तालिबान के प्रति जिस त्वरित गति से चीन, पाकिस्तान, ईरान और रूस जैसे देशों ने प्रतिक्रिया दी है उसकी शुरुआत दरअसल, तब ही हो गई थी जब अमेरिका ने अपने सैनिकों को अफ़ग़ानिस्तान से बाहर निकालने की घोषणा की थी। बल्कि उससे पहले से ही पाकिस्तान, चीन और रूस ख़ास दिलचस्पी ले रहे थे और तालिबान से उनकी बातचीत की ख़बरें भी चल रही थीं। जब तालिबान के साथ अमेरिका की समझौता वार्ता चल रही थी तो इन देशों की कहीं न कहीं काफ़ी ज़्यादा सक्रियता थी।
जब तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान के आख़िरी शहर काबुल पर कब्जा कर लिया और यह घोषणा हो गई कि पूरा अफ़ग़ानिस्तान ही उनके कब्जे में है तो इन देशों ने तालिबान के प्रति समर्थन की घोषणा करने में जरा भी देर नहीं की। चीन ने तालिबान का स्वागत किया। उसने तालिबान के साथ मिलकर काम करने की इच्छा जताई और कहा कि वह समावेशी सरकार देगा। चीन ने सोमवार को कहा कि हम उम्मीद करते हैं कि तालिबान अपने वादे पर खरा उतरेगा।
ईरान और तुर्की की तरफ़ से भी वैसी ही प्रतिक्रिया आई। चीन ने जहाँ उम्मीद जताई कि तालिबान का शासन स्थायी होगा वहीं ईरान का कहना है कि अमेरिका की हार से स्थायी शांति की उम्मीद जगी है।
रूस ने तालिबान के समर्थन में बयान देते हुए कहा है कि अफगानिस्तान में तालिबान शासन के दौरान स्थिति अशरफ गनी के शासनकाल से बेहतर रहेगी। पाकिस्तान की प्रतिक्रिया तो और भी दिलचस्प है।
जिस तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान में चुनी हुई सरकार ध्वस्त कर दी, जिसके कारण महिलाएँ खौफ़ में हैं, आम लोगों में दहशत है, उसी तालिबान को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने 'गुलामी की जंजीरें तोड़ने वाला' क़रार दिया है।
इमरान ख़ान जिसकी तारीफ़ कर रहे हैं वह वही कट्टरपंथी सिस्टम है जिसने शिक्षा, नौकरी और शादी के मामले में कई वर्गों, विशेष रूप से महिलाओं को नागरिक अधिकारों से वंचित कर दिया है।
विपक्षी दलों के नेताओं द्वारा 'तालिबान ख़ान' के तौर पर बुलाए जाने वाले इमरान ख़ान का यह बयान तब आया है जब रविवार को तालिबान के लड़ाकों ने बग़ैर लड़ाई लड़े ही काबुल पर क़ब्ज़ा कर लिया। वैसे, उनके विरोधी उनको तालिबान ख़ान इसलिए बुलाते हैं क्योंकि तालिबान के प्रति उनका रवैया नरम रहा है। इमरान खान ने पहली बार तब विवादास्पद बयान दिया था जब तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) के शीर्ष कमांडर वली-उर-रहमान को 2013 में अमेरिकी सेना द्वारा मारे जाने के बाद उसे 'शांति-समर्थक' क़रार दिया था। बाद में उन्होंने सुझाव दिया था कि तालिबान को पाकिस्तान में कहीं 'एक कार्यालय खोलने' की अनुमति दी जानी चाहिए। 2018 में बीबीसी के एक इंटरव्यू में इमरान ख़ान ने तालिबान के 'न्याय के सिद्धांत' की तारीफ़ की थी। इमरान ख़ान ने पिछले साल जून में ओसामा बिन लादेन को शहीद क़रार दिया था।
ये वे देश हैं जिन्होंने तालिबान की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया है और इन देशों ने अफ़ग़ानिस्तान में दूतावास बंद नहीं किए हैं। इन देशों की सक्रियता का इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इन देशों ने तालिबान को मान्यता देने के संकेत दिए हैं।
क्या भारत इस तरह से सक्रिए दिखा? यह सवाल इसलिए अहम है क्योंकि भारत अमेरिका के बाद अफ़ग़ानिस्तान को सबसे बड़ी सहायता देने वाली क्षेत्रीय ताक़त है और अफ़ग़ानिस्तान भारत का क़रीबी पड़ोसी है। भारत को अपने निवेश के साथ-साथ अफ़ग़ानिस्तान में चल रही परियोजनाओं और उनमें काम करने वाले लोगों का भविष्य की भी चिंता है। इसके बावजूद जब अमेरिका जैसी ताक़त ने अफ़ग़ानिस्तान में 20 साल के बाद तालिबान से वार्ता करने और अमरिकी सैनिकों को वापस बुलाने की घोषणा की तो भारत क्या कर रहा था? जाहिर है भारत चाहेगा कि तालिबान की कट्टरपंथी नीतियों के कारण फिर से वह आतंकवाद का अखाड़ा न बने और पाकिस्तान फिर से उसे भारत में आतंक फैलाने वाले गुटों की पनाहगाह न बना ले। तो इसके लिए क्या किया जाना चाहिए था, या अभी भी आगे क्या किया जाना चाहिए?
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार तो अब मौजूदा परिस्थितियों में भारत को तालिबान के साथ सीधे संबन्ध बनाना ज़रूरी मानते हैं। इसी साल जून में सूत्रों के हवाले से ख़बर आई थी कि भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने तालिबान से मुलाक़ात की थी, लेकिन सरकार की ओर से इस ख़बर का खंडन किया गया था। लेकिन हालात तो ऐसे लगते हैं जैसे पाकिस्तान और चीन इस मामले में आगे दिखे। तभी भारत में अब आशंका जताई जाने लगी है कि पाकिस्तान और चीन तालिबान की मदद से भारत के ख़िलाफ़ आक्रामक नीति अपना सकते हैं। तालिबान से संबंध बनाने में पाकिस्तान के अपने हित तो हैं ही चीन को भी बड़ा फायदा नज़र आता है। उसे अपने शियजियांग प्रांत के वीगर मुसलमानों में कट्टरपंथ फैलने की चिंता है। इस मामले में तालिबान से गारंटी मिलने के बदले में चीन कुछ भी करने के लिए तैयार होगा। इससे भारत को हाशिए पर रखने का पाकिस्तान का लक्ष्य भी पूरा होगा।
हालाँकि भारत की एक उम्मीद अभी भी बाक़ी है। ऐसा इसलिए कि तालिबान को इस बात का एहसास है कि सरकार बनाने के बाद उन्हें आर्थिक मदद की ज़रूरत होगी और भारत पश्चिमी देशों और दान देने वाले संगठनों से मदद दिलाने वाली कड़ी का काम कर सकता है। पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है और वह ख़ुद बदनाम है इसलिए यह भूमिका अदा नहीं कर सकता। लेकिन चीन भारत की इस भूमिका की सबसे बड़ी रुकावट बन सकता है और पाकिस्तान पूरी कोशिश करेगा कि चीन यह काम करे।
अपनी राय बतायें