आरक्षित मुद्रा, विनिमय के माध्यम या खाते की संचानल की इकाई के रूप में प्रचलित अमेरिकी डॉलर के दशकों से चले
आ रहे प्रभुत्व को एक बड़ी चुनौती मिल रही है। इसके पीछे का कारण विकासशील देश में
ज्यादा से ज्यादा डॉलर के प्रभाव को कम करने की मांग कर रहे हैं। यह उनकी अमेरिकी
डॉलर पर निर्भरता को कम करने का प्रयास है। दुनिया भर में डॉलर के प्रभाव को द्वितीय विश्व युद्ध के बाद स्थापित ब्रेटन वुड्स द्वारा स्थापित किया गया था।
पिछले महीने में ही चीन और ब्राजील ने आपसी
मुद्रा में ही व्यापार का समझौता किया है। बीते बुधवार को ही अर्जेंटीना ने घोषणा की कि वह घटते विदेशी
भंडार को बचाए रखने के लिए चीन से व्यापार करते हुए वह चीन की मुद्रा (युआन) में
भुगतान करेगा, इसका कारण वह अमेरिकी डॉलर को बचाकर रखना चाहता है।
दुनिया भर में उठ रहे ये
सभी कदम डी-डॉलराइजेशन को बढ़ावा दे रहे हैं।
डी-डॉलरीकरण एक शब्द के
रूप में भले ही नया हो, लेकिन दुनिया के कई देश दशकों से अमेरिकी डॉलर
पर निर्भरता कम करने का आह्वान कर रहे हैं। ब्राजील के राष्ट्रपति लुइज इनासियो लूला दा
सिल्वा जैसे कई राष्ट्र प्रमुखों ने विश्व व्यापार में अमेरिकी आधिपत्य की आलोचना
की है।
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चीन और रूस भी उन देशों
में शामिल हैं जिन्होंने डी-डॉलराइजेशन का समर्थन किया है। इस साल जनवरी में, यह बताया गया था कि ईरान और रूस संयुक्त रूप से सोने(गोल्ड) द्वारा समर्थित एक
नई क्रिप्टोकरेंसी जारी करेंगे,
जो विदेशी व्यापार में
भुगतान विधि के रूप में काम करेगा। यह राजनीतिक रूप से तटस्थ आरक्षित मुद्रा बनाने
की दिशा में एक नवीनतम कदम है।
डॉलर की प्रतिष्ठा को
समय-समय पर सवालों के घेरे में लिया जाता रहा है। उसके बाद भी व्यापार के लिए सबसे
व्यापक रूप से स्वीकृत मुद्रा का उपयोग करने के भारी फायदे के कारण यह जारी रहा
है। अमेरिकी डॉलर की प्रभुता 1920
के दशक में अंतरराष्ट्रीय
आरक्षित मुद्रा के रूप में स्थापित होनी शुरू हुई, जब इसने पाउंड स्टर्लिंग की जगह
लेनी शुरू कर दी।
द्वितीय विश्व युद्ध के
बाद ब्रेटन वुड्स प्रणाली ने डॉलर की स्थिति को और मजबूत बनाया। चूंकि द्वितीय
विश्व युद्ध के बाद अमेरिका वैश्विक अर्थव्यवस्था में मजबूती उभरा। साल 1944 के समझौते ने युद्ध के बाद की अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक
प्रणाली की स्थापना की जिसने अमेरिकी डॉलर को विश्व स्तर पर दुनिया की प्राथमिक
आरक्षित मुद्रा बनने की अनुमति दी।
अमेरिकन इंस्टीट्यूट फॉर
इकोनॉमिक रिसर्च के अनुसार, ईरान और हाल ही में रूस (यूक्रेन पर आक्रमण
करने के लिए) द्वारा शुरू किए गए आर्थिक व्यवधानों ने स्विफ्ट जैसी अंतरराष्ट्रीय
डॉलर-व्यापार प्रणालियों से डिस्कनेक्ट होने के बाद छोटे देशों को विकल्पों की
तलाश करने के लिए प्रेरित किया।
इस सिलसिले में भारत और
मलेशिया ने हाल ही में घोषणा की कि उन्होंने कुछ ट्रेडों को निपटाने के लिए भारतीय
रुपये का उपयोग करना शुरू कर दिया है। इसी तरह, सऊदी अरब के वित्त मंत्री
ने जनवरी में ब्लूमबर्ग को बताया कि सऊदी अरब अमेरिकी डॉलर के अलावा अन्य मुद्राओं
में भी व्यापार के बारे में चर्चा के लिए तैयार है। पिछले ही महीने चीन ने फ्रांस
के साथ प्राकृतिक गैस के भुगतान के लिए युआन का प्रयोग किया।
इस मसले पर भारत सरकार के
वित्त मंत्रालय के उपायुक्त कुमार विवेक के अनुसार, यह केंद्रीय बैंकों (भारत
के मामले में, आरबीआई) द्वारा अंतरराष्ट्रीय लेनदेन को
सुविधाजनक बनाने, विनिमय दरों को स्थिर करने और वित्तीय विश्वास
को बढ़ाने के लिए रखी गई विदेशी मुद्रा है।
पिछले साल सितंबर में
जारी अमेरिकी कांग्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार, यूरो, येन, पाउंड, रेनमिनबी (आरएमबी), कनाडाई डॉलर, स्विस फ्रैंक और ऑस्ट्रेलियाई डॉलर सहित अन्य
सहित अमेरिकी डॉलर दुनिया की प्रमुख आरक्षित मुद्राएं हैं।
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अमेरिकी कांग्रेस की इस
रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि दुनिया भर के केंद्रीय बैंक अपने विदेशी मुद्रा
भंडार का लगभग 60 प्रतिशत डॉलर में रखते हैं। इसके बावजूदू भी लगभग आधे
अंतरराष्ट्रीय व्यापार का भुगतान डॉलर में किया जाता है।
अमेरिकन इंस्टीट्यूट फॉर
इकोनॉमिक रिसर्च के अनुसार अमेरिकी डॉलर अमेरिका के अलावा पूर्वी तिमोर, इक्वाडोर, अल सल्वाडोर, फेडरेटेड स्टेट्स ऑफ
माइक्रोनेशिया, मार्शल आइलैंड्स, पलाऊ, पनामा और जिम्बाब्वे की वास्तविक मुद्रा है। 22 विदेशी केंद्रीय बैंकों
और मुद्रा बोर्डों ने अपनी मुद्रा को इसके लिए आंका है।
इस साल मार्च के महीने
में नई दिल्ली में एक सम्मेलन आयोजित किया गया जिसमें ब्राजील, रूस, भारत तथा चीन द्वारा संयुक्त रूप
से एक नई मुद्रा लॉन्च करने की संभावनाओं पर चर्चा की गई। दुनिया भर से अमेरिकी
डॉलर के महत्व को कम करने के नए सिरे से प्रयास किया जा रहा है। अमेरिकन
इंस्टीट्यूट ऑफ इकोनॉमिक रिसर्च ने कहा कि दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था की
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