अफ़ग़ानिस्तान में उथल-पुथल है। तालिबान फिर से वहीं पहुँच गया है जहाँ वह 20 साल पहले था। यानी तालिबान से सत्ता छीनी गई थी और अब वह फिर सत्ता में लौट आया है। तो अमेरिका ने इन 20 सालों में क्या पाया? बड़ी विफलता? वियतनाम युद्ध के बाद अफ़ग़ानिस्तान में एक और हार! दुनिया की सबसे ताक़तवर सेना कही जाने वाली अमेरिकी सेना जीत क्यों नहीं पाई? आख़िर अफ़ग़ानिस्तान में जो हो रहा है उसके लिए अमेरिका को दोष क्यों दिया जा रहा है?
ऐसा लगता है कि अमेरिका ने काफ़ी पहले ही अफ़ग़ानिस्तान युद्ध में हार मान ली थी। अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान में किस तरह फ़ेल साबित हुआ है यह इससे भी समझा जा सकता है कि अमेरिकी आकलन को ग़लत साबित करते हुए तालिबान ने काफ़ी तेज़ी से पूरे अफ़ग़ानिस्तान पर कब्जा कर लिया। हाल ही में 10 अगस्त को ही 'वाशिंगटन पोस्ट' ने अमेरिकी खुफिया एजेंसी के हवाले से ख़बर दी थी कि तालिबान 90 दिनों में काबुल पर कब्जा कर सकता है, लेकिन इसके पाँच दिन में ही यानी 15 अगस्त को उसने काबुल पर कब्जा कर लिया।
अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान में 20 वर्षों में 8 बिलियन डॉलर यानी क़रीब 5.9 ख़रब रुपये ख़र्च कर चुका है। उसके सैकड़ों सैनिक मारे गए। और अब उसने अपने हाथ वापस खींच लिए। अमेरिका ने आतंकवादियों को पनाह देने वाले जिस इस्लामी कट्टरपंथी तालिबान संगठन की जड़ें उखाड़ने के लिए सितंबर 2001 में अफ़ग़ानिस्तान पर चढ़ाई की थी उसी से पिंड छुड़ाने के लिए उसने उसके साथ वार्ता की। अब तो अफ़ग़ानिस्तान आधिकारिक तौर पर तालिबान के कब्जे में है। अमेरिका ने अपने दूतावास खाली कराने के लिए क़रीब तीन हज़ार सैनिकों को तैनात किया हुआ है और बड़ी संख्या में और सैनिकों को स्टैंड बाय मोड पर रखा है।
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन के ही कट्टर विरोधी तो इसके लिए बाइडन की आलोचना कर रहे हैं। रिपब्लिकन सीनेटर मिच मैककोनेल सहित कई सांसदों ने अफ़ग़ानिस्तान संकट की तुलना वियतनाम युद्ध के संकट से की है। उत्तरी और दक्षिणी वियतनाम के बीच 1955 से 1975 तक युद्ध लड़ा गया था।
अमेरिका ने दक्षिणी वियतनाम का साथ दिया था और उसे उत्तरी वियतनाम की कम्युनिस्ट सरकार से बचाने के लिए सेना भेजी थी। रूस ने उत्तरी वियतनाम का साथ दिया था। अमेरिका ने 1965 में वियतनाम युद्ध में प्रवेश किया था।
उस युद्ध में भी अमेरिकी सैनिकों की वियतनाम में तैनाती बड़ा मुद्दा था। बाद में जनवरी 1974 में अमेरिका ने उत्तरी वियतनाम सरकार के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर किया था। इसके बाद अमेरिकी सैनिकों की वापसी शुरू कर दी थी। जब अधिकतर सैनिक वापस आ चुके थे तो उत्तरी वियतनाम ने समझौते को तोड़ते हुए हमला कर दिया था। यह अप्रैल 1975 का वक़्त था। तब राजधानी साइगॉन में केवल अमेरिकी राजनयिक और मुट्ठी पर सैनिक ही बचे थे। उन्हें वहाँ से सुरक्षित निकालने के लिए अमेरिका को दूतावास की छत पर हेलिकॉप्टर उतारने पड़े थे।
इसी को लेकर अमेरिका के कई सांसदों ने अफ़ग़ानिस्तान से सैनिकों की वर्तमान वापसी की तुलना वियतनाम युद्ध के अंत में 1975 में साइगॉन से हुई वापसी से की है।
दरअसल, अमेरिकी सांसदों ने यह तुलना यूँ ही नहीं की है। इन दोनों घटनाक्रमों में काफ़ी कुछ समानताएँ भी हैं। 2001 में तालिबान के ख़िलाफ़ हमला करने के बाद से वहाँ तैनात किए गए सैनिकों को अमेरिका ने हाल के महीनों में वापस अपने देश बुलाना शुरू कर दिया था। तालिबान के साथ अमेरिका ने समझौता किया था। फ़रवरी 2020 में डोनल्ड ट्रंप प्रशासन के कार्यकाल में तालिबान के साथ समझौते पर दस्तख़त किए गए थे। ट्रंप प्रशासन ने वार्ता के लिए विशेष दूत भेजे थे जो सीधे तालिबान से वार्ता कर रहा था। फ़रवरी 2020 में उस समझौते के बाद से ही तालिबान ने देश में कई जगहों पर कब्जे जमाने शुरू कर दिए थे।
वह समझौता भले ही तय हो गया था लेकिन तालिबान सीज फायर यानी गोलीबारी रोकने को भी तैयार नहीं हुआ। इस बीच कई बार बातचीत टूटी भी। लेकिन आख़िरकार अमेरिका ने तय दोहा समझौते के मुताबिक़ 1 मई 2021 से अफ़ग़ानिस्तान से अपने सभी सैनिकों को वापस निकाले जाने की घोषणा की और इसके बदले में तालिबान ने आश्वासन दिया कि वह अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन का इस्तेमाल आतंकवादी संगठनों को नहीं करने देगा।
इस समझौते से तालिबान में तो ऊर्जा का संचार हुआ, लेकिन अफ़ग़ानी सुरक्षा बल हतोत्साहित हो गए। दोहा वार्ता को ही तालिबान समर्थकों ने तालिबान की जीत और अमेरिका की हार के तौर पर लिया। इसके बाद तालिबान तेज़ी से एकजुट हुआ।
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