केवल 0.64% अनुसंधान और विकास (R&D) में खर्च करता है, जबकि दुनिया के बड़े देश इससे कई गुना अधिक निवेश कर रहे हैं। "मेक इन इंडिया" का नारा तो है, लेकिन "इनोवेट इन इंडिया" का बजट नहीं है।

चीन 2000 में भारत के बराबर था, लेकिन आज उसका R&D निवेश भारत से 35 गुना अधिक है। चीन का टेक उद्योग आज $5 ट्रिलियन का है। भारत का ख़र्च पिछले 10 वर्षों से 0.6–0.7% के बीच अटका हुआ है, जबकि दुनिया आगे बढ़ चुकी है।
DRDO और ISRO अच्छा कर रहे हैं, लेकिन बजट बेहद कम है। आँकड़ों (2022-23) के अनुसार, वर्ष 2020-21 में अनुसंधान एवं विकास में भारत का कुल निवेश 17.2 बिलियन डॉलर था।
इस राशि का 54% (9.4 बिलियन डॉलर) चार सरकारी एजेंसियों को जाता है: रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (DRDO) (30.7%), अंतरिक्ष विभाग (18.4%), भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) (12.4%) और परमाणु ऊर्जा विभाग (11.4%)।
अमेरिका और चीन AI, सेमीकंडक्टर, क्वांटम कंप्यूटिंग और बायोटेक में इनोवेशन कर अपना आर्थिक प्रभुत्व बना रहे हैं। भारत अभी भी सस्ते श्रम और कच्चे माल के निर्यात पर निर्भर है।
AI और डेटा इंफ्रास्ट्रक्चर में भारत
- AI R&D पर सरकारी खर्च बहुत सीमित (~ ₹2,200 करोड़) है।
- AI पर अब तक कोई ठोस कानूनी फ्रेमवर्क और नैतिक दिशा-निर्देश नहीं।
- डेटा केंद्र बन रहे हैं, लेकिन ऊर्जा, सुरक्षा और नीति की समस्याएं हैं।
- वैश्विक स्तर का इनोवेशन बहुत कम है।
पेटेंट आवेदन के मामले में भी भारत बहुत पीछे है। 2020-21 में भारत के 58,502 पेटेंट आवेदन में से मात्र 28,391 स्वीकृत हुए। उसी वर्ष चीन में 5.30 लाख, अमेरिका में 3.52 लाख, जापान में 1.79 लाख और कोरिया में 1.35 लाख पेटेंट स्वीकृत हुए।
कारण है, पेटेंट प्रक्रिया में देरी, पेटेंट परीक्षकों की कमी। 2020 में, भारत में केवल 615 पेटेंट परीक्षक थे, जबकि चीन में 13,704, अमेरिका में 8,132, और जापान में 1,666 थे।
भारत में रिसर्च का बजट कम
एक तो भारत में रिसर्च पर बजट कम है और फिर उसको देने की प्रक्रिया और नियम जटिल हैं। सरकारी संस्थानों से रिसर्च ग्रांट लेने की पहली शर्त है डिग्री। चाहे दिमाग में आइंस्टाइन ही क्यों न हो, अगर डिग्री नहीं है तो ‘अयोग्य’। अगर आप कहें कि ‘मेरे पास एक नए सर्च इंजन का आइडिया है’, तो जवाब मिलेगा—’पहले आईआईटी की डिग्री लाओ’। ये अलग बात है कि दुनिया की तमाम बड़ी टेक कंपनियों का कोई भारतीय सीईओ शायद ही पीएचडी, पोस्टडॉक मिलेगा। यूनिवर्सिटी रिसर्च का अधिकतर हिस्सा डिग्री पूरी करने की रस्म बन गया है। न तो इंडस्ट्री से कनेक्शन, न ही फील्ड में एप्लिकेशन।
भारत में शोध और अनुसंधान के लिए धन लेना भी चुनौती भरा है। ब्यूरोक्रेटिक प्रक्रियाएँ, अपर्याप्त वित्त पोषण और समय पर धनराशि का वितरण न हो पाने के कारण R&D के लिए घोषित बजट और वास्तविक खर्च में भी बड़ा अंतर है। अक्सर अनुसंधान के लिए आवंटित सारा धन खर्च नहीं हो पाता। क्योंकि सरकार चाहती है कि सरकार का ज़्यादा पैसा सरकारी संस्थानों को ही जाए।
बजट घटता जा रहा है। 2010 में DRDO के बजट का 6.6% R&D में जाता था, जो 2024-25 में गिरकर सिर्फ 5.1% (प्रस्तावित) रह गया है।
उच्च शिक्षा और शोध संस्थानों की स्थिति
भारत में कुछ प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान हैं, लेकिन वैश्विक रैंकिंग में IITs और IISc का प्रदर्शन कमजोर है। फंडिंग, लैब इंफ्रास्ट्रक्चर और इंडस्ट्री कोलैबोरेशन की कमी के कारण इनका वैश्विक प्रभाव कम है।
हज़ारों पीएचडी धारक, पर काम के कितने!
भारत में हर साल हज़ारों छात्र पीएचडी करते हैं, पर काम के कितने हैं – यह बड़ा सवाल है। 2022-23 के आंकड़ों के अनुसार, देश में हर साल 43,000 से ज़्यादा छात्र पीएचडी की डिग्री ले रहे हैं। इनमें बड़ी संख्या सोशल साइंसेज़ और ह्यूमैनिटीज़ विषयों की होती है, जबकि साइंस, टेक्नोलॉजी और इंजीनियरिंग में पीएचडी की हिस्सेदारी अपेक्षाकृत कम है। इनमें भी केवल 15-20% रिसर्चर ही ऐसा कुछ कर पाते हैं जिसका व्यावहारिक उपयोग हो —बड़ा हिस्सा या तो शिक्षण या थीसिस और डिग्री की खानापूर्ति में लग जाता है।
समस्या रिसर्च के प्रति दृष्टिकोण और व्यवस्था की जड़ता में है। देश में रिसर्च फंडिंग की कमी, विश्वविद्यालयों की औपचारिकता आधारित पीएचडी प्रक्रिया, और उद्योग-जगत से कटे हुए पाठ्यक्रम भारत को इनोवेशन नहीं, डिग्री उत्पादन का केंद्र बना रहे हैं। रिसर्च में ‘कट-पेस्ट’ मानसिकता और कागज़ी पब्लिकेशन की बढ़ती प्रवृति से न समाज को लाभ हो रहा है न विज्ञान को।
और अब सुनिए एक डरावना सच
भारत की नीतियाँ लिख रही हैं विदेशी कंपनियां! यह बेहद चिंताजनक प्रवृत्ति है।
एक आरटीआई से खुलासा हुआ है कि भारत की नीतियाँ अमेरिका-ब्रिटेन-नीदरलैंड की कंपनियाँ बना रही हैं! भारत के मंत्रालयों-विभागों ने 500 करोड़ के कॉन्ट्रैक्ट्स विदेशी कंसल्टेंसी फर्म्स को दिये हैं! विश्व गुरु का भारत ठेके की विदेशी कंपनियों के हवाले? नारा स्वदेशी और काम विदेशी? भारत की नीतियां बना रहे Big Four + McKinsey को भारत के विभिन्न मंत्रालयों, विभागों और संगठनों ने दिये हैं 308 से ज्यादा ठेके।
जिन विदेशी कंपनियों को ठेके मिले, वे हैं–
- PwC – ब्रिटेन
- Deloitte – अमेरिका
- EY – ब्रिटेन
- KPMG - नीदरलैंड्स + UK
- McKinsey – अमेरिका।
इनका पूरा नियंत्रण, नीतियाँ और रणनीति विदेश में बनती हैं। लेकिन हमारे देश के मंत्रालयों में बैठकर इन विदेशी कंपनियों के अधिकारी लिख रहे भारत का भाग्य, बना रहे भारत की नीतियां और कार्यक्रम। क्या विदेशी फर्मों के भरोसे हासिल होगा - ‘विकसित भारत 2047’ का लक्ष्य?
2047 तक विकसित बनने के लिए भारत के पास सिर्फ 22 साल हैं। और अगर दशा दिशा यही रही, तो ‘विकसित भारत’ नहीं, ‘जुमलों से विक्षिप्त भारत’ ज़रूर बनेगा!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व कॉमनवेल्थ थॉट लीडर्स फोरम के संस्थापक हैं।)
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